प्रो. महेश चंद गुप्ता
पीएमओ, राजभवनों और केन्द्रीय सचिवालय के नाम परिवर्तन के साथ ही भारत एक नए दौर में प्रवेश कर गया है जहां शासन सेवा का प्रतीक बनेगा, सत्ता आम जन के और समीप आएगी और प्रशासन अधिकारों का नहीं बल्कि कर्तव्य की भावना का प्रतीक बनकर उभरेगा. अक्सर कहा जाता है कि नाम में क्या रखा है लेकिन भारतीय संस्कृति इस प्रश्न का सीधा उत्तर देती है कि नाम में ही सब कुछ रखा है। हमारे यहां ‘यथा नाम तथा गुण’ की परंपरा उतनी ही पुरानी है जितनी हमारी सभ्यता। जब हम ‘राम’ का नाम लेते हैं तो हमारे भीतर स्वत: शांति, करुणा और मर्यादा का भाव जाग उठता है। ‘कृष्ण’ का नाम लेते ही मन में प्रेम, और मधुरता की अनुभूति होती है। हमारी मान्यताओं के अनुसार नाम एक ध्वनि है, ऊर्जा है, पहचान है और दिशा है। इसीलिए हमारे समाज में नाम केवल किसी की पहचान ही नहीं है बल्कि यह व्यक्तित्व और नेतृत्व का वाहक है।
मौजूदा दौर में जब दुनिया के अनेक देशों में मूल्यहीनता, आपसी संघर्षों, तानाशाही और सत्ता केन्द्रित शासन का बोलबाला है, तब मोदी सरकार ने प्रधानमंत्री कार्यालय का नाम ‘सेवा तीर्थ’, राजभवनों का नाम ‘लोक भवन’ और केंद्रीय सचिवालय का नाम ‘कर्तव्य भवन’ करके एक गहरी सांस्कृतिक चेतना को पुनर्जीवित किया है। यह केवल बोर्ड बदलने अथवा दीवारों पर नई पट्टिका लगाने का कदम भर नहीं है बल्कि इसके पीछे शासन की आत्मा बदलने वाले सांकेतिक, दार्शनिक और वैचारिक बदलाव की भावना निहित है। पीएम नरेंद्र मोदी बार-बार कहते रहे हैं कि वे प्रधान सेवक हैं और उनका कार्य सत्ता का प्रदर्शन नहीं बल्कि सेवा की साधना है। उनके इसी मनोभाव के अनुरूप प्रधानमंत्री कार्यालय को अब सेवा तीर्थ कहा जाएगा। हमारे यहां तीर्थ शब्द का बड़ा महत्व है। तीर्थ शब्द पवित्रता, तप, श्रद्धा और जन कल्याण के भाव को व्यक्त करता है। हम तीर्थ उन स्थानों को कहते हैं जहां लोग समाधान, शांति और आशा की उम्मीद लेकर जाते हैं। मोदी सरकार ने पीएमओ को तीर्थ कहकर यह संदेश दिया है कि वहां सत्ता संचालन नहीं, सेवा का कार्य होगा।
इसी प्रकार राज भवनों का नाम बदलकर लोक भवन करना एक क्रांतिकारी कदम है। ‘राज’ शब्द में हमेशा एक दूरी, एक अधिकार और सत्ता भाव का अहसास जन मानस को होता रहा है लेकिन ‘लोक’ शब्द में अपनापन, भागीदारी और साझेदारी का भाव समाया हुआ है। केंद्रीय सचिवालय का नाम कर्तव्य भवन रखने के पीछे नौकरशाही में सेवा भाव और कर्तव्य बोध का संचार करने का भाव निहित है। दशकों से इसे अधिकार, फाइलों की गति, निर्णयों की शक्ति और नौकरशाही की ताकत का प्रतीक माना जाता रहा है लेकिन अब जब इसका नाम कर्तव्य भवन कर दिया गया है तो अब प्रत्येक अधिकारी को हर घड़ी स्मरण रहेगा कि शासन का आधार अधिकार नहीं, कर्तव्य है।
दो दिन पहले तक जब हम प्रधानमंत्री कार्यालय सुनते थे तो मन में एक विशाल, अधिकार प्रदर्शित करने वाली इमारत का भाव आता था लेकिन सेवा तीर्थ नाम सुनते ही मन में एक अलग ही पवित्रता, जनता से जुड़ाव और विनम्रता का भाव उमडऩे लगा है। यही इस नामकरण का वास्तविक निहितार्थ है।
राज कपूर की फिल्म का मशहूर गीत हर किसी को याद है-मेरा जूता है जापानी, सर पे लाल टोपी रूसी, फिर भी दिल है हिंदुस्तानी। नाम के साथ पहचान का रिश्ता कैसा गहरा होता है, इस गीत से बेहतर कोई उदाहरण नहीं हो सकता। जापानी शब्द जापान की आत्मा से जोड़ देता है, रूसी शब्द रूस से, और हिंदुस्तानी दिल की धडक़न बना रहता है। यानी नाम हमेशा भाव जगाते हैं, भाव संस्कृति गढ़ते हैं और संस्कृति राष्ट्र का चरित्र तय करती है। मोदी सरकार ने सिर्फ नाम ही नहीं बदले हैं बल्कि संदेश दे दिया है कि अब सत्ता जनता के पास लौट रही है। राजभवन अब उस पुराने औपनिवेशिक प्रतीक जैसे नहीं रहेंगे जहां जनता दूर खड़ी ताकती रहे। मेरे विचार में भविष्य में यह भी संभव है कि प्रधानमंत्री कार्यालय और राजभवनों तक जनता की सहज पहुंच और बढ़े क्योंकि मोदी सरकार का संकल्प ही जनता का शासन, जनता के लिए शासन और जनता के बीच रहकर शासन है। मोदी सरकार और जनता के बीच कोई दूरी नहीं चाहते हैं।
देश में यह पहला अवसर है जब कोई सरकार हर मोर्चे पर कर्तव्य-पथ, अमृत काल और सेवा जैसे शब्दों को अपने कामकाज की आधारशिला बनाकर काम कर रही है। ऐसे में अब कर्तव्य भवन केवल नाम नहीं बल्कि एक राष्ट्रीय मनोवृत्ति का निर्माण करने वाला है। यह नाम एक ऐसी भावना को बढ़ाएगा जो नौकरशाही को अधिक उत्तरदायी, संवेदनशील और नैतिक बनाएगी। यह नामकरण भारत के सांस्कृतिक पुनरुत्थान का महत्वपूर्ण अध्याय है। हम सब जानते हैं कि मोदी सरकार ने पहले भी कई औपनिवेशिक, विदेशी आक्रांताओं के नाम वाले और अप्रासंगिक नामों को बदलकर भारतीयता से जुड़े नाम स्थापित किए हैं। राजपथ को कर्तव्य पथ बनाना और मुगल गार्डन को अमृत उद्यान बनाना इसके बड़े उदाहरण हैं।
विपक्षी दल आलोचना कर रहे हैं। वह सवाल उठा रहे हैं कि यह सब करके सरकार करना क्या चाह रही है? सरकार का इसके पीछे कोई छिपा हुआ एजेंडा नहीं है बल्कि सरकार का उद्देश्य तो स्पष्ट है। सरकार भारतीय संस्कृति को उसका खोया हुआ गौरव लौटाने के लिए हर काम करना चाहती है। कुछ लोगों को नाम बदलने का यह अभियान प्रतीकात्मक लग सकता है मगर अभियान यह भारतीय आत्मा, भारतीय विचार और भारतीय मूल्यों की पुन: स्थापना है। यह उस नए भारत की पहचान है जो अपनी संस्कृति पर गर्व करता है और जिसे अपनी बोली, भाषा और शब्दों पर भरोसा है। सबसे बड़ी यह है कि यह नया भारत अपनी प्रशासनिक संरचना में भारतीय चिंतन को स्थान देता है। भारत में अब राजतंत्र नहीं है और लोकतंत्र में जनता सर्वोच्च है। इस भाव से काम कर रही सरकार के लिए पीएमओ, राजभवनों के नाम बदलना बहुत जरूरी था क्योकि वह जनता के साथ भावनात्मक जुड़ाव बढ़ाना चाहती है। सेवा तीर्थ, लोक भवन और कर्तव्य भवन ऐसे शब्द हैं, जो आम हिंदुस्तानी के दिल से निकलते हैं। ये शब्द आम हिंदुस्तानी को सरकार से जोड़ते हैं और सरकार एवं जनता के बीच की दूरी मिटाते हैं। वैसे भी हम आजादी का अमृतकाल मना रहे हैं। आखिर हम कब तक औपनिवेशिक मानसिकता को ढो सकते हैं।
मोदी सरकार ने ये सिर्फ नाम ही नहीं बदले हैं बल्कि औपनिवेशिक मानसिकता के ताबूत पर आखिरी कील ठोकी है। जिस भाषा में राज, सचिवालय, कार्यालय जैसे शब्द हों, वह औपनिवेशिक तंत्र की भाषा हैं। मोदी सरकार इस औपनिवेशिक मानसिकता को हटाने में सफल रही है। सेवा पर आधारित प्रशासन को स्थापित करने की सरकार सराहनीय है। मुझे लगता है सरकार ने ये नाम बदल कर नई पीढ़ी को भी एक प्रेरक शब्दावली दे दी है। हमारे बच्चे जब सेवा तीर्थ सुनेंगे, कर्तव्य भवन पढ़ेंगे, तो उनके मन में शक्ति के बारे में नहीं बल्कि सेवा और कर्तव्य के बारे में विचार आएंगे। यह विचार न केवल भारत का भविष्य बदलेंगे बल्कि विकसित भारत का सपना भी साकार करेंगे। सच में यह नाम नई राष्ट्रीय भावना का उदय है जिस पर हम सबको गर्व करना चाहिए। इन नामों के परिवर्तन के साथ ही भारत एक नए दौर में प्रवेश कर गया है, जहां शासन सेवा का प्रतीक बनेगा, सत्ता आम जन के समीप आएगी और प्रशासन अधिकारों का नहीं, कर्तव्य की भावना का प्रतीक बनकर उभरेगा।
प्रो. महेश चंद गुप्ता