राजेश कुमार पासी
ऐसा लग रहा है कि यूरोपीय देशों में फिलिस्तीन को मान्यता देने की होड़ लग गई है. एक-एक करके कई देशों ने फिलिस्तीन को मान्यता दे दी है । कुछ दिनों के अंदर ही कनाडा, ब्रिटेन, फ्रांस, पुर्तगाल, ऑस्ट्रेलिया, मोनाको, माल्टा,लक्जमबर्ग और बेल्जियम ने फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता दे दी है। जहां इसका फिलिस्तीन अधिकारियों द्वारा स्वागत किया जा रहा है तो इजराइल ने इसका जबरदस्त विरोध किया है। लगभग 150 देशों ने फिलिस्तीन को एक देश के रूप में मान्यता दे दी है। यूरोपीय देशों पर अमेरिका का जबरदस्त दबाव था कि वो ऐसा कदम न उठाएं लेकिन अमेरिका के दबाव को दरकिनार करते हुए इन देशों से फिलिस्तीन को मान्यता दी है। सवाल यह है कि जब 140 देशों ने फिलिस्तीन को पहले ही मान्यता दे रखी थी तो अब इन देशों द्वारा मान्यता मिलने से क्या होने वाला है । अगर अमेरिका फिलिस्तीन को मान्यता नहीं देता है तो फिलिस्तीन को कोई फायदा होने वाला नहीं है । अमेरिकी विरोध के कारण उसे संयुक्त राष्ट्र द्वारा पूर्ण देश का दर्जा नहीं मिलेगा। अमेरिका का दोगलापन इस बात से समझा जा सकता है कि उसने सीरिया के राष्ट्रपति जुलानी को अमेरिका का वीजा दे दिया जबकि वो एक खतरनाक वांछित आतंकवादी रह चुका है जिस पर अमेरिका ने ही दस मिलियन डॉलर का इनाम रखा हुआ था । दूसरी तरफ फिलिस्तीन के राष्ट्रपति महमूद अब्बास को अमेरिका ने वीजा देने से मना कर दिया है जबकि उनके ऊपर किसी भी आतंकवादी कार्यवाही में भाग लेने का आरोप नहीं है । सवाल उन देशों से भी है, जो फिलिस्तीन को मान्यता दे रहे हैं जबकि कई ऐसे देश हैं जो अभी भी मान्यता देने के लिए गुहार लगा रहे हैं । अफ्रीकन यूनियन के दबाव के कारण सोमालीलैंड को ज्यादातर देशों ने मान्यता नहीं दी है । चीन की ताकत को देखते हुए दुनिया के लगभग सारे देश वन चाइना नीति को मान्यता देते हैं, इसलिए ताइवान को कोई भी मान्यता देने को तैयार नहीं है । कोसोवो को सिर्फ सौ देशों ने ही मान्यता दी है । सवाल यह है कि जो यूरोपीय देश अभी तक अमेरिकी दबाव के कारण फिलिस्तीन को मान्यता नहीं दे रहे थे, वो अब मान्यता क्यों दे रहे हैं ।
इसकी कई वजह हैं, डोनाल्ड ट्रंप के कारण यूरोपीय देश अमेरिका से टकराव के मूड में हैं । ट्रंप टैरिफ के नाम पर यूरोपीय देशों को धमका चुके हैं और दबाव डालकर यूरोपियन यूनियन से ट्रेड डील पर साइन करवा लिए हैं । यूरोपीय देश अरब देशों सहित अन्य मुस्लिम देशों से संबंध सुधारना चाहते हैं । कई यूरोपीय देशों में वामपंथी विचारधारा से प्रेरित दलों की सरकार चल रही है जो फिलिस्तीन के हमदर्द हैं । यूरोपीय देशों में मुस्लिमों की आबादी बढ़ती जा रही है. उनको खुश करने के चक्कर में भी यह कदम उठाया जा रहा है । यूरोपीय देश क्या सोचते हैं, ये उनकी समझ हो सकती है लेकिन इससे फायदा होने की जगह नुकसान होने का ज्यादा अंदेशा है । उनके इस कदम से कट्टरपंथियों का हौसला बढ़ने वाला है । इसकी बड़ी कीमत यूरोपीय देशों को चुकानी होगी । ऐसा नहीं है कि फिलिस्तीन को मान्यता देना गलत है लेकिन उनकी मंशा अच्छी नहीं है । गलत मंशा से उठाया गया सही कदम भी नुकसान पहुंचाता है । कट्टरपंथी इसे अपनी जीत मानकर इन देशों पर इजराइल से रिश्ते तोड़ने का दबाव बनाएंगे जिसको मानना इतना आसान नहीं होगा ।
यूरोपीय देशों में इजराइल के विरोध में हिंसक प्रदर्शन नए सिरे से शुरू हो सकते हैं । उनके लिए फिलिस्तीन कोई मुद्दा है ही नहीं, उनका असली मुद्दा कट्टरपंथ बढ़ाना है । इटली में फिलिस्तीन के समर्थन में मुस्लिम कट्टरपंथियों ने हिंसक प्रदर्शन किया है । प्रदर्शनकारियों ने सरकारी और निजी संपत्तियों को भारी नुकसान पहुंचाया है । सवाल यह है कि फिलिस्तीन के समर्थन में ये लोग उन देशों को नुकसान क्यों पहुंचा रहे हैं, जो इन्हें अपना नागरिक मानते हैं । जो लोग फिलिस्तीन के समर्थन में रैलियां निकाल रहे हैं, उन्हें फिलिस्तीनी राष्ट्रपति अब्बास की बात भी सुननी चाहिए । अब्बास ने कहा है कि 7 अक्टूबर को इजराइल पर हमास का हमला एक घिनौनी आतंकवादी हरकत थी । उनका कहना है कि उन आतंकवादियों का गाजा पर कोई अधिकार नहीं है । जो लोग आज फिलिस्तीन का समर्थन कर रहे हैं, वही लोग हमास का भी समर्थन कर रहे थे । कतर ने हमास के नेताओं को अपने देश में शरण दे रखी है, वो लोग वहां रहकर ही इजराइल में आतंकवादी गतिविधियां चला रहे हैं । जो लोग यूरोपीय देशों में रैलियां निकालकर फिलिस्तीन को मान्यता देने की मांग कर रहे हैं, वो लोग क्या हमास को आतंकवादी संगठन मानने को तैयार हैं । इन लोगों ने क्या कभी हमास के आतंकवादी हमले के विरोध में रैली निकाली है । वास्तव में फिलिस्तीन के नाम पर यूरोपीय देशों में कुछ संगठन इस्लामिक वर्चस्व कायम करना चाहते हैं ।
मान्यता देने वाले देशों का कहना है कि इजराइल-फिलिस्तीन समस्या का समाधान द्वि-राष्ट्र सिद्धांत हैं लेकिन सवाल यह है कि इस सिद्धांत को तो इजराइल के गठन के समय भी माना गया था । तब ज्यादातर मुस्लिम देशों ने इस सिद्धांत को मानने से इंकार कर दिया था क्योंकि उनका कहना था कि इजराइल दुनिया में होना ही नहीं चाहिए । तब उनका कहना था कि फिलिस्तीन पर सिर्फ फिलिस्तीनियों का हक है । 1948 में इजराइल बनने के दूसरे ही दिन उसको समाप्त करने के लिए पांच अरब देशों ने इजराइल पर हमला कर दिया था । द्वितीय विश्व युद्ध के बाद ब्रिटेन और फ्रांस ने फिलिस्तीन को दो देशों में विभाजित करके इजराइल को एक नया देश बनाया था । इजराइल के हिस्से 56 प्रतिशत और फिलिस्तीन के हिस्से में 44 प्रतिशत भूमि आई थी । 1948 के युद्ध के बाद इजराइल ने फिलिस्तीन के लगभग 20 प्रतिशत हिस्से पर कब्जा कर लिया । देखा जाये तो द्वि-राष्ट्र सिद्धांत की अवहेलना पहले अरब देशों द्वारा ही की गई थी । फिलिस्तीन को अपनी जमीन इसलिए गवांनी पड़ी क्योंकि अरब देशों ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को नकार कर इजराइल को खत्म करने की कोशिश की थी ।
सवाल यह है कि अगर इजराइल युद्ध हार जाता तो क्या आज इजराइल का अस्तित्व होता । इसके बाद 1967 में तीन अरब देशों ने फिर इजराइल पर हमला कर दिया और उन्हें मुंह की खानी पड़ी । इसके बाद इजराइल ने फिर फिलिस्तीन की कुछ भूमि अपने कब्जे में ले ली । भारत ने पाकिस्तान की कब्जा की गई भूमि वापिस की लेकिन सवाल यह है कि अगर पाकिस्तान भारत की भूमि पर कब्जा करने में कामयाब हो जाता तो क्या वो कब्जा की गई भूमि वापिस करता । पाकिस्तान कभी ऐसा नहीं करता क्योंकि उसे अमेरिका का समर्थन हासिल था । इजराइल के साथ ऐसा नहीं था. जब उसने फिलिस्तीन की भूमि कब्जा की तो उसने वापिस नहीं की क्योंकि अमेरिका उसके पीछे खड़ा था और आज भी खड़ा है। जब तक अमेरिका और इजराइल फिलिस्तीन को मान्यता नहीं देते, कुछ होने वाला नहीं है। अमेरिका भी अगर फिलिस्तीन का समर्थन कर देता है तो भी इजराइल नहीं मानने वाला क्योंकि वो अमेरिका की बात एक सीमा तक सुनता है और फिर अपनी मर्जी चलाता है।
इजराइल ने स्पष्ट रूप से कह दिया है कि अब फिलिस्तीन नाम का कोई देश नहीं बचा है । इसकी वजह यह है कि वेस्ट बैंक पर इजराइल का पूरा नियंत्रण है और गाजा को वो पूरी तरह से अपने कब्जे में लेने की तैयारी कर चुका है । देखा जाए तो जमीन पर फिलिस्तीन कहीं दिखाई नहीं देता है । ऐसा करने का मौका फिलिस्तीन समर्थक मुस्लिम देशों ने ही इजराइल को दिया है । इजराइल ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत को स्वीकार कर लिया था और वो अपने विकास में लग गया था लेकिन उसे समाप्त करने की मुस्लिम देशों की जिद्द ने हालात बिगाड़ दिए । आज वही देश द्वि-राष्ट्र सिद्धांत अपनाने की बात करते हैं । जिस राष्ट्र को इजराइल लगभग निगल चुका है, वो अब कैसे अस्तित्व में आएगा । फिलिस्तीनी इजराइल को दुनिया से खत्म कर देना चाहते हैं और इस काम में वो लगातार लगे हुए हैं । आतंकवाद को हथियार बनाकर वो इजराइल को समाप्त करने की कोशिश में लगे हुए हैं और कई मुस्लिम देश इसमें उनकी मदद कर रहे हैं । इजराइल अपनी ताकत से इनके खिलाफ लड़ रहा है । इजराइल जानता है कि दुनिया उस पर रहम करने वाली नहीं है, उसे अपनी ताकत से ही जिंदा रहना होगा।
भारत ने द्वि-राष्ट्र सिद्धांत स्वीकार कर लिया लेकिन क्या पाकिस्तान ने इसे स्वीकार किया । पाकिस्तान ने इसे कभी नहीं स्वीकार किया. वो अस्तित्व में आने के बाद से ही भारत पर कब्जा करने की फिराक में है । अपनी इस कोशिश में ही वो भारत से चार युद्ध लड़ चुका है । जब उसने देखा कि वो भारत से युद्ध में जीत नहीं सकता तो उसने आतंकवाद को हथियार बनाकर भारत को खत्म करने की साजिश की । दुनिया को समझना होगा कि वास्तविक मुद्दा फिलिस्तीन नहीं बल्कि इजराइल है जिसे किसी भी तरह खत्म करना है । फिलिस्तीनियों के साथ कितनी भी सहानुभूति जताई जाए लेकिन सच यह है कि ये लोग इजराइल के अस्तित्व को स्वीकार नहीं करते । अगर फिलिस्तीनी इजराइल के साथ रहना सीख जाते तो आज ये हालात न होते । गाजा में जो हो रहा है, वो किसी भी तरह से जायज नहीं ठहराया जा सकता लेकिन हमास का समर्थन इन्हीं गाजावासियों ने किया था । जब तक दुनिया आतंकवाद के खिलाफ खड़ी नहीं होती, तब तक गाजा बनते रहेंगे । आतंकवाद का समर्थन करना कितना भारी पड़ता है, ये हमें गाजा बता रहा है । सवाल यह है कि क्या दुनिया इस सबक को सीखने को तैयार है । जब तक आतंकवाद का खात्मा नहीं होता, तब तक फिलिस्तीन को मान्यता देकर कुछ हासिल होने वाला नहीं है ।
राजेश कुमार पासी