राजेश कुमार पासी
हर समाज को ऐसे ही अपराधी और नेता मिलते हैं जिसके वो लायक होता है। ये बात प्रसिद्ध चिंतक रूसो ने कही थी और उनका ये कथन दलित एवं पिछड़े समाज पर पूरी तरह से लागू होता है । दलित और पिछड़े नेता अपने समाज की लड़ाई का दावा करते हैं लेकिन उनकी सारी लड़ाई अपने और अपने परिवार तक सीमित हो जाती है । यही हालत आरक्षण से नौकरी पाने वाले दलितों की है । वो एक तरफ आरक्षण की नौकरी को समाज का प्रतिनिधित्व कहते हैं तो दूसरी तरफ नौकरी मिलने के बाद समाज की तरफ देखते तक नहीं हैं । सवाल उठता है कि दलितों और पिछड़ों में इतना स्वार्थ क्यों है कि वो समाज के लिए संघर्ष करने के नाम पर सिर्फ अपना ही भला कर पाते हैं ।
वास्तव में जो लोग सदियों तक शोषित और पीड़ित रहे हों, उन्हें अचानक वो सब मिल जाए जिसकी कल्पना कुछ समय पहले नहीं की जा सकती थी तो व्यक्ति सबसे पहले अपनी और अपने परिवार की खुशी के बारे में ही सोचता है । जातिवाद के आधार पर बनी पार्टियों के नेता सबसे बड़े वंशवादी साबित हो रहे हैं क्योंकि उनके लिए देश, समाज और धर्म से पहले उनका परिवार आता है । यही कारण है कि बाबा साहब अम्बेडकर के बाद दलित समाज अच्छे नेताओं के लिए तरसता रहा है । कांशीराम ने दलित राजनीति को नई राह दिखाई लेकिन उनके जाने के बाद बसपा की हालत दिनोंदिन नीचे की ओर जा रही है । आज बसपा कहने को राष्ट्रीय पार्टी है लेकिन वो उत्तर प्रदेश तक सिमट गई है । धीरे-धीरे बसपा उत्तर प्रदेश में भी कमजोर होती जा रही है ।
लोकतंत्र में कोई राजनीतिक पार्टी जल्दी से खत्म नहीं होती लेकिन जब वो सत्ता की लड़ाई से बाहर हो जाए तो उसे खत्म ही माना जाना चाहिए । आज उत्तर प्रदेश में मुकाबला भाजपा और सपा के बीच रह गया है । जहां तक समाजवादी पार्टी की बात है, वो भी यादव-मुस्लिम वोट बैंक पर निर्भर है । उसकी ताकत इस बात पर निर्भर करती है कि वो इस वोट बैंक में और कितना जोड़ पाती है । पिछड़ों की पार्टी आज यादवों की पार्टी बन गई है जो मुस्लिम वोटों के सहारे सत्ता की लड़ाई में बची हुई है । जब तक ये मुस्लिम वोट बसपा के पास थे, वो भी सत्ता की लड़ाई का हिस्सा थी । अगर कांग्रेस सपा से किसी तरह मुस्लिम वोट बैंक छीन लेती है तो इस पार्टी की हालत भी बसपा जैसी हो जाएगी ।
दलित एवं पिछड़े समाज का संघर्ष सामाजिक संघर्ष है लेकिन इस वर्ग में इतनी जातियां है कि उनका इकट्ठे होकर कोई भी संघर्ष कर पाना संभव नहीं है । इनके नेता जातिवाद से लड़ने का कितना भी दावा करें लेकिन सच्चाई यह है कि वो खुद जातिवादी मानसिकता के शिकार होते हैं । समाज के लिए संघर्ष करने का दावा करने वाले ज्यादातर दल किसी जाति विशेष तक सीमित हो जाते हैं । वैसे भी जातिवाद से लड़ाई कोई राजनीतिक संघर्ष नहीं है लेकिन इसे राजनीतिक लड़ाई बना दिया गया है । ऐसा क्यों है कि एक सामाजिक लड़ाई को राजनीतिक लड़ाई में तब्दील कर दिया गया है । वास्तव में सामाजिक संघर्ष त्याग और बलिदान मांगता है जबकि राजनीतिक संघर्ष सत्ता दिलाता है । यही कारण है कि जो दलित सामाजिक संघर्ष का हिस्सा होते हैं, वो थोड़ी सी सफलता के बाद ही राजनीति में आ जाते हैं ।
इस पर विचार करने की जरूरत है कि क्यों आज दलितों और पिछड़ों की हर जाति अपनी राजनीतिक पार्टी बनाना चाहती है । वास्तव में हर जाति अपनी पहचान और अपने अधिकार चाहती है । इस वास्तविकता को राहुल गांधी ने भांप लिया है, इसलिए वो जाति जनगणना करवाना चाहते हैं । पहले मोदी सरकार इसके लिए तैयार नहीं थी लेकिन अब वो भी इसके लिए तैयार हो गई है । अगले साल होने वाली जनगणना में जाति को भी शामिल किया जाएगा । इसके बाद दलित और पिछड़ो की राजनीति करने वाले दलों के लिए ऐसी परेशानियां खड़ी होने वाली हैं जिसका उन्हें अभी तक अंदाजा ही नहीं है । जाति जनगणना के बाद कांग्रेस और भाजपा को कुछ परेशानियां आ सकती हैं लेकिन क्षेत्रीय दलों की राजनीति पर अस्तित्व का संकट आ सकता है । अभी तक जो जातियां किसी दल विशेष के साथ जुड़ी हुई थी, वो अपना उचित प्रतिनिधित्व पाने के लिए मोलभाव पर उतर सकती हैं। कई जाति आधारित सामाजिक संगठन समाजसेवा छोड़कर राजनीति में आ सकते हैं। कई ऐसे दल पैदा हो सकते हैं जिनका प्रभाव सिर्फ दो-तीन जिलों तक सीमित हो ।
देखा जाए तो दलित-पिछड़ों का सारा सामाजिक संघर्ष सोशल मीडिया और किताबों तक सीमित रह गया है । राजनीति तो सिर्फ इस संघर्ष का शोषण कर रही है । वास्तव में जातियों की सामाजिक और आर्थिक स्थितियों में बड़ा अंतर है । बेशक इन जातियों के बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट सवर्णों से संघर्ष की बात करते हो लेकिन इन जातियों का आपसी संघर्ष कहीं ज्यादा बड़ा है । बिहार में राष्ट्रीय जनता दल और यूपी में समाजवादी पार्टी के शासन ने दिखाया है कि पिछड़ों के राज में अन्य पिछड़ी जातियों और दलितों के लिए हालात ज्यादा खराब हो गए थे । इसका कारण यह है कि उन्हें अब सिर्फ सवर्णों के उत्पीड़न का सामना नहीं करना था बल्कि यादवों और मुस्लिमों से भी डर लगने लगा था । क्या कारण है कि भाजपा को यूपी में गैर-जाटव दलितों और अन्य पिछड़ी जातियों का बड़ा समर्थन हासिल हुआ है । जातिवाद से संघर्ष का नारा देने वालों ने जातिवाद को मजबूती देने का ही काम किया है । अब सामाजिक संघर्ष कहीं पीछे छूट गया है, सारी लड़ाई सत्ता पाने की रह गई है । सत्ता की लड़ाई भी कुछ नेताओं तक सीमित हो गई है क्योंकि नए नेतृत्व को उभरने से रोका जाता है । जाति आधारित राजनीतिक दल वंशवादी दलों में परिवर्तित हो गए हैं । अब जातिवाद का विरोध सिर्फ राजनीतिक फायदे के लिए किया जाता है. असलियत तो यह है कि जातिवाद से फायदा उठाया जा रहा है ।
जातिवाद की राजनीति का सबसे बड़ा नुकसान दलितों और पिछड़ों को यह हुआ है कि उन्हें वर्तमान सत्ताधारी दल भाजपा का विरोधी बनाया जा रहा है । जो दल लंबे समय से सत्ता में है और अभी दशकों तक सत्ता में या सत्ता के संघर्ष में रहेगा, उससे दूरी समाज के लिए कितनी घातक है, इसका अंदाजा नहीं लगाया जा सकता । दलित एवं पिछड़े समाज के बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट यह बात समझ नहीं पा रहे हैं कि उनके भारी विरोध के बावजूद उनके लोग भाजपा के साथ चले गए हैं । वास्तविकता यही है कि दलितों और पिछड़ों का आधे से ज्यादा वोट भाजपा के खाते में जाता है । मुस्लिम भाजपा के कट्टर विरोधी हैं लेकिन उनके बुद्धिजीवी और एक्टिविस्ट बड़ी चालाकी से काम कर रहे हैं, एक तरफ ये लोग अपने समाज में भाजपा के खिलाफ जबरदस्त नफरत पैदा कर रहे हैं तो दूसरी तरफ ये लोग मुस्लिम समाज को सरकार की योजनाओं का फायदा दिलाने के लिए पूरी मेहनत करते हैं। जहां तक दलित समाज की बात है, उसे मोदी सरकार की योजनाओं का इतना फायदा नहीं हो रहा है जितनी उसकी जनसंख्या का अनुपात है । कितनी अजीब बात है कि मुस्लिम अपनी जनसंख्या के अनुपात से दोगुना फायदा ले रहे हैं। दूसरी तरफ दलित एवं पिछड़े वर्ग के बुद्धिजीवी चाहते हैं कि दलितों और पिछड़ों को इन योजनाओं का फायदा न मिले क्योंकि इसके कारण यह लोग भाजपा के समर्थक बन रहे हैं ।
देश में न तो जातिवाद खत्म हुआ है और न ही उसके कारण होने वाला उत्पीड़न और शोषण रूका है । सवाल यह है कि समाज के योद्धा जातिवाद से सिर्फ सोशल मीडिया में ही लड़ते रहेंगे या जमीन पर भी कुछ काम करेंगे । मेरा मानना है कि जमीन पर कोई लड़ने वाला नहीं है क्योंकि सबको ताकत चाहिए । बेशक हम संघ को गरियाते रहे लेकिन वो एक ऐसा संगठन है जिसके लोग अपने सारे स्वार्थ छोड़कर देश और समाज के लिए काम करते हैं । जातिवाद का संघर्ष सिर्फ सवर्णों को गाली देना नहीं है बल्कि समाज से जातिवाद को खत्म करना है । समस्या यह है कि अब जातिवाद का फायदा हो रहा है तो फिर भला क्यों इसे खत्म करने के बारे में सोचा जाए । वास्तविकता यह है कि जिन लोगों को समाज के लिए लड़ना है, वही लोग जातिवाद के लाभार्थी हैं । आरक्षण का फायदा लेने वाला शिक्षित वर्ग क्यों चाहेगा कि जातिवाद खत्म हो क्योंकि जातिवाद खत्म होने का मतलब है कि आरक्षण भी खत्म हो जाएगा । जातिवाद की लड़ाई बहुत जरूरी है लेकिन इसके लिए इस समाज के बुद्धिजीवियों और सामाजिक कार्यकर्ताओं को खुले मन से विचार करके आगे बढ़ना होगा । संविधान ने समानता का अधिकार दिया है लेकिन वास्तविक समानता तो सामाजिक संघर्ष से ही आएगी । अगर इस समाज के लोग निस्वार्थ भाव से सामाजिक संघर्ष के लिए खड़े होते हैं तो पूरा देश इनके साथ खड़ा होगा । आज हिन्दू समाज खुद इस बुराई को समाप्त करना चाहता है लेकिन समस्या यह है कि इस समाज के लोग ही आगे नहीं आ रहे हैं।
राजेश कुमार पासी