राजेश कुमार पासी
जब हम कोई बड़ा लक्ष्य लेकर चलते है, तो हमें अपनी सोच भी बड़ी करनी चाहिये । छोटी सोच के साथ बड़े लक्ष्य प्राप्त नहीं किये जा सकते । दलितों को देश की राजनीतिक, प्रशासनिक, आर्थिक और सामाजिक व्यवस्था में समान अधिकार पाने के लिये अभी भी लम्बे संघर्ष की आवश्यकता है. जो व्यक्ति ये सोचते हैं कि दलितों की अवस्था में बदलाव आ चुका है, वो या तो किसी सपने में खोये हुए हैं या सच्चाई से जी चुरा रहे हैं । जिस देश में आज भी दलित समाज के ज्यादातर लोग अपना परंपरागत काम कर रहे हो, वहाँ अन्य दलितों को चैन से बैठने का कोई अधिकार नहीं है । दलित समाज में एक नया वर्ग पैदा हो गया है, जो सारी सुविधाओं का फायदा उठाकर शक्तिशाली बन गया है और उसकी सोच भी सवर्ण समाज से अलग नहीं है ।
अगर आप आज के दलित संगठनों की गतिविधियों का आकलन करेंगे तो पाएंगे कि वो किसी एक लक्ष्य को लेकर चल रहे है और हर संगठन किसी विशेष जाति या वर्ग से जुड़ा होता है । सम्पूर्ण समाज की लड़ाई कोई नहीं लड़ रहा है, सबके अपने-अपने स्वार्थ हैं । आजकल सभी राजनीतिक दल सबसे गरीब आदमी की बात करके अपनी राजनीतिक रोटियाँ सेंकते है । कुछ लोगों ने तो इसे अपना खानदानी कारोबार बना लिया है जैसे भगवान ने उन्हें और उनके परिवारों को दलितों और गरीबों के लिये ही पैदा किया है । ऐसे लोग ही वास्तव में दलितों के दुश्मन है जो जाति के नाम पर राजनीति करके लोकतन्त्र के बावजूद सत्ता को अपने पारिवारिक व्यवसाय की तरह चला रहे हैं ।
बाबा साहेब के संघर्ष का ही नतीजा था कि दलित समाज को आजादी के बाद भारतीय संविधान में अन्य नागरिकों की तरह ही समान अधिकार प्राप्त हुए । हजारों सालो से हर अधिकार से वंचित दलित समाज इन नई परिस्थितियों के अनुसार अपने आपको ढाल ही नहीं पाया और न ही इन अधिकारो का मतलब ही समझ पाया । जो भी उसे इस देश की राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था ने दिया, उसे उसने भीख की तरह हाथ फैलाकर लिया. वो ये समझ ही नहीं पाया कि ये कोई अहसान नहीं था बल्कि उसका अधिकार था । राजनीतिक और प्रशासनिक व्यवस्था में भागीदारी देने के लिये जो आरक्षण का अधिकार उसे प्राप्त हुआ, उसे रोजगार समझकर स्वीकार कर लिया । आरक्षण का फायदा भी शिक्षित होने पर ही उठाया जा सकता था लेकिन शिक्षा का अभाव होने के कारण शुरूआत में दलितों के लिये आरक्षित नौकरियाँ पूरी तरह से भर ही नहीं पायी । धीरे-धीरे जागरूकता आने पर दलित समाज में शिक्षा का प्रसार हुआ और दलित समाज ने आरक्षित नौकरियाँ हासिल करनी शुरू कर दी और आज एक बड़ा वर्ग आरक्षण के कारण ही अच्छी जिन्दगी जी रहा है और यह सब आरक्षण के कारण ही सम्भव हुआ है।
अब बात आती है कि आरक्षण का फायदा हुआ है, तो क्या दलित समाज को आरक्षण का कोई नुकसान भी उठाना पड़ा है । मेरा मानना है कि आरक्षण से दलित समाज को पहले तो काफी फायदा हुआ था लेकिन अब उसके नुकसान भी सामने आ रहे हैं । अब ये अलग बात है कि आरक्षण भी एक नशे की तरह ही हमारे समाज की रगों में बहने लगा है और हमारा विकास रूक गया है । आज सरकारी नौकरियाँ कम हो रही हैं या यूं कहें कि लगभग खत्म सी हो गई है. अब हमें इसका ज्यादा नुकसान उठाना पड़ रहा है । यही कारण है कि आरक्षण के नशे में हमारे कुछ राजनीतिक नेता निजी क्षेत्र में भी आरक्षण की माँग उठा रहे हैं ।
हमारे समाज में शिक्षा का बेहद अभाव था और समाज में शिक्षा के प्रसार के बाद ज्यादातर योग्य शिक्षित दलित सरकारी नौकरियों में चले गये और अपनी निजी जिन्दगी में खो गये । ऐसे लोगों का सारा संघर्ष निजी स्वार्थो का शिकार हो गया । इन लोगों ने विभिन्न संगठन बनाकर केवल आरक्षण को कायम रखने और इससे जुड़ी अन्य मांगों पर अपना ध्यान केन्द्रित रखा । जातिवाद, छुआछूत और वंचितो के हक की लड़ाई निजी स्वार्थो के चलते पीछे छूट गई । यही वो लोग थे, जो समाज की लड़ाई लड़ सकते थे, लेकिन वो लोग समाज की लड़ाई लड़ने की बजाये एक अलग तरह की लड़ाई में उलझ गये ।
बाबा साहेब की लड़ाई पूरे समाज के लिये थी, न कि एक या दो प्रतिशत लोगों के लिये थी । उन्होंने दलितो को आरक्षण का हथियार इसलिये थमाया था कि आरक्षण से ऐसा वर्ग पैदा हो, जो समाज को आगे लेकर जाये । उन्होंने कभी सपने में भी नहीं सोचा होगा कि जो लोग आरक्षण का लाभ लेंगे वो अपना एक अलग ही वर्ग बना लेंगे और दलित समाज वहीं का वहीं खड़ा रहेगा । वास्तव में आरक्षण से प्राप्त नौकरी एक प्रकार से घर के कमाऊ सदस्य की मौत पर प्राप्त होने वाली करूणामूलक आधार पर प्राप्त नौकरी की तरह ही है, जो घर में उस व्यक्ति को मिलती है जो यह शपथ लेता है कि वो इस नौकरी को प्राप्त करने के बाद घर के अन्य सदस्यों का पालन-पोषण करेगा । अगर वो ऐसा नहीं करता है तो यह भी प्रावधान है कि घर के सदस्यों की शिकायत पर उसकी नौकरी जा सकती है ।
अब ये सवाल ऐसे लोगों को खुद से पूछना चाहिये कि उन लोगों ने दलित समाज के अत्यन्त गरीब लोगो के लिये क्या किया ? आज भी दलित समाज के कुछ लोग सिर पर मैला उठाने का काम कर रहे हैं. इसकी जिम्मेदारी क्या केवल सरकारो की है ? समाज में फैली गरीबी,अनपढ़ता,अन्धविश्वास को दूर करने में उनका क्या योगदान रहा है ? दलितों के हालातो के लिये सर्वणों को गाली देने के सिवाए उन्होंने और क्या किया है ? दलित समाज को किसके सहारे छोड़कर वो लोग मौज मस्ती कर रहे हैं ? क्या बाबा साहेब की लड़ाई केवल यही थी कि कुछ लोग सरकारी नौकरी पा जाये ? संविधान से प्राप्त अधिकारों का हमने क्या प्रयोग किया है ? हमारी छोटी और स्वार्थी सोच ने हमारे बड़े लक्ष्य से हमें दूर कर दिया है।
हमारा बड़ा लक्ष्य था, दलित समाज को आगे बढ़ाकर उसे समाज की मुख्यधारा में शामिल करना । इसके विपरीत दलित समाज का शिक्षित वर्ग समाज को अलगाववाद की राह पर ले जा रहा है। आज भी वो सिर्फ अतीत का रोना रोकर आरक्षण को न्यायोचित ठहराने की कोशिश में लगा हुआ है। उसे आरक्षण के वास्तविक लक्ष्य से कोई मतलब नहीं रहा है। आरक्षण समाज में समानता लाने का साधन था लेकिन दलितों के एक तबके ने इसे अपना विशेषाधिकार बना लिया है। यही कारण है कि आरक्षण में क्रीमी लेयर और उपवर्गीकरण की मांग उठ रही है।
राजेश कुमार पासी