शम्भू शरण सत्यार्थी
मनुष्य का जीवन केवल उसके व्यक्तिगत अस्तित्व तक सीमित नहीं है. वह अपने आसपास के समाज, संस्कृति और वातावरण से गहराई से जुड़ा हुआ है। मानव सभ्यता की यात्रा आरम्भ से लेकर आज तक एक लम्बा और संघर्षपूर्ण इतिहास समेटे हुए है। इस यात्रा में गाँव और शहर दोनों की अपनी-अपनी भूमिका रही है। जहाँ गाँव ने मनुष्य को जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं—अन्न, जल, आश्रय और आत्मीय संबंध—से जोड़ा, वहीं शहर ने उसे ज्ञान, तकनीक, व्यापार और आधुनिकता की राह दिखाई। इसलिए यह कहना अतिशयोक्ति नहीं होगी कि गाँव और शहर मानव जीवन के दो पंख हैं; यदि इनमें से एक भी कमजोर हो जाए तो समाज का संतुलन बिगड़ जाता है।
भारतीय संस्कृति और इतिहास पर दृष्टि डालें तो हमें स्पष्ट दिखाई देता है कि हमारी सभ्यता की जड़ें गाँवों में ही बसी हुई हैं। प्राचीन काल में कृषि, पशुपालन और हस्तशिल्प के सहारे गाँव आत्मनिर्भर और सम्पन्न थे। यही आत्मनिर्भर गाँव भारत की असली पहचान थे। यहीं से हमारी संस्कृति, परंपराएँ और मूल्य जन्मे। यही कारण है कि महात्मा गांधी ने कहा था—“भारत की आत्मा उसके गाँवों में बसती है।” गांधीजी का यह कथन केवल भावनात्मक नहीं था, बल्कि ऐतिहासिक सच्चाई पर आधारित था।
यदि हम इतिहास की गहराई में उतरें तो पाएँगे कि प्राचीन भारत में गाँव और शहर दोनों का विकास साथ-साथ हुआ। सिन्धु घाटी सभ्यता के मोहनजोदड़ो और हड़प्पा जैसे नगर व्यापार और योजना का उदाहरण हैं, जबकि उनके चारों ओर बसे गाँव कृषि और पशुपालन के केंद्र थे। यही संतुलन भारत को समृद्ध और आत्मनिर्भर बनाता था। वैदिक काल में भी अधिकांश लोग गाँवों में रहते थे और कृषि ही मुख्य आजीविका थी। गाँवों की संरचना उस समय इतनी सुदृढ़ थी कि वे अपने भीतर छोटे-छोटे गणराज्यों के रूप में कार्य करते थे।
परंतु समय के साथ जब साम्राज्यों का विस्तार हुआ और व्यापार का महत्व बढ़ा तो नगर और महानगर भी फलने-फूलने लगे। मगध, पाटलिपुत्र, तक्षशिला, वाराणसी, उज्जैन जैसे नगर अपने समय में शिक्षा और व्यापार के प्रसिद्ध केंद्र बने। फिर भी गाँवों की भूमिका कभी कम नहीं हुई। नगरों को आवश्यक अनाज, दूध, कपड़ा, लकड़ी, धातु आदि सब कुछ गाँवों से ही मिलता था। इस प्रकार गाँव और शहर का संबंध एक-दूसरे के पूरक का था, न कि प्रतिस्पर्धी का।
मध्यकालीन भारत में जब दिल्ली सल्तनत और मुग़ल साम्राज्य का उदय हुआ, तब भी गाँवों की संरचना बनी रही। किसान अपने खेतों में अनाज उपजाते और शहरी बाज़ारों को आपूर्ति करते। गाँवों का समाज जातियों और पेशों में बँटा हुआ था, लेकिन वह सामूहिकता और आत्मनिर्भरता से सम्पन्न था। गाँवों की यह सामूहिकता ही उनकी सबसे बड़ी ताक़त थी।
औपनिवेशिक काल में अंग्रेज़ों ने भारत के गाँवों और शहरों की इस संरचना को गहरा आघात पहुँचाया। उन्होंने गाँवों से अनाज और कच्चा माल निकाला और शहरों में अपने कारख़ानों के लिए मजदूर तैयार किए। परिणामस्वरूप गाँव धीरे-धीरे निर्धन होते गए और शहर उपनिवेशवादी शोषण के केंद्र बन गए। यही वह दौर था जब गाँव और शहर के बीच का संतुलन टूटने लगा। किसान कर्ज़ में डूबने लगे, गाँवों की आत्मनिर्भरता ख़त्म होने लगी और शहरों में अमीरी-गरीबी का अंतर गहराने लगा। यही कारण था कि स्वतंत्रता संग्राम के दौरान गांधीजी ने बार-बार गाँवों की ओर लौटने की बात की।
गांधीजी के अनुसार भारत का पुनर्निर्माण तभी संभव है जब उसके गाँव आत्मनिर्भर और मजबूत हों। उनका सपना था कि हर गाँव अपने भीतर छोटे गणराज्य की तरह कार्य करे, जहाँ शिक्षा, रोजगार, स्वास्थ्य और आत्मीयता सब कुछ स्थानीय स्तर पर उपलब्ध हो। उन्होंने चरखा और खादी को गाँव की आत्मनिर्भरता का प्रतीक बनाया। उनका मानना था कि शहरों की चकाचौंध और मशीनों का लालच मनुष्य को पतन की ओर ले जाएगा, जबकि गाँव की सादगी और श्रमशीलता उसे सच्चा सुख और शांति प्रदान करेगी।
लेकिन स्वतंत्रता के बाद भारत ने जिस विकास की राह पकड़ी, उसमें शहरों को प्राथमिकता मिली। उद्योग, कारख़ाने, आधुनिक शिक्षा संस्थान और सरकारी दफ़्तर अधिकतर शहरों में स्थापित किए गए। परिणामस्वरूप गाँव पीछे छूटते गए। गाँव का युवा बेहतर रोजगार और शिक्षा की तलाश में शहर की ओर भागने लगा। इस पलायन ने गाँव को खाली कर दिया और शहरों को भीड़ और प्रदूषण से भर दिया।आज की स्थिति यह है कि गाँव और शहर दोनों ही संकट से जूझ रहे हैं। गाँव बेरोज़गारी, किसानों की बदहाली, शिक्षा और स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी से परेशान हैं। वहीं शहर प्रदूषण, अपराध, भ्रष्टाचार, ट्रैफिक और तनाव जैसी समस्याओं से घिर गए हैं। गाँव अपनी आत्मनिर्भरता खो चुके हैं और शहर अपनी मानवीय संवेदनाएँ।
यह विरोधाभास हमारे समाज के लिए खतरनाक है। इतिहास हमें यह सिखाता है कि गाँव और शहर परस्पर विरोधी नहीं हैं बल्कि पूरक हैं। गाँव शहरों को अन्न, कच्चा माल और श्रमशक्ति प्रदान करते हैं, जबकि शहर गाँवों को आधुनिक तकनीक, बाज़ार और शिक्षा देते हैं। यदि दोनों का संतुलन बिगड़ता है तो समाज असंतुलित हो जाता है। यही कारण है कि आज पुनः इस प्रश्न पर विचार करना आवश्यक है कि गाँव और शहर का रिश्ता कैसा हो और हम उन्हें किस दिशा में ले जाएँ।
शम्भू शरण सत्यार्थी