विधि-कानून

बीआर गवई देश को क्या संदेश देकर गए हैं

राजेश कुमार पासी

बीआर गवई  23 नवंबर को सीजेआई पद से सेवानिवृत्त हो चुके हैं और जाते-जाते उन्होंने ऐसे कई संदेश दिये जिन्हें समझने की जरूरत है । अपने कार्यकाल के दौरान उनका केन्द्र  सरकार से कई मुद्दों पर टकराव स्पष्ट रूप से दिखा.  इसके बावजूद दोनों के रिश्तों में कड़वाहट दिखाई नहीं दी । जब उनके ऊपर जूता फेंक कर मारा गया तो इस पर देश में काफी बवाल हुआ । दलित संगठनों और उनसे जुड़े लोगों ने इसे दलित सीजेआई का अपमान करना बताया । वास्तव में जूता फेंकना उनका निजी अपमान नहीं था बल्कि वो न्यायपालिका के प्रति गुस्सा था । उनके फैसले पर सवाल नहीं उठाया जा सकता लेकिन उन्होंने फैसले के दौरान भगवान विष्णु को लेकर जो टिप्पणी की थी, वो बिल्कुल गैर-जरूरी थी । शायद यही सोचकर उन्होंने आरोपी के खिलाफ कार्यवाही करने से मना कर दिया था लेकिन सरकार ने कार्यवाही की । आरोपी के प्रति उनकी दरियादिली यह बताती है कि वो मामले को आगे नहीं बढ़ाना चाहते थे । वो आरोपी के आवेश में आकर उठाये गये कदम के लिए उसे सजा देना उचित नहीं समझते थे । वैसे उस घटना से यह भी पता चलता है कि जजों को तथ्यों और तर्कों के आधार पर फैसला देना चाहिए और निजी टिप्पणियों से बचना चाहिए ।

इसके अलावा उनका यह बयान भी महत्वपूर्ण है कि सरकार के खिलाफ फैसला देना जरूरी नहीं है । जज को यह नहीं देखना चाहिए कि सामने कौन है, उसे संविधान और कानून के अनुसार ही फैसला देना चाहिए । सरकार के खिलाफ फैसला देना न्यायपालिका की स्वतंत्रता की निशानी नहीं है । वास्तव में हमारे देश में स्वतंत्रता और निष्पक्षता का मतलब ही यही रह गया है कि आप सरकार का विरोध करते रहे ।  सरकार के पक्ष में बोलना या लिखना पक्षपाती माना जाता है । उनकी बात सिर्फ एक जज पर लागू नहीं होती है बल्कि यह समाज के हर व्यक्ति पर लागू होती है । मीडिया हो या सामाजिक कार्यकर्ता, उनके लिए यही सही है कि वो देश और समाज के हित में काम करें । वो सच के साथ खड़े रहे. सिर्फ विरोध के लिए विरोध करना सरासर बेईमानी है । 

                मोदी सरकार के सत्ता में आने के बाद देश में यह चलन हो गया है कि जो सरकार के पक्ष की बात करे, वो गोदी मीडिया है या अंधभक्त है । वही मीडिया सही है जो सरकार की हर बात का विरोध करे, बेशक इस चक्कर में देश, संविधान और संवैधानिक संस्थाओं के खिलाफ क्यों न खड़ा होना पड़े । वास्तव में आजादी के 78 साल बाद भी हमारी मानसिक गुलामी खत्म नहीं हुई है । जैसे अंग्रेजों का विरोध करना ही देशप्रेम और समाजसेवा माना जाता था, वैसे ही आज भी सरकार का विरोध करने वाला खुद को लोकतंत्र और संविधान का रक्षक मानता है । अगर सरकार संविधान और लोकतंत्र को बचाने की लड़ाई भी लड़ रही हो तो ऐसे लोग उनके खिलाफ मोर्चा खोल देते हैं । गवई का इशारा इस ओर ही है कि सरकार के पक्ष में फैसला देना पक्षपात करना या सरकार से डरना नहीं है । जज को सिर्फ तर्कों और तथ्यों के आधार पर फैसला देना चाहिए ।

संसद और विधानसभा द्वारा पास बिलों को राष्ट्रपति या राज्यपाल द्वारा लंबित रखने को लेकर सुप्रीम कोर्ट के दो जजों की पीठ ने जो फैसला सुनाया था, उसे उनकी संवैधानिक पीठ ने पलट दिया । देखा जाए तो उन्होंने जाते-जाते संविधान की सर्वोच्चता को प्राथमिकता दी । दो जजों की पीठ ने तमिलनाडु सरकार के बिलों को रोकने के मामले को लेकर हुई सुनवाई के बाद राज्यपाल और राष्ट्रपति द्वारा अनुमोदन करने की एक निश्चित अवधि तय कर दी थी जबकि संविधान में ऐसा नहीं है । उन्होंने कहा कि सुप्रीम कोर्ट संविधान नहीं लिख सकता, इसलिए पुरानी व्यवस्था लागू रहेगी । सरकार ने इस मुद्दे पर राष्ट्रपति के माध्यम से सुप्रीम कोर्ट से राय मांगी थी, जिस पर विचार करते हुए संवैधानिक पीठ ने यह फैसला सुनाया है । देखा जाए तो ऐसे हालातों से जजों को बचना चाहिए । गवई कई बार कह चुके हैं कि संसद और सुप्रीम कोर्ट नहीं बल्कि संविधान सर्वोच्च है, जबकि सुप्रीम कोर्ट के कई फैसले ऐसे रहे हैं जो कि संवैधानिक व्यवस्था के विपरीत थे । सुप्रीम कोर्ट वहां अपनी राय बता सकता है, जहां संविधान स्पष्ट नहीं है, क्योंकि उसे व्याख्या देने का अधिकार है । जब संविधान में स्पष्टता से कोई प्रावधान है तो उसके खिलाफ सुप्रीम कोर्ट को नहीं जाना चाहिए । इससे दोनों संस्थाओं में टकराव होता है। गवई ने कहा कि न्यायिक आतंक नहीं होना चाहिए, उनका इशारा इसी ओर है । सुप्रीम कोर्ट को उनकी इस बात को समझने की जरूरत है क्योंकि इससे दोनों संस्थाएं मिलकर काम करेंगी और टकराव नहीं होगा । 

                 अपने विदाई समारोह में गवई ने अपने 2024 के उस फैसले का बचाव किया जिसमें उन्होंने अनुसूचित जातियों पर क्रीमीलेयर का नियम लागू करने की वकालत की थी । उन्होंने कहा कि उनके इस फैसले की वजह से उनके ही समुदाय में उनकी जबरदस्त आलोचना हुई । उनका कहना है कि वो अब आगे न्यायिक कार्य नहीं करेंगे, इसलिए इस फैसले पर चर्चा करना चाहते हैं । उनका कहना है कि एक जज से अपने फैसले का बचाव करने की उम्मीद नहीं की जाती लेकिन वो अपनी बात रखना चाहते हैं  । वास्तव में वो अकेले नहीं है. हर वो व्यक्ति जो अपने समाज में सुधार करना चाहता है, उसे अपने ही समाज की आलोचना झेलनी पड़ती है । वास्तव में दलित समाज का मुखर वर्ग ही आरक्षण का लाभ ले रहा है. वो क्रीमीलेयर को किसी भी प्रकार से अनुसूचित जाति में लागू नहीं होने देना चाहता । उसका कहना है कि आरक्षण प्रतिनिधित्व का अधिकार है, ये गरीबी दूर करने का अधिकार नहीं है ।

सवाल यह है कि जो वर्ग आगे बढ़ गया है, वो बिना आरक्षण के प्रतिनिधित्व क्यों नहीं हासिल करता । राजनीति में आरक्षण प्रतिनिधित्व के लिए हो सकता है लेकिन शिक्षा और नौकरियों में आरक्षण को प्रतिनिधित्व कैसे माना जा सकता है । मैंने अपने जीवन में सरकारी नौकरी वालों को समाज के लिए कुछ भी करते हुए नहीं देखा है । एक सरकारी कर्मचारी अपने परिवार का भरण-पोषण करता है, वो समाजसेवक नहीं होता । गवई ने अपने भाषण में कहा कि मैंने एक उदाहरण दिया था कि क्या दिल्ली के सबसे अच्छे कॉलेज, सेंट स्टीफंस में पढ़ने वाले मुख्य सचिव के बेटे को ग्राम पंचायत या जिला परिषद स्कूल में पढ़ने वाले खेतिहर मजदूर के बेटे के साथ मुकाबला करने के लिए मजबूर किया जा सकता है । आर्टिकल 14 समानता का अधिकार देता है लेकिन समानता का मतलब यह नहीं है कि सबके साथ समान व्यवहार होना चाहिए । उन्होंने कहा कि डॉ अंबेडकर ने कहा था कि अगर हम सभी के साथ एक जैसा व्यवहार करेंगे, तो असमानता बढ़ेगी । इसलिए जो पीछे हैं, उनके साथ विशेष बर्ताव करने की जरूरत है । देखा जाए तो बाबा साहब  ने आरक्षण इसी आधार पर मांगा था कि हम लोग इतने पीछे रह गए हैं कि अगर हमारे साथ समानता का व्यवहार हुआ तो वो भी एक असमानता होगी । इसलिए दलितों और आदिवासियों को आरक्षण का अधिकार मिला । अब अपना ही समाज असमानता का पक्षधर हो गया है, इसलिए उनका विरोध हुआ है । 

               इसी विचार के आधार पर एससी-एसटी समाज में उपवर्गीकरण लागू करने की सिफारिश की गई थी । इसका भी दलित समाज में जबरदस्त विरोध हुआ था, लेकिन कई राज्यों में यह व्यवस्था लागू कर दी गई है । वास्तव में इसके लिए अनुसूचित जातियों ने ही अपनी मांग रखी है । इसके विरोध की वजह यह है कि दलित संगठनों और राजनीतिक दलों में ताकतवर जातियों का प्रभुत्व है । सामाजिक और आर्थिक रूप से सक्षम जातियों का राजनीतिक और सामाजिक संगठनों पर कब्जा है और यही वो जातियां हैं, जो दलित समाज की लड़ाई लड़ रही हैं।  समानता का सिद्धांत कहता है कि जो जातियां आगे बढ़ गई हैं, उन्हें ही सोचना होगा कि वो ही अगर सारा फायदा लेती रहेंगी तो दूसरी जातियों को कैसे मौका मिलेगा । जैसे क्रीमीलेयर से सम्पन्न दलितों को आरक्षण से बाहर आना है, वैसे ही उपवर्गीकरण से सम्पन्न जातियों को आरक्षण से बाहर आना होगा । सवर्ण समाज ने जैसे शोषण किया है, वैसे ही दूसरी जातियों को नहीं करना चाहिए ।

 उन्होंने कहा कि मैं खुद से एक सवाल पूछता हूं कि क्या आदिवासी इलाके में रहने वाले एससी वर्ग के किसी बच्चे को जिसके पास हायर एजुकेशन के लिए कोई साधन नहीं है, मेरे बेटे से मुकाबला करने के लिए मजबूर किया जा सकता है, जो अपने पिता के पद और पिता की उपलब्धियों की वजह से सबसे अच्छी स्कूली शिक्षा पा रहा है । क्या यह सही मायने में बराबरी होगी या यह गैर-बराबरी को बढ़ावा देगी । उनका कहना है कि हर समय मुझे यह बात परेशान करती है कि मुझे सबसे अच्छी शिक्षा मिलती है तो मुझे एससी समुदाय का फायदा क्यों मिलना चाहिए । उन्होंने कहा कि यह बात राजनेताओं को क्यों समझ नहीं आती है। उन्होंने जो सवाल उठाया है, वो बहुत महत्वपूर्ण है, इसे सरकार और समाज को समझने की जरूरत है । दलित समाज से होते हुए भी न्यायपालिका में सर्वोच्च पद पर पहुंचने वाले गवई की बातों को अनदेखा करना सही नहीं है । उन्होंने जो भी कहा है, वो देशहित और समाज हित में ही कहा है क्योंकि वो कोई नया पद नहीं लेना चाहते । 

राजेश कुमार पासी