जब डॉनल्ड ट्रंप की नीतियां भारत के ख़िलाफ़ हैं तो फिर मोदी की नीतियां अमेरिकी हितों पर चोट क्यों न दें?

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कमलेश पांडेय

जब भारत के गांवों में किसी से विवाद बढ़ने पर और घात-प्रतिघात की परिस्थितियों के पैदा होने पर पारस्परिक हुक्का-पानी या उठक-बैठक, खान-पान बन्द करने के रिवाज सदियों से चलते आए हैं तो फिर वैश्विक दुनियादारी में हम लोग इसे लागू क्यों नहीं कर सकते ताकि हमारे मुकाबिल खड़े होने वाले देशों को ठोस नसीहत मिल सके। वहीं, अक्सर यह भी कहा जाता है कि जो ज्यादा तेज बनता है, वह तीन जगहों पर बदबू फैलाता है जबकि चतुर व्यक्ति की कोशिश रहती है कि वह तीनों जगहों पर अपनी गमक व महक छोड़े। अव्वल दर्जे पर रूस, अमेरिका और चीन के साथ भारतीय सम्बन्धों पर फ्रांस, इजरायल, जापान जैसे दूसरे दर्जे के महत्वपूर्ण देशों के साथ भारतीय सम्बन्धों पर, ब्राजील, दक्षिण अफ्रीका, ऑस्ट्रेलिया जैसे तीसरे महत्वपूर्ण देशों के साथ भारत के सम्बन्धों पर भी यही बात लागू होती है।

यूँ तो पड़ोसी देशों से जुड़ी हमारी नीतियों में, मुस्लिम बहुल अरब देशों से जुड़ी हमारी नीतियों में, आशियान देशों से जुड़ी हमारी नीतियों में, जी-सेवन, ब्रिक्स, जी-20, एससीओ, नाटो, मध्य एशिया, यूरोप, दक्षिण-पूर्व एशिया से जुड़ी लुक ईस्ट की नीतियों या फिर संयुक्त राष्ट्र संघ से जुड़े भारतीय नीतियों के दृष्टिगत हमारी गुटनिरपेक्ष सोच सदैव सराहनीय रही है लेकिन जब हम अपने वैश्विक संरक्षक रूस के साथ, दुःख के दोस्त/मददगार इजरायल के साथ खुलेआम खड़े होने से हिचकते हैं तो कहीं न कहीं अशांति को प्रश्रय देते हैं और भारत के साथ मित्रता का छल रचने वाला अमेरिका यही तो चाहता है।

अमेरिका, यूरोप को साथ लेकर जब भी रूस को दबाना चाहे तो हमें खुलेआम रूस के साथ खड़ा होना चाहिए ताकि अमेरिका संभल जाए। इसी प्रकार जब इजरायल को अरब देश दबाना चाहें तो हमें इजरायल को संरक्षण देना चाहिए ताकि अरब देश सुधर जाएं। इसी प्रकार जब चीन भारत के पड़ोसियों में दिलचस्पी ले, आशियान देशों, अरब देशों, यूरोपीय देशों, अफ्रीकी देशों में अपनी पैठ बढ़ाए तो जापान, रूस, दक्षिण अफ्रीका और ब्राजील को साधकर संतुलित प्रतिरक्षात्मक नीति अपनाएं क्योंकि अमेरिका और चीन हमारे साथ शत्रुतापूर्ण चालें हमेशा चलते रहेंगे। पाकिस्तान परस्त तुर्की, अमेरिका परस्त सऊदी अरब आदि कभी हमारे स्वाभाविक मित्र नहीं हो सकते। इसलिए वैश्विक कूटनीति में रूस, इजराइल, जापान, दक्षिण अफ्रीका, ब्राजील, इंग्लैंड, फ्रांस, जर्मनी आदि देशों के कूटनीतिक व प्रतिरक्षात्मक महत्व हैं जिसके दृष्टिगत ही हमें कोई भावी कदम बढ़ाने चाहिए।

इसके लिए हमें पाकिस्तान और बंगलादेश जैसे इस्लामिक दुश्मनों के दिनदहाड़े सफाए की योजना हमें बनानी पड़ेगी। अफगानिस्तान, नेपाल, भूटान, म्यांमार, श्रीलंका, मालदीव, कम्बोडिया, थाईलैंड आदि पड़ोसी देशों को दुनियावी लाभ देकर पटाये रखना चाहिए और इन्हें भारतीय परिसंघ में शामिल करने योग्य कूटनीति अपनानी चाहिए। जिस तरह से रूस (यूएसएसआर) विरोधी नाटो की तर्ज पर इजरायल विरोधी इस्लामिक नाटो बना है, उसके दृष्टिगत हिन्दू और बौद्ध बहुल देशों को एकजुट करके भारतीय परिसंघ बनाना होगा ताकि जब अमेरिका या चीनी इशारे पर भारत के खिलाफ इस्लामिक देश एकजुटता दिखाएं तो दक्षिण-पूर्व एशियाई बौद्ध देश भारत की मदद करें। इसी नजरिए से चीन से भी चतुराई पूर्वक सम्बन्ध बनाए रखना भारत के हित में होगा। वहीं, इजरायल को सहयोग देकर इनके मन में भय बनाए रखना होगा कि भारत अकेला नहीं है। हमारी विशाल आबादी और रूसी-इजरायल तकनीकी सहयोग दुनिया के किसी भी हिंसक गठबंधन पर भारी पड़ेंगे।

कहना न होगा कि एक ओर जहां चीन-भारत से निपटने के लिए अमेरिका ईसाई, यहूदी और इस्लाम को एकजुटता प्रदान करने वाले अब्राहम परिवार को बढ़ावा दे रहा है, वहीं, पाकिस्तान के सहयोग से इस्लामिक देशों को एकजुट करके भारत को भयभीत रखना चाहता है। चूंकि पाकिस्तान पर चीन का हाथ है, अमेरिका विरोधी ईरान से चीनी सांठगांठ है, इसलिए भारत को अतिशय सावधान रहने की जरूरत है। जिस तरह से अमेरिका ने रूसी तेल खरीददारी के दृष्टिगत भारत पर अप्रत्याशित तरीके से टैरिफ बढ़ाकर मित्रघाती होने का परिचय दिया, उसी तरह से अब ईरान के भारतीय हित वाले चाबहार बंदरगाह को प्रतिबंधों से दी गई छूट वापस ले ली है। भले ही ऐसा करके ट्रंप प्रशासन ईरान पर दबाव बनाना चाहता है लेकिन इससे भारत को भी बड़ा झटका लगेगा। देखा जाए तो 50 प्रतिशत टैरिफ थोपने के बाद अमेरिका का यह एक और भारत विरोधी कदम है जिससे चीन को परोक्ष मदद मिलेगी और भारतीय हितों को चोट पहुंचेगी।

देखा जाए तो अमेरिकी राष्ट्रपति डॉनल्ड ट्रंप ने दूसरी बार सत्ता संभालने के साथ ही चाबहार को मिली छूट खत्म करने के एग्जिक्यूटिव ऑर्डर पर साइन कर दिए थे पर अब आगामी 29 सितंबर से इसे लागू करने का आदेश जारी हुआ है। इसके बाद अगर कोई कंपनी या संस्था चाबहार के संचालन में शामिल होती है तो उस पर भी अमेरिकी प्रतिबंध लगाए जा सकते हैं। यह भारतीयों के दूरगामी हितों के खिलाफ दूसरी महत्वपूर्ण कार्रवाई है। उसमें भी खास बात यह कि भारत इस बंदरगाह (पोर्ट) पर अरबों रुपये का निवेश कर चुका है और यहां एक टर्मिनल भी बना रहा है लेकिन अब अमेरिकी प्रतिबंधों की वजह से उसके लिए यहां काम करना मुश्किल हो सकता है। इससे भारत का निवेश भी डूब सकता है।

सच कहूं तो ईरान के चाबहार पोर्ट का मामला भी बहुत कुछ रूसी तेल जैसा है। जब यूक्रेन युद्ध रोकने के लिए रूस पर अमेरिका दबाव नहीं बना पाया तो उसने तेल के व्यापार पर भारत और चीन पर दोष डालना शुरू कर दिया। यही कहानी ईरान के साथ है। पिछले दिनों इस्राइल-ईरान टकराव और उसमें अमेरिकी दखल के बावजूद तेहरान झुकने को तैयार नहीं हुआ था तो अब मैक्सिमम प्रेशर की बात कही जा रही है। चाबहार पर बैन उसी अमेरिकी रणनीति का हिस्सा है। यह भी रूस जैसा मामला ही है और ईरान के साथ रूस और भारत दोनों के सम्बन्ध बेहतर हैं। इसलिए अमेरिका ने इसे अपना दूसरा निशाना बनाया है। इससे जाहिर है कि अमेरिका निज लक्ष्यप्राप्ति के लिए हरसंभव दांव चलेगा और भारत अमेरिकी भूलभुलैया में आज नहीं तो कल अवश्य फंसेगा!

कहना न होगा कि भारत के लिए चाबहार पोर्ट का रणनीतिक और कारोबारी महत्व है। भारत के लिए चाबहार बंदरगाह की अहमियत व्यापार से अधिक रणनीतिक यानी प्रतिरक्षात्मक है। यह पोर्ट उसे पाकिस्तान को बाईपास कर सीधे अफगानिस्तान, मध्य एशिया तक पहुंच देता है। वहीं, चाबहार पोर्ट उस इंटरनैशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर का अहम हिस्सा है जिसकी शुरुआत भारत, रूस और ईरान ने मिलकर की थी। यदि इसे सड़क और रेल नेटवर्क से जोड़ दिया जाए, तो यह कॉरिडोर सीधे यूरोप तक पहुंचने का आसान, सस्ता और छोटा रास्ता देता है।

वहीं, परिवर्तित अमेरिकी नीति में चीन का फायदा दृष्टिगोचर हो रहा है क्योंकि चाबहार पोर्ट पर बैन से भारत या ईरान नहीं, बल्कि खुद अमेरिका पर भी असर डाल सकता है। क्योंकि इस पोर्ट को पाकिस्तान के ग्वादर बंदरगाह का जवाब माना जा रहा है जो चीन के महत्वाकांक्षी बीआरआई प्रॉजेक्ट का हिस्सा है। ऐसे में यदि इस क्षेत्र से भारत हटा, तो सीधा फायदा चीन को होगा। इससे वॉशिंगटन की वजह से पेइचिंग को रणनीतिक व्यापारिक बढ़त मिल जाएगी। इसलिए यह ट्रंप एडमिनिस्ट्रेशन की सबसे बड़ी खामी कही जाएगी कि विरोधियों पर पकड़ बनाने की उसकी हर कोशिश उसके ही दोस्तों को नुकसान पहुंचाती है। लगता है कि वह अब ठान चुका है कि अमेरिका की कीमत पर किसी को आगे नहीं बढ़ने देगा अंजाम चाहे जो भी हो। भारत को इससे ज्यादा सावधान रहने की जरूरत है।

कमलेश पांडेय

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