विश्ववार्ता

‘जब पड़ा वक़्त बुतों पे तो खुदा याद आया’

तनवीर जाफ़री

पश्चिमी देशों द्वारा अमेरिका के नेतृत्व में लीबिया के तानाशाह कर्नल मोअ मार गद्दाफी को सत्ता से बेदखल किए जाने की स्क्रिप्ट लिखी जा चुकी है। नाटो भी लीबिया में लागू उड़ान निषिध क्षेत्र की क मान संभालने को तैयार हो गया है। गठबंधन सेनाओं द्वारा लीबिया की वायुसेना तथा थलसेना की कमर तोड़ी जा चुकी है। गद्दाफी के एक पुत्र के मारे जाने का समाचार है। कल तक अपनी सैन्य शक्ति तथा समर्थकों के बल पर मज़बूत स्थिति में दिखाई देने वाले गद्दाफी अब किसी भी क्षण सत्ता से बेदखल किए जा सकते हैं। उनके जीवन तथा भविष्य को लेकर भी तरह-तरह की अटकलें लगाई जा रही हैं। यदि गद्दाफी के ही कथन को माना जाए तो वे स्वयं लीबिया में ही शहीद होने को प्राथमिकता देंगे। अब देखना यह होगा कि सत्ता के अंतिम क्षणों में गद्दाफी का अंत किस प्रकार होता है? क्या वे लीबिया छोड़ कर अन्यत्र पनाह लेने के इच्छुक होंगे? यदि हाँ तो क्या नाटो सेनाएं तथा विद्रोही उन्हें वर्तमान स्थिति में देश छोड़ कर जाने कीअनुमति देंगे? या फिर वे भी अपने पुत्र की तरह विदेशी सेनाओं का निशाना बन जाएंगे? या उनका हश्र सद्दाम हुसैन जैसा होगा? या फिर वे आत्महत्या करने जैसा अंतिम रास्ता अख्तियार करेंगे?

 

बहरहाल, कल तक जिस कर्नल गद्दाफी की लीबिया की सत्ता से बिदाई आसान प्रतीत नहीं हो रही थी आज वही तानाशाह न केवल अपनी सत्ता के लिए बल्कि अपनी व अपने परिवार की जान व माल की सुरक्षा के विषय में भी अनिश्चित नज़र आ रहा है। इन परिस्थितियों में गद्दाफी ने भी एक बार फिर उसी ‘धर्मास्त्र’ का प्रयोग किया है जिसका प्रयोग करते कभी ओसामा बिन लाडेन, कभी मुल्ला उमर तथा कभी एमन-अल जवाहिरी जैसे आतंकी सरगना नज़र आए तो कभी इराकी तानाशाह सद्दाम हुसैन। गोया ‘जब पड़ा वक़्त बुतों पे तो ‘खुदा याद आया’। यानी गद्दाफी ने भी अपना व अपनी सत्ता का अंतिम समय आता देखकर वही घिसी पिटी बात दोहराई है कि लीबिया पर हो रहा हमला ‘ईसाईयत का इस्लाम’ पर हमला है तथा दुनिया के मुसलमानों एक हो जाओ, यह स यता के संघर्ष का परिणाम है वग़ैरह-वग़ैरह। परंतु जिस प्रकार दुनिया के इस्लामी देश लाडेन व सद्दाम के इस धर्मास्त्र चलाए जाने के झांसे में नहीं आए उसी प्रकार मुस्लिम देश गद्दाफी के इस ब्रहास्त्ररूपी अंतिम धर्मास्त्र को भी महज़ एक छलावा ही समझ रहे हैं। प्रमुख अरब देश संयुक्त अरब अमीरात तो गद्दाफी को सत्ता से हटाने की मुहिम में गठबंधन सेनाओं के साथ शामिल भी हो गया है।

 

ऐसे में सवाल यह उठता है कि इरा’क हो या कुवैत या अ’फग़ानिस्तान अथवा वर्तमान लीबियाई प्रकरण आखिर इन सभी मुस्लिम राष्ट्रों में अमेरिकी अथवा पश्चिमी देशों की सेनाओं के हस्तक्षेप की आवश्यकता आखिर संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद् को क्यों महसूस होती है। मुस्लिम जगत के नेताओं द्वारा अलक़ायदा प्रमुख लाडेन की ही तरह समय समय पर स यता के संघर्ष की बात करना या अमेरिका को मुस्लिम देशों का दुश्मन बताना आखिर कितना उचित है? और यदि वास्तव में अमेरिका इस्लामी देशों अथवा मुस्लिम जगत का विरोधी है तो दुनिया के इस्लामी देश इस बात को समझते हुए अमेरिका के विरूद्ध एकजुट क्यों नहीं होते? और सबसे बड़ी बात यह कि जब सद्दाम या गद्दाफी जैसे शासकों के तथा लाडेन, मुल्ला उमर व जवाहिरी जैसे आतंकी सरगनाओं के सिर पर मौत के बादल मंडराते दिखाई देने लगते हैं उसी समय यह लोग इत्तेहाद-ए-बैनुल-मुसलमीन’ (दुनिया के मुसलमानों एक हो जाओ) की बात क्यों करने लग जाते हैं। युद्ध छिडऩे या किसी संघर्षपूर्ण स्थिति के उत्पन्न होने से पूर्व आखिर इन तानाशाहों को इस्लाम व दुनिया के मुसलमानों की याद क्यों नहीं आती? इसमें कोई दो राय नहीं कि अमेरिका की पहचान दुनिया में एक साम्राज्यवादी देश के रूप में स्थापित हो चुकी है। अमेरिका दुनिया में अपना वर्चस्व ‘कायम रखने की लड़ाई लड़ रहा है।

दुनिया में चौधराहट बनाए रखना अमेरिकी विदेश नीति का एक प्रमुख हिस्सा है। विश्व का सबसे बड़ा तेल उपभोक्ता होने के नाते निश्चित रूप से उसे तेल की भी सबसे अधिक ज़रूरत है। यही वजह है कि तेल उत्पादन करने वाले देशों में अमेरिकी द’खल अंदाज़ी को प्राय: इसी नज़रिए से देखा भी जाता है। दुनिया समझती है कि यह लड़ाई किसी तानाशाह को सत्ता से बेदखल करने या विद्रोही जनता का समर्थन करने की नहीं बल्कि अमुक देश की तेल संपदा पर अमेेरिकी नियंत्रण करने की लड़ाई है। परंतु दुनिया के लाख शोर-शराबा करने या वावैला करने के बावजूद अमेरिकी नीतियों में न तो कोई परिवर्तन आता है न ही अमेरिका की ओर से इन आरोपों के जवाब में कोई ठोस खंडन किया जाता है। गोया अमेरिका ऐसे आरोपों की अनसुनी कर अपनी नीतियों पर आगे बढ़ते रहने में ही अपनी भलाई समझता है। मज़े की बात तो यह है कि अमेरिकी नीतियों को सरअंजाम देने में अधिकांश मुस्लिम राष्ट्र भी अमेरिका के साथ खड़े नज़र आते हैं। ऐसे में उन चंद मुस्लिम नेताओं की इस्लाम पर ‘अमेरिकी ‘खतरे’जैसी ललकार स्वयं ही निरर्थक साबित हो जाती है।

 

ताज़ा उदाहरण लीबिया का ही देखा जाए तो यहाँ भी उड़ान निषिध क्षेत्र बनाने की हिमायत अरब लीग के सदस्य देशों द्वारा सर्वस मति से की गई। विदेशी सेनाओं द्वारा लीबिया पर बमबारी किए जाने का मार्ग अरब लीग के देशों ने ही प्रशस्त किया। और अब संयुक्त अरब अमीरात जैसा अरब देश गठबंधन सेनाओं के साथ मिलकर लीबिया पर बम बरसा रहा है। ऐसे में कैसा स यता का संघर्ष तो कैसी इस्लाम व ईसाईयत की लड़ाई? और इन सब के अलावा सबसे बड़ी बात यह है कि गद्दाफी व सद्दाम हुसैन जैसे तानाशाह उस समय इस्लामपरस्ती को ‘कतई भूल जाते हैं जब यह लोग सत्ता के नशे में चूर होकर अपने-अपने देशों में मनमानी करने की सभी हदों को पार कर जाते हैं। जब यह तानाशाह अपनी बेगुनाह व निहत्थे अवाम पर ज़ुल्म ढा रहे होते हैं उस वक़्त उन्हें यह नहीं सूझता कि हम जिन पर ज़ुल्म ढा रहे हैं वे भी मुसलमान हैं तथा हमारे यह कारनामे इस्लाम विरोधी हैं। यह क्रूर तानाशाह उस समय तो इस्लामी इतिहास के राक्षस प्रवृति के सबसे बदनाम शासक यज़ीद की नुमाईंदगी करते नज़र आते हैं। परंतु जब इन्हें मौत के रूप में अमेरिका,संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद्, संयुक्त राष्ट्र संघ तथा नाटो जैसे संगठनों के ‘फैसलों का समाना करना होता है तब इन्हें इस्लाम भी याद आता है। मुस्लिम इत्तेहाद भी, जेहाद भी और सभ्‍यता का संघर्ष भी।

 

प्रश्र यह है कि मुस्लिम राष्ट्रों को इन परिस्थितियों से उबरने के लिए आखिर क्या करना चाहिए? सर्वप्रथम तो तमाम मुस्लिम राष्ट्रों में इस समय मची खलबली का ही पूरी पारदर्शिता तथा वास्तविकता के साथ अध्ययन कर अवाम द्वारा विद्रोह के रूप में लिखी जा रही इबारत को पूरी ईमानदारी से पढऩे की कोशिश की जानी चाहिए। अफगानिस्तान, इराक और लीबिया जैसे देश मुल्ला उमर, सद्दाम व गद्दाफी जैसे सिरफिरे शासकों की ‘गलत व विध्वंसकारी नीतियों के चलते बरबाद हुए हैं। इस वास्तविकता को सभी देशों विशेषकर मुस्लिम जगत को समझना चाहिए। गोया किसी देश में विदेशी सेनाओं अथवा पश्चिमी सेनाओं के नाजायज़ हस्तक्षेप का कारण वहाँ की अवाम नहीं बल्कि वहाँ का सिरफिरा शासक ही देखा गया है। नागरिकों पर ज़ुल्म करना और ज़ुल्म करते हुए सत्ता में आजीवन बने रहने की जि़द रखना तथा सत्ता को अपनी विरासत समझते हुए अपनी संतानों को हस्तांतरित किए जाने जैसी इच्छाएं पालना यज़ीदी शासन तंत्र के लक्षण हैं। और यही लक्षण देश,धर्म तथा मानवता सभी को आहत व बदनाम करते हैं। ऐसी ही तानाशाही प्रवृति के शासक पश्चिमी देशों विशेष कर अमेरिका का कोपभाजन उस समय हो जाते हैं जबकि यह अपनी अवाम के साथ-साथ अमेरिका से भी मधुर संबंध बनाए नहीं रख पाते। लिहाज़ा विद्रोही जनता के मूड को भांपकर पश्चिमी देश बाआसानी इराक व लीबिया जैसे देशों में सैन्य हस्तक्षेप कर डालते हैं। और अंत में यही ज़ालिम तानाशाह हाय इस्लाम-हाय मुसलमान और हाय जेहाद कहते नज़र आते हैं।

 

अमेरिकी राष्ट्रपति बराक ओबामा ने संघर्ष की अफवाहों पर पूर्ण विराम लगाने की ‘गरज़ से ही शर्म-अल-शेख में मुस्लिम राष्ट्रों के प्रमुखों को अस्लामअलैकुम कहा था तथा मुस्लिम देशों को साथ लेकर चलने का आह्वान किया था। परंतु तब से लेकर अब तक मुस्लिम राष्ट्रों में सुधारवाद की कोई बयार चलती तो हरगिज़ नहीं दिखाई दी। हाँ विद्रोह, क्रांति तथा बगा़वत के बिगुल कई देशों में बजते ज़रूर दिखाई दे रहे हैं। इनका कारण सिर्फ यही है कि सत्ताधीश मुस्लिम तानाशाह कहीं ज़ालिम है तो कहीं निष्क्रिय। कहीं अकर्मण्यता का प्रतीक हैं तो किसी के राज में भुखमरी, बेरोज़गारी और ‘गरीबी ने अपने पांव पसार लिए हैं। कोई अपने व्यक्तिगत धन या संपत्ति के संग्रह में जुटा है तो किसी को अपनी खाऩदानी विरासत के रूप में अपनी सत्ता को सुरक्षित रखने या हस्तांतरित करने की ‘फिक्र है। कोई शासक जनता की आवाज़ को चुप कराने के लिए ज़ुल्म व अत्याचार के किसी भी उपाय को अपनाने से नहीं कतराता तो कई ऐसे हैं जिन्हें अपने देश के विकास, प्रगति या अर्थव्यवस्था में कोई दिलचस्पी नहीं। ऐसे में जनविद्रोह का उठना भी स्वाभाविक है तथा विदेशी सेनाओं द्वारा उस जनविद्रोह का लाभ उठाना भी स्वाभाविक है।