जब न्याय बिकने लगे और सेवक राजा बनने लगें — खतरे में है लोकतंत्र का संतुलन

अशोक कुमार झा


भारतीय लोकतंत्र का ढांचा तीन मज़बूत स्तंभों—विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका—पर खड़ा है। ये तीनों मिलकर देश को चलाते हैं, संविधान की आत्मा को ज़िंदा रखते हैं और आम नागरिक को न्याय, सुरक्षा व समृद्धि का भरोसा दिलाते हैं लेकिन आज यही स्तंभ एक-दूसरे से टकरा रहे हैं, खींचतान   के हालात पैदा कर रहे हैं और इस महान लोकतंत्र की जड़ों को खोखला कर रहे हैं।
सच कहें तो अब ये स्तंभ सेवक नहीं, शासक बनने की होड़ में हैं।
जनता जिन्हें चुनकर संसद भेजती है, वे कानून बनाते हैं। कार्यपालिका उन कानूनों को ज़मीन पर लागू करती है। न्यायपालिका का काम है—संविधान की रक्षा और जनता को समयबद्ध न्याय। लेकिन आज संसद के हर कदम पर न्यायपालिका अपनी टिप्पणी और व्याख्या थोप रही है। कोई भी नीति लागू हो, अदालतों की दखलअंदाज़ी सामने आ जाती है। यह संविधान का संतुलन नहीं, बल्कि टकराव की शुरुआत है।


लेकिन असली सवाल इससे भी बड़ा है: क्या देश में न्याय खरीदा और बेचा जा रहा है?
हां, और यह कड़वा सच है।
आज भारत में न्याय की पहुंच उसी तक है जिसके पास धन है। गरीब आदमी न तो महंगे वकील कर सकता है, न ही सालों तक केस लड़ सकता है। सैकड़ों निर्दोष लोग जेलों में सड़ रहे हैं, सिर्फ इसलिए कि वे अपनी बेगुनाही साबित नहीं कर पाए। 30, 40, 50 साल बाद जब न्यायालय कहता है कि “आप निर्दोष हैं”, तब तक उनका जीवन, परिवार, सम्मान—सब कुछ बर्बाद हो चुका होता है।


ये कैसा न्याय है, जो ज़िंदगी छीनकर इज़्ज़त लौटाता है?


जिन अदालतों में न्याय मिलना चाहिए, वहीं आज दलाल, बिचौलिए और भ्रष्टाचार का बोलबाला है। कितने ही न्यायालयों में पेशकार से लेकर वकीलों तक का खेल चलता है, और न्यायमूर्ति को इसकी भनक तक नहीं होती। देश की न्यायपालिका सुधार की ज़रूरत पर सोचने की बजाय संसद के बनाए क़ानूनों की “जांच-पड़ताल” में लगी रहती है।


और तो और, अब अदालतें महामहिम राष्ट्रपति और राज्यपालों तक को आदेश देने लगी हैं।


क्या यह संवैधानिक मर्यादा का उल्लंघन नहीं है? क्या न्यायपालिका संविधान और देश से ऊपर हो चुकी है? यह वही देश है जहाँ संविधान साफ़ कहता है कि राष्ट्रपति सर्वोच्च पद है। फिर कौन-सा अधिकार है जो न्यायालय को राष्ट्रपति को आदेश देने की छूट देता है?


आज की स्थिति यह है कि जनता का भरोसा इन तीनों संस्थाओं से उठता जा रहा है। लोग कहने लगे हैं—न संसद पर भरोसा है, न अफसरशाही पर, और अब न ही न्यायपालिका पर। यह लोकतंत्र के लिए सबसे बड़ा खतरा है।


जब सेवक राजा बनने लगें और राजा—जनता—को न्याय के लिए तरसना पड़े, तो समझिए लोकतंत्र संकट में है।


अब समय आ गया है कि इन संस्थाओं को मर्यादा में रहकर काम करना सीखना होगा। जनता की सेवा में बनी व्यवस्थाएं अगर खुद को ही सर्वोपरि समझने लगें, तो संविधान का कोई मतलब नहीं रह जाता।


हमें इस गिरते संतुलन को संभालना होगा। संविधान को बचाना होगा। कानून को उसकी मूल भावना के साथ लागू करना होगा। लोकतंत्र को उसकी आत्मा के साथ जिंदा रखना होगा।


यह देश जनता का है—गरीबों का, मज़लूमों का, मेहनतकशों का।
यह देश किसी संस्था की जागीर नहीं, बल्कि 140 करोड़ लोगों की उम्मीदों का नाम है।


अगर अब नहीं जागे, तो न संविधान बचेगा, न लोकतंत्र।

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