अमरपाल सिंह वर्मा
हर सुबह अखबार खोलते ही किसी न किसी सडक़ हादसे की खबर दिख जाती है। कहीं बस पलट गई, कहीं बाइक ट्रक से टकरा गई, कहीं तेज रफ्तार कार ने पैदल चल रहे व्यक्ति को कुचल दिया। इन खबरों को हम पढ़ते हैं, एक पल रुकते हैं और फिर अगली खबर पर बढ़ जाते हैं। शायद इसलिए क्योंकि यह सब अब ‘सामान्य’ लगने लगा है लेकिन क्या किसी समाज के लिए रोज सैकड़ों लोगों का इस तरह मर जाना कभी सामान्य हो सकता है?
हाल ही में केंद्रीय सडक़ परिवहन और राजमार्ग मंत्री नितिन गडकरी ने संसद में सडक़ हादसों को लेकर जो कहा, वह केवल एक मंत्री का बयान नहीं था बल्कि भावुक, विचलित और एक बेचैन इंसान की स्वीकारोक्ति भी थी कि सडक़ हादसे ऐसी राष्ट्रीय त्रासदी है, जिसे हम ठीक से रोक नहीं पा रहे। गडकरी का यह कहना कि अंतरराष्ट्रीय मंचों पर सडक़ दुर्घटनाओं को लेकर सवाल उठते हैं तो उन्हें शर्मिंदगी महसूस होती है, इस मामले में केवल सरकार की नहीं, बल्कि हमारी सामूहिक विफलता को प्रकट करती है। सडक़ हादसों के आंकड़े डराते हैं लेकिन उनके पीछे छिपी मानवीय कहानियां उनसे भी ज्यादा डराती हैं।
गडकरी ने जो जानकारी संसद में दी है, उसके अनुसार देश में हर साल लगभग 4.8 लाख सडक़ दुर्घटनायें होती हैं और इनमें 1.8 लाख से ज्यादा लोग मारे जाते हैं। इसका मतलब है कि हर दिन लगभग 485 लोग घर से निकलते हैं और फिर कभी लौटकर नहीं आते। कोई पिता ऑफिस जाते हुए मर जाता है, कोई बेटा कॉलेज जाते वक्त दम तोड़ देता है तो कोई मां सब्जी लेने सडक़ पार करते हुए दुनिया को अलविदा कह जाती है। सडक़ पर होने वाली हर मौत के साथ एक परिवार टूट जाता है।
वर्ष 2018 से 2022 के बीच सडक़ हादसों में 7.77 लाख से अधिक लोगों की जान जाना केवल एक आंकड़ा नहीं है। यह 7.77 लाख अधूरे सपने और ऐसा दु:ख है जो अक्सर चुपचाप सह लिया जाता है। वर्ष 2024 में हादसों की संख्या बढक़र लगभग 1.80 लाख तक पहुंच जाना यह सवाल खड़ा करता है कि क्या इस दर्द का कोई अंत नहीं है। सबसे पीड़ादायक सच यह है कि मरने वालों में सबसे बड़ी संख्या युवाओं की है। 18 से 34 वर्ष की उम्र में जब कोई अपने जीवन की दिशा तय कर रहा होता है और जब परिवार उससे उम्मीदें लगाए बैठा होता है, तब उसकी मौत का मतलब केवल एक व्यक्ति का मर जाना नहीं होता। सडक़ हादसा सिर्फ उस एक व्यक्ति को नहीं मारता, वह पूरे परिवार का भविष्य छीन लेता है।
केंद्रीय मंत्री का यह स्वीकार करना भी कम पीड़ादायक नहीं है कि 2014 में सडक़ हादसों को 50 प्रतिशत तक कम करने का लक्ष्य रखा गया था लेकिन वह हासिल नहीं हो सका है। सवाल यह नहीं है कि लक्ष्य पूरा हुआ या नहीं. बड़ा सवाल यह है कि इतने वर्षों में कितनी जिंदगियां बचाई जा सकती थीं। हर असफल नीति की कीमत किसी न किसी परिवार ने चुकाई है। हम अक्सर हादसों के लिए तेज रफ्तार, लापरवाही, नशा आदि कारणों से ड्राइवर को दोष देते हैं। सही है , हादसों के ये कारण भी हैं लेकिन खराब सडक़ डिजाइन, बिना संकेतक के बने कट, अंधे मोड़, अधूरी सर्विस लेन, कमजोर ट्रैफिक व्यवस्था भी तो हादसों के जिम्मेदार हैं। सिर्फ ड्राइवरों को दोष देने से सडक़ हादसे नहीं रुकेंगे। जैसा कि गडकरी ने कहा है, सडक़ हादसों का सबसे बड़ा कारण अब भी लोगों की लापरवाही है। कई लोग आज भी हेलमेट पहनने से बचते हैं या फिर ट्रैफिक सिग्नल तोड़ते हैं जबकि भारी जुर्माने का प्रावधान है।
जब तक लोगों को सही ट्रेनिंग और जागरूकता नहीं मिलेगी, तब तक ये समस्या बनी रहेगी। हादसे रोकने के लिए हर कारण पर और उसे दूर करने पर विचार करना होगा। हादसे के बाद मदद का समय पर नहीं पहुंचना भी हताहतों की तादाद बढऩे का कारण है। अगर सही समय पर इलाज मिल जाए तो कई जानें बच सकती हैं लेकिन कई एंबुलेंस देर से पहुंचती है, लोग मदद करने से डरते हैं, अस्पतालों में व्यवस्था नहीं होती। कई लोग सडक़ पर नहीं बल्कि इलाज न मिलने से मर जाते हैं। हादसे रोकना केवल सरकार की नहीं, समाज की सामूहिक जिम्मेदारी है। लोग सीट बेल्ट नहीं लगाते, हेलमेट को बोझ समझते हैं, रेड लाइट तोडऩा सामान्य बात मानते हैं। जब तक सडक़ सुरक्षा को हम अपनी व्यक्तिगत जिम्मेदारी नहीं समझेंगे, तब तक कोई भी नीति पूरी तरह काम नहीं कर सकती। सडक़ हादसे रोकने के लिए सामूहिक रूप से काम करना होगा। हर किसी को इसमें योगदान देने के लिए आगे आना चाहिए।
अमरपाल सिंह वर्मा