पहला पर्ण जो निकला तन से
जीर्ण-शीर्ण हो गया समय से
किसी पवन के झोंके ने तब
अलग कर दिया तेरे तन से
उस विलगित पर्ण के जाने का
दर्द क्या मन में कुछ नहीं होता
पर देखा तो नहीं किसी ने
कभी भी तुम को आँख भिगोए
पेड़! तुम कब रोए?
शाख पर जन्मीं नन्हीं चिड़िया
जब उसी शाख पर, किसी झंझा में
मर जाती है।
पावस, पवन – जिनसे जीवन है
कुछ बुरा जब कर जातीं है।
अपने असहाय-सा रह जाने का
तब कुछ दु:ख तो होता होगा।
तुम ने तो हर एक ऋतु में
अपनी शाख के खग हैं खोये
पेड़! तुम कब रोए?
खेल रहे थे तेरी छाँव में
मृग शावक माता से अपनी।
तुमने भी तो देखी थी वह
प्रेम-स्नेह की चढती बेली।
वो तो व्याध से थे अनजाने
तुमने तो पर देख लिया था
अपने उच्च शिखर से उसको
मीलों दूर से आते आते।
उन निर्बोधों के प्राणों पर
कठिन मृत्यु का पाश लगाते।
क्या थी तेरी मौन प्रतीज्ञा
किस निद्रा में थे तुम सोये
पेड़! तुम कब रोए?
ऐ वंशी वट! ऐ महावृक्ष
तुझ तले हुए उपदेश बहु
निश्चय ही, तरु नीचे तेरे
हुआ ज्ञान-रश्मि का प्रस्फुटन
सब चले गये — पर तू तो था
उस अँधकार के नीरव में
फिर कैसे रक्तपिपासु वे
निर्भिक रहे, तेरे होते
निर्दोष ग्रीवा पर फिरी तेग
कुछ छींटे तुम तक भी आये
उनकी तो छोड़ो, क्या थे वो
तुम कैसे सब सह पाये
वो मुंड अभी तक पूछे है
कैसे पल्लव तुमने धोए
पेड़! तुम कब रोए?
डॉ राजपाल शर्मा ‘राज’