मीडिया

कहां खड़ी है आज पत्रकारिता?

देखा जाए तो पत्रकारिता लोकतंत्र के खम्भे और जनता की हितों की रक्षा करने के दायित्व के लिए समझा जाता है। शुरू से अपने दायित्वों का निर्वाहन करते-करते मीडिया की आज स्थिति यह है कि वह दिन प्रति दिन विस्तार पा रहा है। छोटे से लेकर बड़े जगहों से पत्र-पत्रिकाओं का जहां प्रकाशन हो रहा है वहीं इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने अपने पांव तेजी से फैलाये जा रहा है। क्षेत्रीय होते अखबारों के तर्ज पर खबरिया व इंटरटेंमेंट चैनल भी चल रहे हैं। यही नहीं इंटरनेट पत्रकारिता का दौर भी शुरू हो चुका है। जहां खबरें हर जगह आ रही है, लेकिन क्या उसका स्वरूप, तेवर, मकसद और जज्बा नजर आ रहा है? जवाब में उत्तर ‘ नहीं ‘ में मिलता है। ऐसे में सवाल उपजता है कि आज पत्रकारिता कहां खड़ी है?

मिशन नहीं प्रोफेशन और फिर बाजारवाद के चोले में घुसते मीडिया के लिए ये रूचिकर शब्द बन गये हैं। मीडिया जन सेवक की भूमिका में न आकर कारोबारी की भूमिका में आज है। बड़े-बड़े पूंजीपति, उद्योगपति, भूमंडलीकरण के प्रभाव में इस उद्योग से जुड़ गये हैं। हालांकि उन्हें मीडिया से कोई लेना-देना नहीं है। लेकिन एक परिपाटी विकसित हुयी और यह कि मीडिया को जन हथियार और लोकतंत्र के रक्षक के तौर पर न पेश कर अपनी दुकानदारी चलाने में इस्तेमाल किया जाये? नतीजा सामने है, हर कोई मीडिया के इस्तेमाल धड़ल्ले से, करने से, बाज नहीं आ रहा। इसमें राजा (मालिक) और प्रजा दोनों शामिल हैं। राजा अपनी हितों के लिए इसे इस्तेमाल कर रहा है तो वहीं प्रजा भी अपनी बात को पहुंचाने के लिए मीडिया का इस्तेमाल करने से नहीं चुक रही। राजा द्वारा संचालित मीडिया में उन्हीं बातों को दिखाया जाता है जो राजा चाहता है। तेजी से जनता के बीच घुसपैठ बनाने वाला, खासकर इलेक्ट्रॉनिक मीडिया जनता के सरोकारों से दूर होता जा रहा है। अपने टीआरपी या यों कहे चैनलों की भीड़ में अपने वजूद को बचाने के कषमोकष में ऐसी खबरों का प्रसारण करता है, जिसे जनता को कोई खास लेना-देना नहीं। खबर, खबर तो सही है लेकिन उस खबर को वह इतना खिंचता है कि जनता को ऐसा प्रतीत होता है मानो पूरी खबर प्रायोजित की गई हो? कई उदाहरण सामने है जिसमें मीडिया ने वहीं दिखाया जो उसे अच्छा लगा।

‘माई नेम इज खान’ मामले को ही लें। कई खबरिया चैनलों ने पूरे विवाद को खूब भुनाया, वहीं बिहार में एक नक्सली हमले की खबर को बस खबर की तरह दिखाया गया। जाहिर है खबर है तो खबर की ही तरह दिखायी जायेगी। लेकिन ‘माई नेम इज खान’ फिल्म का मामला भी तो खबर की तरह ही था। फिर उसे लेकर मीडिया में पैषन क्यों? उसे भी खबर की तरह दिखाया जाना चाहिये था। ‘माई नेम इज खान’ का मामला मानवीय संवेदना से नहीं जुड़ा था, जुड़ा था तो सिर्र्फ प्रदर्षन को लेकर, वह भी सिर्फ मुबंई में। वहीं नक्सली हमले की खबर और उसमें मारे गये लोगों की संवेदना तो सामने आनी चाहिये थी? मीडिया द्वारा उसके कारणों की तलाश की जानी चाहिये थी? जो नहीं की गयी। जबकि ‘माई नेम इज खान’ के हीरो को मीडिया ने मंच दिया। देश की जनता से रूबरू कराया। सवाल दागे और जवाब पाये। पूरा कार्यक्रम फिल्मी अंदाज में पेश किया गया। यहां यह कहने से परहेज नहीं कि मीडिया का सिनेमाई होता रूप का भव्य प्रदर्शन दिखा। वहीं नक्सली हमलें की खबर पर कोई राष्ट्रीय चर्चा नहीं की गई। फिल्में आती है, जाती है लेकिन नक्सली हमले, आतंकवादी हमले में मारे गये लोग लौट कर नहीं आते? समस्याएं वहीं की वहीं खड़ी रहती है। इससे निपटने के लिए राष्ट्रीय सहमति, जनचेतना और जागरूकता को लाना भी मीडिया के मजबूत कंधे पर है। कुछ क्षणों के लिए राजनीतिक गलियारे में चिल्लमपोह की गुंज सुनाई पड़ती है।

हालांकि, कुछ मीडिया भी मामले को उठाते हैं, लेकिन जो बात सिनेमाई खबरों में होती है वह जन सराकरों से जुड़े खबरों में नहीं दिखती। जहां तक जनता का सवाल है जनता भी मीडिया का जमकर इस्तेमाल अपने व्यक्तिगत हितों के लिए करती है। छोटी से छोटी घटना के लिए उसे बुला लेती है। लेकिन जन सराकारों की जब बातें आती है तो मीडिया को कोई नहीं बुलाता। मीडिया की अहम् भूमिका देश और समाज संस्कृति, धर्म, से जुड़े मुद्दों को जोड़ने में सार्थक कोशिश भी है लेकिन यह सब यह नहीं दिखता। राजनीतिक उठापटक में मीडिया की दिलचस्पी ज्यादा रहती है। हालांकि मीडिया के काम को पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकता है। समय-समय पर कई महत्वपूर्ण मुद्दों को इसने जिस तेवर के साथ उठाया वो काबिले तारिफ है। रूचिका-राठौर मामले को ही लें। इसे जाहिर है कि कितना से भी कितना शक्तिशाली क्यों न कोई हो उसे चाहे तो मीडिया जमीन पर ला सकता है और न्याय की आश में पथाराई आंखों में न्याय की उम्मीद जगा सकता है। यह सब कई घटनाओं में देखने को मिलता है। हालांकि इधर, जो भी कुछ मीडिया के अंदर देखा जा रहा है उसे बदलाव के तहत ही माना जा सकता है। बदलाव प्रकृति का नियम है। संभवत: इसे स्वीकार करते हुए इस बदलाव को हमे मान लेना चाहिए। हालांकि, उदयन शर्मा, रघुबीर सहाय, सुरेन्द्र प्रताप सिंह, एम.जे. अकबर, की पत्रकारिता बरबस हमें याद दिला जाती है। नरसंहार की खबरें या फिर कालाजार, भूख आदि से हुई मौत की खबरें या फिर जनसरोकारों से जुड़ी वह तमाम खबरें, जिसे लिखने के बाद सरकार तक को भी जवाब देना पड़ता था। आज वह सब कुछ नहीं दिखता। ऐसा कुछ लिखा नहीं जा रहा जिससे काला विधेयक यानी प्रेस पर अंकुष लगने का मामला बने। कहा जा सकता है कि मीडिया आज नाप तौल कर बातों/ मुद्दों को उठा रहा है जिसमें कोई विवाद न हो! हालांकि मुद्दें हैं, खबरें हैं, खबरें जरूर आ जाती है लेकिन खबर के पीछे सच क्या है वह नहीं आ पाता। लोगों से दूर होती मीडिया, बाजारवाद के गिरफ्त में मीडिया, सिनेमाई होती मीडिया, सनसनी होती मीडिया आदि जुमले के झंझावाद में मीडिया फंस कर रह गया है।

-संजय कुमार