राजनीति

कमजोर विपक्ष के लिए कौन जिम्मेदार है ?

राजेश कुमार पासी

संसदीय लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष उतना ही जरूरी है जितना कि  सत्तापक्ष जरूरी है। अगर विपक्ष नहीं है तो लोकतंत्र भी नहीं है। अगर किसी लोकतांत्रिक व्यवस्था में विपक्ष ज्यादा कमजोर हो जाता है तो सत्तापक्ष के तानाशाह बनने का डर पैदा हो जाता है। जब से मोदी सत्ता में आये हैं, विपक्ष और मीडिया का एक वर्ग उन पर तानाशाही का आरोप लगाता रहता है। वास्तव में स्थिति इसके विपरीत है. मोदी बेहद उदारवादी नेता हैं। उन्होंने अपने 11 साल के कार्यकाल में विपक्ष की राज्य सरकारों के प्रति बेहद उदारवादी रवैया अपनाया है। कई बार ऐसे मौके आये जब वो विपक्ष की सरकारों को भंग करके राष्ट्रपति शासन लगा सकते थे लेकिन उन्होंने ऐसा नहीं किया । विपक्ष के कई मुख्यमंत्रियों ने उनके साथ उचित व्यवहार नहीं किया लेकिन मोदी ने कभी किसी मुख्यमंत्री के खिलाफ बदले की कार्यवाही नहीं की। वास्तव में मोदी अगर तानाशाही करते तो विपक्ष इतना कमजोर नहीं होता जितना अब नजर आ रहा है। मोदी की उदारता ही विपक्ष की कमजोरी का बड़ा कारण है जिसे विपक्ष समझ नहीं पा रहा है।

विपक्ष ये समझ ही नहीं पा रहा है कि क्यों देश में सत्ताविरोधी लहर की जगह सत्ता के पक्ष में लहर चल रही है। भाजपा बड़े धैर्य के साथ सकारात्मक विचारधारा और राष्ट्रवादी रणनीति के साथ आगे बढ़ रही है। मोदी के नेतृत्व में भाजपा अपनी बड़ी लाइन खींच रही है जो दिनोंदिन बढ़ती जा रही है। विपक्ष अपनी लाइन खींचने की जगह भाजपा की लाइन को छोटा करने के प्रयास में लगा रहता है। विपक्ष की यही नकारात्मक सोच उसे लगातार कमजोर करती जा रही है। सच तो यह है कि प्रधानमंत्री मोदी भी चाहते होंगे कि विपक्ष इतना कमजोर न हो जाये कि भाजपा तानाशाही की ओर चल पड़े क्योंकि इसके बाद भाजपा की बर्बादी शुरू हो जाएगी। देश की जनता भी कमजोर विपक्ष नहीं चाहती है, इसलिए विपक्ष की कमजोरी उसे भी चुभ रही है। विपक्ष की कमियों को नजरअंदाज करके अभी भी देश का बड़ा वर्ग उसके साथ खड़ा हुआ है। इसके बावजूद देश की राजनीति का सच यह है कि विपक्ष धीरे-धीरे कमजोर होता जा रहा है। भाजपा विपक्ष की कमजोरी से सतर्क है। वो चाहती है कि विपक्ष इस तरह से कमजोर होता चला जाये लेकिन वो लड़ता हुआ दिखाई देता रहे । वास्तव में भाजपा जानती है कि विपक्ष को खत्म करने का मतलब है राजनीति में शून्य पैदा करना. भाजपा ये कभी नहीं चाहती है। राजनीति में शून्य कभी नहीं रहता. अगर शून्य पैदा हो जाता है तो जनता उसका विकल्प लेकर आ जाती है। भाजपा नहीं चाहती कि इस विपक्ष के विकल्प का उसको सामना करना पड़े क्योंकि इससे बढ़िया विपक्ष उसे मिलने वाला नहीं है। 

            2014 और 2019 के लोकसभा चुनावों की अपेक्षा 2024 में मजबूत विपक्ष चुनकर जनता ने भेजा है। अजीब बात यह है कि 235 लोकसभा सीटें जीतने वाला विपक्ष एक अल्पमत वाली सरकार के सामने बहुत कमजोर नजर आ रहा है। भारत की राजनीति में एक अजूबा हो रहा है लेकिन विपक्ष इसे समझ नहीं पा रहा है। बात सिर्फ कमजोर विपक्ष की नहीं है बल्कि यह है कि ये दिनोंदिन कमजोर हो रहा है। कई मायनों में 1984 की दो सीट वाली भाजपा से ज्यादा कमजोर 99 सीटों वाली कांग्रेस दिखाई दे रही है. इसकी वजह यह है कि कांग्रेस के मजबूत होने की संभावना लगभग खत्म हो चुकी है।  बेशक कांग्रेस की 99 सीटें हैं लेकिन वो ऐसी हालत में आ गई है कि उसके दोबारा खड़े होकर सत्ता की लड़ाई में शामिल होने की संभावना दूर-दूर तक दिखाई नहीं दे रही है । जब भविष्य अंधकारमय दिखाई देने लगे तो वर्तमान का महत्व खत्म हो जाता है।   कभी भाजपा के बारे में सोचकर ये लगता था कि ये पार्टी अकेले दम पर सरकार नहीं बना पाएगी लेकिन आज ये बात कांग्रेस के बारे में कही जा सकती है। दोनों दलों की स्थिति में अंतर यह है कि तब भाजपा ऊपर की ओर जा रही थी लेकिन कांग्रेस आज नीचे की ओर जा रही है।

 अगर बात सिर्फ कांग्रेस तक सीमित होती तो भी विपक्ष की कमजोरी चिंता का विषय नहीं थी लेकिन दूसरे दलों के भी हालात बेहतर नहीं हैं। कांग्रेस के अलावा कोई और राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जिसकी एक से ज्यादा राज्यों में सरकार चल रही हो । समस्या यह है कि ज्यादातर विपक्षी दलों की कमान वंशवादी नेताओं के हाथ में है और वो इन्हें विरासत में मिली हुई है। ममता बनर्जी विपक्ष की एकमात्र नेता हैं, जिन्होंने अपने दम पर संघर्ष करके पार्टी खड़ी की और 14 सालों से लगातार सत्ता में हैं । अगले साल होने वाले विधानसभा चुनावों में उनकी सत्ता को भी भाजपा से बड़ी चुनौती मिलने वाली है। पंजाब में भगवंत मान बेशक आम आदमी पार्टी के गैर-वंशवादी मुख्यमंत्री हैं लेकिन वो केजरीवाल की मेहरबानी से सत्ता में आये हैं। अखिलेश यादव को उनके पिता मुलायम सिंह यादव ने चुनाव जीतकर सत्ता सौंपी थी लेकिन उनके नेतृत्व में पार्टी दो विधानसभा चुनावों में हार चुकी है और अगले चुनाव में भी कोई उम्मीद नजर नहीं आ रही है। तेजस्वी यादव पिछले दो विधानसभा चुनाव से संघर्ष कर रहे हैं लेकिन सत्ता उनसे दूर नजर आ रही है। अब उन्हें अगले चुनावों में अपने पिता लालू प्रसाद यादव की मदद मिलने की भी उम्मीद खत्म हो गई है । 

               बिहार के चुनाव में विपक्ष की कमजोरी खुलकर सामने आ गई है. जिस तरह से महागठबंधन ने चुनाव लड़ा, उससे साबित हो गया कि भाजपा के सामने विपक्ष कितना कमजोर है। विपक्ष ने जिस तरह चुनाव लड़ा, उससे साबित होता है कि देश की जनता आज भी विपक्ष पर मेहरबान है अन्यथा इतने वोट उसे नहीं मिलने चाहिए थे। महागठबंधन का कोई सर्वमान्य नेता नहीं था और न ही एक रणनीति थी। यहां तक कि कई सीटों पर इसके घटक दल एक दूसरे के सामने खड़े थे। महागठबंधन की सबसे बड़ी पार्टी अपने अस्तित्व की जंग लड़ रही थी, इसलिए कोई सकारात्मक संदेश नहीं दे पाई । एनडीए के मुकाबले महागठबंधन ने ऐसे वादे किए जिन्हें पूरा करना असंभव था जिसने उसकी विश्वसनीयता खत्म कर दी । एक तरफ भाजपा बिहार की जनता को लालू यादव के जंगलराज का डर दिखा रही थी, तो दूसरी तरफ राजद के कार्यकर्ताओं और समर्थकों ने आक्रामक चुनाव प्रचार से जनता को जंगलराज की याद दिला दी। चुनाव शुरू होने से पहले यह महसूस किया जा रहा था कि जनता बिहार में बदलाव चाहती है लेकिन महागठबंधन ने अपनी गलतियों से हाथ में आती सत्ता को छोड़ दिया ।

 बिहार चुनाव की हार विपक्ष के भविष्य के लिए बहुत घातक साबित होने वाली है। बिहार में मिली शर्मनाक पराजय के बाद विपक्ष के दूसरे दल कांग्रेस से दूरी बनाते हुए दिख रहे हैं। ऐसे संकेत मिल रहे हैं कि झारखंड में हेमंत सोरेन कांग्रेस से गठबंधन तोड़कर भाजपा से हाथ मिला सकते हैं। बंगाल में ममता बनर्जी अकेले चुनाव लड़ना चाहती हैं. इससे इंडिया गठबंधन को चोट लगना स्वाभाविक है। महाराष्ट्र में उद्धव ठाकरे का मूड भी कुछ अच्छा नहीं लग रहा है। केजरीवाल पहले ही कांग्रेस के खिलाफ खड़े दिखाई दे रहे हैं। कांग्रेस और अन्य विपक्षी दलों के बीच मुस्लिम वोटों को लेकर खींचतान स्पष्ट रूप से दिखाई देने लगी है। वास्तव में विपक्षी दल अपने अस्तित्व की जंग लड़ रहे हैं, उनके लिए सामूहिक संघर्ष और निजी संघर्ष में चुनाव मुश्किल होता जा रहा है। वंशवादी राजनीति के कारण विरासत में मिली राजनीतिक ताकत को संभालने की कुव्वत विपक्ष के नेताओं में दिखाई नहीं दे रही है क्योंकि उन्हें इस ताकत को पाने के लिए संघर्ष नहीं करना पड़ा है। ममता बनर्जी को सिर्फ बंगाल की चिंता है तो अखिलेश यादव को उत्तरप्रदेश की चिंता है । स्टालिन तमिलनाडु से आगे नहीं देख सकते. केजरीवाल तय नहीं कर पा रहे हैं कि वो गठबंधन का क्या करे। 

               विपक्ष का दुर्भाग्य  है कि उसका मुकाबला मोदी और अमित शाह की जोड़ी से है जो बड़ी लंबी रणनीति के तहत भाजपा का नेतृत्व कर रहे हैं। इसके अलावा संघ भाजपा को बड़ी मदद कर रहा है। लंबे संघर्ष के बाद सत्ता के शीर्ष पर पहुंचे मोदी का मुकाबला उन नेताओं से है जो संघर्ष का मतलब ही नहीं जानते । विपक्ष के नेता अपने स्वार्थों को छोड़कर सामुहिक संघर्ष के लिए साथ आने को तैयार नहीं हैं। सत्ता मिलने के बाद आपसी संघर्ष समझ आता है लेकिन सत्ता मिलने से पहले संघर्ष विपक्ष की एकता के लिए घातक साबित हो रहा है। विपक्ष के नेताओं के इस संघर्ष के कारण लोकसभा चुनाव में इंडिया गठबंधन में बिखराव आ गया था । नीतीश कुमार ने एनडीए का मुकाबला करने के लिए इंडिया गठबंधन बनाया था लेकिन विपक्षी दलों की खींचतान के कारण वो इस गठबंधन को छोड़कर एनडीए के साथ चले गए। अगर 2024 के लोकसभा चुनाव में विपक्षी एकता कायम रहती तो भाजपा के लिए बड़ी समस्या खड़ी हो सकती थी। विपक्ष को यह नहीं भूलना चाहिए कि जनता तब तक सत्ता परिवर्तन के लिए वोट नहीं देगी जब तक कि उसे वर्तमान सत्ता का बेहतर विकल्प न दिखाई दे।

विपक्ष अगर भाजपा का मुकाबला करना चाहता है तो सारे मतभेद भुलाकर साथ आना होगा ।  लोकतंत्र और संविधान की रक्षा का दावा करना तब तक बेमानी है जब तक कि सभी दल एक साथ नहीं आते । कहने को विपक्षी दल भाजपा से लड़ रहे हैं लेकिन उनकी आपसी लड़ाई भी कम नहीं हैं। विपक्ष की सबसे बड़ी पार्टी कांग्रेस है, लेकिन उसके नेता राहुल गांधी को विपक्षी नेता अपना नेता नहीं मानते हैं। विपक्ष की ये कमजोरी भी उसे भारी पड़ रही है, क्योंकि सबसे बड़ी पार्टी का नेता ही गठबंधन का नेता बनना चाहिए। विपक्ष लगातार कमजोर हो रहा है क्योंकि वो अपनी कमजोरी के लिए भाजपा को दोष दे रहा है। 

राजेश कुमार पासी