राजनीति

शहीद कौन है — आईपीएस पूरन कुमार या एएसआई संदीप लाठर? 

हरियाणा पुलिस एक गहरे संकट से गुजर रही है। पहले आईपीएस पूरन कुमार और अब एएसआई संदीप लाठर की आत्महत्या ने विभाग की कार्यसंस्कृति, मनोबल और आंतरिक तनाव पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं। लगातार आत्महत्याओं से यह स्पष्ट है कि वर्दी के पीछे इंसान टूट रहा है। राजनीतिक दबाव, जातिगत खींचतान और मानसिक अवसाद पुलिस व्यवस्था को खोखला बना रहे हैं। अब ज़रूरत है उच्च स्तरीय जांच के साथ-साथ जिला स्तर पर काउंसलिंग व्यवस्था की, ताकि खाकी का आत्मविश्वास लौट सके और “सेवा, सुरक्षा, सहयोग” का आदर्श दोबारा जीवित हो।

– डॉ. सत्यवान सौरभ

हरियाणा इन दिनों एक ऐसे दौर से गुजर रहा है, जहाँ पुलिस महकमे की साख, मनोबल और संवेदनशीलता तीनों एक साथ संकट में दिखाई दे रहे हैं। पहले आईपीएस अधिकारी पूरन कुमार की आत्महत्या ने पूरे राज्य को झकझोर दिया और अब एएसआई संदीप लाठर की खुदकुशी ने इस त्रासदी को और गहरा कर दिया है। दोनों घटनाएँ न केवल पुलिस विभाग के भीतर की बेचैनी को उजागर करती हैं, बल्कि यह भी बताती हैं कि कानून के रखवाले ही जब अपने जीवन से हार मानने लगें, तो समाज की बुनियाद कितनी डगमगा जाती है।

एएसआई संदीप लाठर ने आत्महत्या से पहले जो वीडियो जारी किया, उसमें उसने अपने अफसरों और सिस्टम के रवैये पर सवाल उठाए। इससे पहले आईपीएस पूरन कुमार की मौत के बाद भी कई सवाल अनुत्तरित रह गए थे। अब इन दो आत्महत्याओं ने मिलकर एक ऐसा सिलसिला शुरू कर दिया है, जिसने हरियाणा पुलिस की छवि पर गहरा धब्बा छोड़ दिया है। आम जनता यह सोचने पर मजबूर है कि जो विभाग सुरक्षा और न्याय का प्रतीक माना जाता है, उसके भीतर इतना असंतोष, अविश्वास और भय कैसे पनप गया।

हरियाणा पुलिस देश की सबसे अनुशासित और जुझारू पुलिस बलों में गिनी जाती रही है। लेकिन पिछले कुछ वर्षों में हालात ऐसे बने हैं कि इस बल के भीतर मनोबल टूटने लगा है। कहीं राजनीतिक दबाव है, कहीं जातिगत खींचतान, तो कहीं अफसरों के बीच अंतर्विरोध। आईपीएस पूरन कुमार की आत्महत्या के मामले में कई लोगों ने सवाल उठाया था कि क्या उन्हें किसी साजिश का शिकार बनाया गया? और अब संदीप लाठर की मौत के बाद यह सवाल और भी गंभीर रूप ले चुका है।

यह पूरा घटनाक्रम किसी वेब सीरीज़ की तरह उलझा हुआ प्रतीत होता है, जिसमें हर पात्र का अपना दर्द है और हर मोड़ पर नया रहस्य खुलता है। परंतु यह कोई काल्पनिक कथा नहीं, बल्कि एक वास्तविक त्रासदी है — उन परिवारों की जिनके सदस्य कानून के रक्षक थे और अब उनकी आत्माएं न्याय की पुकार लगा रही हैं।

 “सेवा, सुरक्षा, सहयोग… या आत्मघात? हरियाणा पुलिस का संकट काल”

कानून और व्यवस्था बनाए रखने की जिम्मेदारी जिन लोगों के कंधों पर होती है, जब वही खुद अवसाद, निराशा और असहायता के शिकार हों, तो यह किसी भी राज्य के लिए चेतावनी की घंटी है। हरियाणा में हाल के वर्षों में कई बार पुलिस कर्मियों ने खुले मंच से यह स्वीकार किया है कि उनकी कार्यस्थितियाँ बेहद तनावपूर्ण हैं। लंबी ड्यूटी, छुट्टियों की कमी, ऊपरी आदेशों का दबाव और समाज की नकारात्मक धारणा – ये सभी कारण एक पुलिसकर्मी के मानसिक स्वास्थ्य पर गहरा असर डालते हैं।

चिंता की बात यह है कि आत्महत्या जैसे चरम कदम का सिलसिला अब पुलिस में आम होता जा रहा है। पहले चंडीगढ़, अब रोहतक — हर बार एक नई जगह से वही खबर आती है कि एक और वर्दीधारी ने अपनी जान दे दी। यह सवाल उठाना लाजमी है कि आखिर पुलिस विभाग में ऐसा माहौल क्यों बन रहा है जहाँ मनोबल इतना कमजोर पड़ रहा है कि जीवन ही बोझ लगने लगे।

कुछ लोगों का तर्क है कि इन घटनाओं के पीछे जातिवाद और राजनीति की भूमिका है। हरियाणा जैसे राज्य में, जहाँ जातीय समीकरण राजनीति से लेकर प्रशासन तक गहराई से जुड़े हुए हैं, यह संभावना पूरी तरह से नकारा नहीं जा सकती। किसी अधिकारी के साथ भेदभाव या दबाव, चाहे वह जातिगत हो या राजनीतिक, मानसिक रूप से तोड़ सकता है। यह वही आग है जो धीरे-धीरे पूरे सिस्टम को निगल रही है। हरित प्रदेश हरियाणा का सामाजिक ताना-बाना तभी सुरक्षित रहेगा, जब प्रशासन जातिवाद से ऊपर उठकर ईमानदार और निष्पक्ष कार्रवाई करेगा।

अब सबसे बड़ा सवाल यह है कि शहीद कौन है — आईपीएस पूरन कुमार या एएसआई संदीप लाठर? दोनों ही अपने-अपने स्तर पर सिस्टम से लड़ते हुए हार गए। अगर कोई पुलिसकर्मी अपने अफसरों से न्याय की उम्मीद खो दे, तो वह किससे उम्मीद करेगा? जब “सेवा, सुरक्षा और सहयोग” का आदर्श वाक्य ही खोखला लगने लगे, तो यह न केवल संस्थागत विफलता है बल्कि मानवीय करुणा का भी अंत है।

इस पूरे घटनाक्रम में मुख्यमंत्री नायब सैनी और डीजीपी ओपी सिंह की जिम्मेदारी बेहद अहम हो जाती है। उच्च स्तरीय जांच तो जरूरी है, लेकिन उससे भी ज्यादा जरूरी है एक ऐसा सिस्टम तैयार करना जो पुलिसकर्मियों के मानसिक स्वास्थ्य की रक्षा करे। जिला स्तर पर काउंसलिंग सत्र आयोजित किए जाने चाहिए ताकि कर्मचारी अपने तनाव, दबाव और व्यक्तिगत समस्याओं को साझा कर सकें। यदि किसी पुलिसकर्मी की मानसिक स्थिति अस्थिर पाई जाए तो उसे तुरंत मनोवैज्ञानिक सहायता दी जानी चाहिए और जब तक वह पूरी तरह सक्षम न हो, उसे सर्विस रिवॉल्वर न दिया जाए।

यह सुझाव किसी सजा की तरह नहीं, बल्कि एक सुरक्षा कवच की तरह देखा जाना चाहिए। पुलिस की नौकरी आसान नहीं होती। हर दिन अपराधियों से सामना, समाज की उम्मीदें, और ऊपर से आदेशों की जटिलता – इन सबके बीच इंसानियत को बचाए रखना कठिन है। अगर मानसिक स्थिरता को प्राथमिकता नहीं दी गई, तो ऐसी आत्महत्याओं की श्रृंखला आगे भी जारी रह सकती है।

हरियाणा सरकार को यह भी समझना होगा कि पुलिस सिर्फ कानून लागू करने वाली एजेंसी नहीं, बल्कि समाज का आईना है। जब उसमें दरारें पड़ती हैं, तो समाज की छवि भी टूटती है। पुलिस के भीतर आपसी सहयोग, सम्मान और संवाद की संस्कृति को मजबूत करना बेहद आवश्यक है। अफसरों और अधीनस्थों के बीच संवाद की कमी ही सबसे बड़ा कारण बनती है मनोबल गिरने का।

राज्य के गृह मंत्रालय को चाहिए कि वह एक स्वतंत्र “पुलिस मानसिक स्वास्थ्य प्रकोष्ठ” स्थापित करे, जो केवल पुलिसकर्मियों की भावनात्मक और मानसिक स्थिति पर निगरानी रखे। साथ ही, विभाग के भीतर जवाबदेही तय हो कि कोई भी अफसर अपने अधीनस्थों पर अनावश्यक दबाव या अपमानजनक व्यवहार न करे।

आज हरियाणा पुलिस एक ऐसे मोड़ पर खड़ी है जहाँ उसे अपने अस्तित्व और आदर्श दोनों को बचाना है। यह समय आत्ममंथन का है — कि आखिर कहाँ गलती हुई, किस बिंदु पर वह ‘सेवा और सुरक्षा’ से ‘संदेह और संदेहास्पद मौतों’ तक पहुँच गई।

राजनीतिक हस्तक्षेप, जातिवादी खींचतान, मीडिया ट्रायल और सोशल मीडिया के दबाव ने पहले ही खाकी की गरिमा को कमजोर किया है। अब जरूरत है उस आत्मविश्वास को लौटाने की जो कभी हरियाणा पुलिस की पहचान हुआ करता था।

सत्ता में बैठे लोगों को यह समझना होगा कि पुलिस केवल आदेश मानने वाली मशीन नहीं, बल्कि संवेदनशील मनुष्य हैं। जब तक उन्हें सम्मान, न्याय और सुरक्षा नहीं मिलेगी, तब तक कानून का शासन भी सुरक्षित नहीं रहेगा।

आख़िर में राहत साहब के शब्द इस पूरे घटनाक्रम का सटीक बयान करते हैं —

“चराग़ों को उछाला जा रहा है, हवा पर रौब डाला जा रहा है,

न हार अपनी, न अपनी जीत होगी, मगर सिक्का उछाला जा रहा है।”

हरियाणा पुलिस के लिए यह वक्त आत्ममंथन का है — एक तरफ़ व्यवस्था की सच्चाई है, दूसरी तरफ़ वर्दीधारियों की टूटती हिम्मत। अगर इस सच्चाई को स्वीकार कर सुधार के रास्ते नहीं खोले गए, तो यह ‘सेवा, सुरक्षा, सहयोग’ नहीं बल्कि ‘संघर्ष, संदेह और आत्मघात’ की परंपरा बन जाएगी।

हरियाणा को आत्मघाती पुलिस नहीं, आत्मसम्मान से भरी पुलिस की जरूरत है — ताकि लोग जब “खाकी” देखें, तो डर नहीं, भरोसा महसूस करें।

– डॉo सत्यवान सौरभ