खान-पान

मिलावटखोरों के खिलाफ दिवाली पर कार्यवाही क्यों

राजेश कुमार पासी

जब भी दीवाली आती है, अखबारों में खाद्य विभाग के छापों की खबर प्रकाशित होने लगती है। दीवाली से कुछ दिन पहले रोज ऐसी खबरें पढ़ने को मिलती हैं जिसमें से ज्यादातर दुग्ध उत्पादों के बारे में होती हैं।  खाद्य विभाग जगह-जगह छापे मारकर नकली खोया, पनीर और मिठाइयों को जब्त करता है और ज्यादातर को वहीं फेंक दिया जाता है । सवाल यह है कि क्या सिर्फ दिवाली पर ही मिठाइयों या अन्य खाद्य पदार्थों में मिलावट की जाती है । सच तो यह है कि देश भर में रोज मिलावटी और नकली खाद्य पदार्थों की बिक्री होती है लेकिन खाद्य विभाग सोया रहता है । सवाल यह है कि ऐसा क्यों है कि सिर्फ त्योहारों के समय ही खाद्य विभाग सक्रिय नजर आता है ।

 इसके लिए खाद्य विभाग स्टाफ  की कमी को रोना रोता है कि उसके पास पर्याप्त संख्या में अधिकारी नहीं हैं जो मिलावटी सामानों की बिक्री पर नजर रख सकें । उनके इस बहाने से सवाल उठता है कि फिर दीवाली के समय उसके पास स्टाफ कहां से आ जाता है । खाद्य पदार्थों में मिलावट एक बड़ी स्वास्थ्य समस्या बन चुकी है लेकिन पूरी व्यवस्था इस तरफ से बेखबर है । इसकी वजह यह भी  हो सकती है कि सम्पन्न वर्ग ब्रांडेड और अच्छी दुकानों से सामान खरीदता है जहां मिलावट होने की संभावना बहुत  कम होती है । घटिया और मिलावटी सामान तो छोटे शहरों या बड़े शहरों में ऐसी जगहों पर बिकता है जहां गरीब और मध्यम वर्ग के लोग रहते हैं ।

 घटिया और मिलावटी खाद्य पदार्थों के सेवन से कैंसर, लीवर रोग, दिल एवं गुर्दे की बीमारियां और तंत्रिका तंत्र से संबंधित कई प्रकार की बीमारियां पैदा हो जाती है । मिलावटी और घटिया खाद्य पदार्थों के सेवन से पेट दर्द, दस्त, मतली, एलर्जी जैसी समस्याएं तत्काल भी उत्पन्न हो जाती हैं । लंबे समय तक ऐसे खाद्य पदार्थों का सेवन शरीर के आंतरिक  अंगों को खराब कर देता है । आज हमारे देश में बढ़ती बीमारियों के लिए जंक फूड को दोष दिया जाता है जो कि सही भी है लेकिन मिलावटी सामानों के बारे में बात कम की जाती है । गरीब और मध्यम वर्ग बीमारियों में जकड़ता जा रहा है, इसकी बड़ी वजह जंक फूड  के अलावा  मिलावटी और घटिया खाद्य पदार्थ भी हैं । 

         सवाल यह है कि सरकार इन पर रोक क्यों नहीं लगा पा रही है । खाद्य विभाग कहता है कि त्योहारों के दौरान खाद्य पदार्थों में मिलावट की समस्या बढ़ जाती है, इसलिए उसकी कार्यवाही सबको दिखाई देती है । विशेष तौर पर दिवाली के समय देश में मिठाइयों की उपलब्धता बढ़ जाती है । सवाल उठता है कि दूध उत्पादन तो एकदम से नहीं बढ़ सकता, फिर दूध से बने खोया और पनीर कहां से आ जाते हैं । दूध से बने पदार्थों की मियाद भी बहुत कम होती है. खोया तो सिर्फ एक सप्ताह तक ही ठीक रहता है । अचानक दुकानों में दूध से बनी मिठाइयों का ढेर कैसे लग जाता है । वास्तव में सच्चाई तो यह है कि इसके लिए नकली और मिलावटी दूध का इस्तेमाल किया जाता है । खाद्य विभाग जो पकड़ता है, वो नाममात्र का ही होता है, बाकी सारा लोगों के पेट में चला जाता है ।

दीवाली के दौरान जनता को दिखाने के लिए ऐसे कुछ सामानों को जब्त करके खानापूर्ति की जाती है । खाद्य विभाग को उसकी लापरवाही के लिए कोसा जाता है, जबकि सच्चाई यह है कि वो ऐसे मामलों की अनदेखी करता है । इसके लिए सरकारी विभागों में फैला हुआ भ्रष्टाचार जिम्मेदार है । कमजोर कानून को इसके लिए दोष दिया जाता है जबकि सच्चाई यह है कि जो कानून है, उसका भी इस्तेमाल नहीं हो रहा है । इसके लिए उपभोक्ता भी जिम्मेदार हैं क्योंकि उनमें खाद्य पदार्थों के मिलावट के संबंध में जागरूकता का अभाव है । विदेशों में इस संबंध में जनता बहुत जागरूक है, उसकी नजर में जब ऐसे मामले आते हैं तो वो सरकार को कार्यवाही करने के लिए मजबूर कर देती है । विकसित देशों में संबंधित विभाग ऐसे मामलों में बहुत सख्ती बरतते हैं, इसलिए वहां मिलावटी सामान की बिक्री संभव नहीं हो पाती है । हमारे देश में सस्ती चीजें लोगों का आकर्षित करती हैं लेकिन लोग समझ नहीं पाते हैं कि सस्ती चीजें नकली और मिलावटी भी हो सकती हैं ।

शहरों में दूध की कीमत को देखते हुए कहा जा सकता है कि पनीर 350 रुपये प्रति किलो से कम में नहीं बेचा जा सकता लेकिन कुछ दुकानदार पनीर 200-250 रुपये प्रति किलो की दर से बेचते मिल जाते हैं। इसके लिए दुकान पर बोर्ड भी लगाया जाता है लेकिन खाद्य विभाग की नजर उस पर नहीं जाती । जनता को भी समझ नहीं आता कि जब सरकारी और सहकारी कंपनियां 400 रुपये किलो बेच रही हैं तो इतना सस्ता छोटे दुकानदार कैसे बेच सकते हैं। 

                इसके लिए सरकारी विभागों में फैला हुआ भ्रष्टाचार जिम्मेदार है। आज भी जहां इंस्पेक्टर राज चल रहा है, वो विभाग पूरी तरह से भ्रष्टाचार में डूबे हुए हैं। फूड इंस्पेक्टर का काम मिलावटी, खराब और घटिया खाद्य पदार्थों पर नजर रखना नहीं होता है बल्कि हर दुकान से मंथली इकठ्ठा करना होता है।  सरकारी सेवा के दौरान एक बार मुझे सीबीआई ने एक फूड इंस्पेक्टर को पकड़ने के लिए लगाए गए ट्रैप के लिए बुलाया था । ज्यादातर मामलों में सीबीआई जब किसी व्यक्ति को भ्रष्टाचार के मामले में पकड़ने जाती है तो गवाही के लिए साथ में एक सरकारी कर्मचारी को ले जाती है । मुझे दुकानदार से मिलाया गया तो उसने कहा कि मैं हर महीने मंथली दे रहा था लेकिन अचानक फूड इंस्पेक्टर ने मंथली बढ़ाकर डेढ़ गुना कर दी है । मैंने कम करने को कहा लेकिन माना नहीं, अब मुझे तंग करने की धमकी दे रहा है, इसलिए मजबूर होकर मैंने सीबीआई को शिकायत की है । दूसरी तरफ एक सीबीआई अधिकारी ने कहा कि हम भी सरकारी कर्मचारी हैं और दूसरे सरकारी कर्मचारी के खिलाफ कार्यवाही नहीं करना चाहते लेकिन जब पानी सिर से ऊपर चला जाता है तो कार्यवाही करनी पड़ती है ।

देखा जाए तो दुकानदार और सीबीआई दोनों ही मंथली को गलत नहीं मानते थे क्योंकि ये एक रिवायत है । फूड इंस्पेक्टर अपने इलाके की दुकानों से मंथली इकट्ठी करता है, इसके एवज में वो दुकानदारों की मनमानियों की अनदेखी करता है । वास्तव में यह एक ऐसा भ्रष्टाचार है, जिसमें लेने वाला भी खुश रहता है और देने वाला भी खुश रहता है । मंथली की राशि अचानक ज्यादा कर देने से दुकानदार नाराज था । इसका मतलब है कि वो मंथली को एक सरकारी व्यवस्था मानता था और उसको देकर खुश था । उसकी खुशी की वजह यह थी कि वो बेपरवाह होकर अपना काम कर सकता था । जब भी खाद्य विभाग की टीम उसकी दुकान पर सैंपल भरने आती, तो उसे पहले से ही इसकी सूचना मिल जाती । एक दिन हमारे स्थानीय बाजार में एक दुकानदार ने एक फूड इंस्पेक्टर को सीबीआई से पकड़वा दिया तो उसके साथी दुकानदार ही उससे नाराज हो गए । उनका कहना था कि अब खाद्य विभाग नाराज हो जाएगा और हमें परेशान करेगा । उन्हें मंथली देना सही लगा लेकिन रिश्वतखोर फूड इंस्पेक्टर को पकड़वाना गलत लगा । वास्तव में सच्चाई यही है कि दोनों मिली भगत करके जनता के स्वास्थ्य से खिलवाड़ कर रहे हैं । 

                    मैंने पहले भी कई बार लिखा है कि किसी अपराध की सजा कम या ज्यादा होना समस्या नहीं है बल्कि समस्या यह है कि निरपराध को सजा होती है और अपराधी आजाद घूमते रहते हैं । जो दुकानदार खाद्य विभाग का हाथ गर्म करते रहते हैं, उनके ऊपर कभी छापा नहीं डलता लेकिन जो ऐसा नहीं करते हैं, वहीं खाद्य विभाग का निशाना बनते हैं । अपने पसंदीदा दुकानदार का सैंपल अगर इन्हें भरना भी हो तो वो ऐसी चीज का भरते हैं जिसके जांच में फेल होने की संभावना ही नहीं होती । सभी विभागों में स्टाफ की कमी है लेकिन इतनी कमी नहीं है कि सरेआम मिलावटी सामान बिकता रहे और कोई रोकने वाला भी न हो । रोकने वाले बहुत हैं लेकिन रोकना नहीं चाहते ।

वैसे भी भारत में गरीब आदमी की जिंदगी की कोई कीमत नहीं है । वो मिलावटी सामान खाने से मरे या जहरीली शराब पीने से व्यवस्था को कोई फर्क नहीं पड़ता । हर रोज सड़क दुर्घटनाओं में 500 गरीब और मध्यम वर्ग के लोग असमय मौत के मुंह में चले जाते हैं लेकिन इसकी रोकथाम के लिए कोई कुछ करने को तैयार नहीं है । मिलावटी, घटिया और सड़े हुए खाद्य पदार्थों के खाने से गरीब लोग धीरे-धीरे बीमारियों से अस्पतालों में पैर रगड़ते हुए मरते हैं तो किसी को क्या फर्क पड़ सकता है । अचानक ज्यादा लोग एकदम से मर जाएं तो व्यवस्था के लिए समस्या खड़ी हो जाती है । जनता का धीरे-धीरे मरना तो व्यवस्था के लिए अच्छी बात है, इसी बहाने सरकारी अस्पताल भरे रहते हैं ।  अगर सरकार को सचमुच जनता के स्वास्थ्य की फिक्र  है तो जो काम दीवाली  पर होता है, वो रोज होना चाहिए । फूड इंस्पेक्टर का कोई एरिया नहीं होना चाहिए । एसआईटी की तरह स्वास्थ्य विभाग को टीम बनाकर ऐसी जगहों पर जांच के लिए भेजना चाहिए जहां उन्हें कोई जानता न हो । फूड इंस्पेक्टर की संपत्ति पर नज़र रखने की जरूरत है और उसकी दिनचर्या की भी निगरानी होनी चाहिए । क्या कारण है कि ऐसे अफसरों के पास अचानक करोड़ों की संपत्ति आ जाती है । कानून की कमजोरी समस्या नहीं है. समस्या कानून को लागू करने वालों की नीयत में है । अपनी जेब गर्म करने वाले भला जनता के स्वास्थ्य की चिंता क्या करेंगे ।  

राजेश कुमार पासी