– योगेश कुमार गोयल
नीतियों, संख्या-शास्त्र और राजनीतिक सामाजिक रुझानों को समझने का दावा करने वाले एग्जिट पोल्स एक बार फिर बिहार के जनादेश के सामने बुरी तरह धराशायी हो गए। यह वही बिहार है, जहां जनता की राजनीतिक सूझबूझ देशभर में मिसाल मानी जाती है और इसी बिहार ने 2025 के विधानसभा चुनाव में एक बार फिर यह साबित कर दिया है कि मतदाता का मन कागजों, ग्राफों और टीवी स्टूडियो की चर्चाओं से नहीं पढ़ा जा सकता। लगभग दो दर्जन एजेंसियों ने अपने-अपने अनुमानों की बौछार कर दी थी लेकिन नतीजों ने इनकी तथाकथित वैज्ञानिकता का मुखौटा एक झटके में उतारकर फैंक दिया। मतदान के बाद तमाम टीवी चैनलों पर जोर-शोर से दावे किए जा रहे थे कि इस बार तस्वीर साफ है, रुझान स्थिर हैं और रणनीति मजबूत है परन्तु असलियत यह थी कि वैज्ञानिक ‘सैम्पलिंग’ के नाम पर केवल अनुमान बेचे जा रहे थे और इन अनुमानों का आधार जमीन से ज्यादा स्टूडियो-केन्द्रित ‘कॉलिनियरिटी’ था।
हालांकि बिहार के दो चरणों वाले चुनाव में भारी मतदान ने यह संकेत पहले ही दे दिया था कि इस बार कुछ अलग ही लहर है लेकिन यह लहर कितनी प्रचंड होगी, इसे कोई भी एजेंसी अपने सर्वे में नहीं पकड़ सकी। 65 और 68 प्रतिशत की रिकॉर्ड वोटिंग ने विश्लेषकों को जरूर सतर्क किया था लेकिन यह सतर्कता भी उस समय ध्वस्त हो गई, जब एग्जिट पोल्स ने लगभग एक जैसी थाली परोसी यानी एनडीए की जीत लेकिन सीमित मार्जिन के साथ। लगभग सभी ‘पोल ऑफ पोल्स’ ने एनडीए को 150 के आसपास और महागठबंधन को 80-90 सीटों तक टिका दिया, मानो मतदाता किसी स्थिर पैटर्न में वोट डालने गया हो। इन अनुमानित संख्याओं में न आत्मविश्वास झलकता था, न शोध की गंभीरता। यही नहीं, प्रतिष्ठित मानी जाने वाली एक्सिस माय इंडिया और टुडेज चाणक्य जैसी एजेंसियां भी उस भूचाल को भांप नहीं सकी, जिसने एनडीए को 200 से अधिक सीटों के साथ रिकॉर्ड बहुमत दे दिया। यह पराजय अनुमान की नहीं, समझ की थी और यह विफलता आंकड़ों की नहीं, पद्धति की थी, जो सवाल उठाती है कि क्या एग्जिट पोल्स विश्लेषण करते हैं या महज भविष्यवाणी का खेल खेलते हैं?
सबसे दिलचस्प बात यह रही कि सभी एजेंसियों के बीच ‘पोल डायरी’ नाम की एकमात्र एजेंसी थी, जिसने एनडीए को 184-209 सीटों तक का अनुमान देकर राजनीतिक गलियारों को चौकन्ना कर दिया था। उस समय इसे कई विशेषज्ञों ने ‘आउटलायर’ कहकर खारिज कर दिया था परंतु नतीजे आए तो वही आउट्लायर सबसे सटीक साबित हुआ। महागठबंधन को 32-49 सीटों का उसका अनुमान भी वास्तविक परिणामों से मेल खा गया। यह सवाल और बड़ा हो जाता है कि जब सारी एजेंसियां एक दिशा में झुकी हों और एक एजेंसी अलग दृष्टि दे रही हो, तब भी आखिर क्यों तथाकथित विशेषज्ञता उस एकमात्र भिन्न अनुमान को गंम्भीरता से नहीं लेती? जवाब स्पष्ट है कि एग्जिट पोल अब एक उद्योग है और उद्योग में जोखिम लेने की जगह कम होती है। सबको उसी लय में बोलना सुविधाजनक लगता है, जिसमें बहुमत की आवाज सुनाई देती है।
बिहार में एक्सिस ने 121-141, चाणक्य ने 148-172, भास्कर ने 145-160, पीपुल पल्स ने 133-159, मैट्रिज-आईएएनएस ने 147-167 और लगभग हर एजेंसी ने 130 से 160 के बीच एनडीए को बांधकर रखा। महागठबंधन को इन्हीं एजेंसियों ने उदारता के साथ 75-110 सीटें सौंप दी, मानो राजनीतिक ध्रुवीकरण, जातीय समीकरणों के पुनर्संयोजन, महिलाओं और युवाओं के मतदान पैटर्न जैसी वास्तविकताओं का कोई महत्व ही न हो। नतीजा? जमीन पर वोटर ने इन सारे अनुमानों को ‘कागजी गणित’ साबित कर दिया। एनडीए जहां 200 सीटों से ऊपर निकल गया, वहीं महागठबंधन 35 के आसपास सिमट गया।
बिहार की राजनीति की जटिलता को समझ पाने में एग्जिट पोल्स की असमर्थता कोई नई बात नहीं है। 2010, 2015 और 2020 में भी वे लगातार विफल रहे। 2015 में जब नीतीश-लालू गठबंधन की प्रचंड जीत हुई थी जबकि सर्वे एजेंसियों ने इसके उलट एनडीए की बढ़त दिखाई थी। 2020 में जब लगभग हर सर्वे ने महागठबंधन की जीत की भविष्यवाणी की थी, तब नतीजों ने एनडीए को 125 सीटों के साथ पूर्ण बहुमत पर पहुंचा दिया था। अब 2025 में जब एनडीए की सुनामी आई, तब उसे भी पढ़ने में लगभग सभी एजेंसियां एक बार फिर चूक गई। आखिर चुनावी समाजशास्त्र में ऐसी क्या अंधी दीवार है, जो इन एजेंसियों को वास्तविकता से टकराने पर मजबूर कर देती है?
यह विफलता केवल बिहार तक सीमित नहीं है। हरियाणा, महाराष्ट्र, झारखंड, पश्चिम बंगाल, राजस्थान और यहां तक कि लोकसभा चुनावों तक में एग्जिट पोल्स बार-बार चित्त होते आए हैं। 2024 लोकसभा चुनाव में तो लगभग हर एजेंसी ने एनडीए को 350-400 सीटों का आकाश छूता अनुमान दिया था जबकि भाजपा 240 सीटों पर रुक गई थी और एनडीए 292 पर। महाराष्ट्र में एग्जिट पोल्स ने 150-170 सीटों की ‘महायुति’ दिखा दी पर वास्तविक नतीजे 234 सीटों के विशाल बहुमत में तब्दील हो गए। झारखंड में अनुमान एनडीए का, नतीजा इंडिया ब्लॉक का; बंगाल में अनुमान त्रिशंकु का, नतीजा टीएमसी की सुनामी का, तो क्या यह कहना गलत है कि एग्जिट पोल अब विश्लेषण का औजार नहीं बल्कि मनोरंजन का साधन बन चुके हैं?
सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि आखिर एग्जिट पोल्स किस ‘विज्ञान’ पर चलते हैं? एजेंसियां दावा करती हैं कि वे वैज्ञानिक सैम्पलिंग, पिछले चुनावों के पैटर्न, जातीय-क्षेत्रीय वितरण, बूथवार गणना और वोट शेयर रूपांतरण मॉडल पर काम करती हैं लेकिन वास्तविकता यह है कि यह डेटा कितने बूथों से लिया जाता है, कितने मतदाताओं से बात होती है, कौनसे अनुपात लागू किए जाते हैं, इन सबकी पारदर्शिता लगभग शून्य है। ‘वैज्ञानिक मॉडल’ की आड़ में यह उद्योग एक ब्लैक बॉक्स की तरह काम करता है, जहां अंदर क्या चल रहा है, कोई नहीं जानता और बाहर सिर्फ अनुमान बेचा जाता है। हालांकि ऐसा नहीं है कि सैंपलिंग से नतीजे निकाले नहीं जा सकते। दुनियाभर में चुनाव पूर्व सर्वे और एग्जिट पोल आम प्रचलन में हैं लेकिन वहां मैथडोलॉजी खुली होती है, डेटा उपलब्ध होता है और एजेंसियों का मूल्यांकन उनके पिछले रिकॉर्ड के आधार पर किया जाता है। भारत में इसके उलट, टीवी चैनल टीआरपी के लिए और सर्वे एजेंसियां कॉन्ट्रैक्ट के लिए एग्जिट पोल पेश करती हैं। इन्हें वास्तविकता से ज्यादा कथानक गढ़ने में रुचि होती है। कई बार राजनीतिक पक्षधरता, कई बार व्यावसायिक दबाव और कुछ मामलों में ‘सैंपल की कमी’ जैसे बहाने इस उद्योग का स्थायी फॉर्मूला बन चुके हैं।
कुल मिलाकर, बिहार के 2025 के जनादेश ने एक बार फिर यह साबित किया है कि एग्जिट पोल्स मतदाता को पढ़ने का नहीं, मतदाता को प्रभावित करने का उपकरण बन चुके हैं। किसी भी लोकतंत्र में यह एक खतरनाक प्रवृत्ति है। जब टीवी चैनल और एजेंसियां मिलकर मतदाता के मन की थाह लेने के बजाय उसकी धारणाओं को दिशा देने में लग जाएं, तब उनकी विश्वसनीयता पर प्रश्नचिन्ह लगने स्वाभाविक है। यह समय है कि भारत में एग्जिट पोल्स के लिए स्वतंत्र विधिक नियंत्रण, स्पष्ट पद्धति प्रकटीकरण, सैम्पलिंग मानक, पारदर्शिता नियम और जवाबदेही लागू की जाए। जब तक यह उद्योग ‘अनुमानों की दुकान’ बना रहेगा, तब तक उसका हर अनुमान एक जोखिम होगा और उसकी हर भविष्यवाणी लोकतंत्र को भ्रमित करने का माध्यम। हालांकि बिहार ने एक बार फिर दुनिया को दिखा दिया कि यहां का मतदाता किसी भी ‘पोल’ से बड़ा है। ‘पोल ऑफ पोल्स’ विफल हुआ लेकिन जनता का पोल एकदम सही बैठा। यही बिहार की राजनीतिक चेतना की असली शक्ति है और यही लोकतंत्र की वह जीवंत धड़कन है, जिसे कोई सर्वे, कोई ग्राफ और कोई चैनल स्टूडियो कभी समझ नहीं पाएगा।