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जीवनदायी खून क्यों बन रहा मौत और बीमारियों का कारण


ज्ञान चंद पाटनी

ब्लड ट्रांसफ्यूजन जीवन रक्षक प्रक्रिया है लेकिन ब्लड बैंकों और अस्पतालों की बदइंतजामी के कारण यह मरीजों के लिए गंभीर रोगों या मौत का कारण भी बन जाती है। झारखंड के पश्चिमी सिंहभूम जिले के बाद मध्यप्रदेश के सतना जिले में भी थैलेसीमिया से जूझते मासूम बच्चों को एचआईवी संक्रमित खून चढ़ाने के सनसनीखेज मामले इसका प्रमाण हैं। राजस्थान के बीकानेर शहर में भी हाल ही मरीज को गलत ब्लड ग्रुप का खून चढ़ाने की घटना सामने आई है। राजस्थान में तो दो वर्ष के दौरान गलत ब्लड ग्रुप का खून चढ़ाने से चार मरीजों की मौत तक हो चुकी है। दूषित खून चढ़ाने की समस्या कितनी गंभीर है, इसका खुलासा 2015 में एक आरटीआई के जरिए हुआ था। नेशनल एड्स कंट्रोल प्रोग्राम (एनएसीपी) से मिली रिपोर्ट में बताया गया था कि 5 वर्ष में 8,938 मरीजों को एचआईवी संक्रमित ब्लड चढ़ाया गया था। ये हृदयविदारक घटनाएं ब्लड बैंकों की बदहाली, चिकित्सकों की लापरवाही, स्टाफ की संवेदनहीनता व सिस्टम की पोल खोल रही हैं। जाहिर है देश के विभिन्न भागों में खून की सतही जांच, मानवीय भूल व स्टोरेज की लापरवाही से मरीजों की मौत हो रही है या वे नई घातक बीमारियों का शिकार हो रहे हैं। गलत या दूषित ब्लड के ट्रांसफ्यूजन के कारण होने वाली बीमारी के कारण मरीजों के परिजन भी सामाजिक कलंक, आर्थिक संकट व मानसिक परेशानी झेल रहे हैं।

 
  वैसे तो सुरक्षित और पर्याप्त खून की सप्लाई सुनिश्चित करने के लिए भारत में पिछले कुछ सालों में कई महत्वपूर्ण नीतिगत सुधार लागू किए गए हैं। वर्ष 1996 में सुप्रीम कोर्ट के एक ऐतिहासिक फैसले से प्रोफेशनल ब्लड डोनेशन को पूरी तरह से प्रतिबंधित कर दिया गया था। यह अलग बात है कि मिलीभगत या चोरी छिपे देश के कई इलाकों में अब भी ऐसा हो रहा है। ब्लड बैंकों के रेगुलेशन और लाइसेंसिंग के लिए नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल (एनबीटीसी) और स्टेट ब्लड ट्रांसफ्यूजन काउंसिल्स ( एसबीटीसी ) की स्थापना हुई। वर्ष 2002 में नेशनल ब्लड पॉलिसी भी बनाई गई। 2016-17 में किए गए नेशनल ब्लड रिक्वायरमेंट एस्टीमेशन से  खून की जरूरत का अनुमान और भी बेहतर किया गया। साथ ही  ब्लड ट्रांसफ्यूजन की सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए डोनेशन से प्राप्त ब्लड  की ट्रांसफ्यूजन ट्रांसमिसिबल इन्फेक्शन्स (टीटीआई) स्क्रीनिंग अनिवार्य की गई। इसमें एचआईवी, हेपेटाइटिस बी, हेपेटाइटिस सी, सिफलिस और मलेरिया की जांच शामिल है। इसके बावजूद यदि ब्लड बैंकों से होता हुआ संक्रमित खून मरीजों तक पहुंच रहा है और अस्पतालों में गलत ग्रुप का खून चढ़ने से भी लोगों की मौत हो रही है तो पूरी व्यवस्था पर सवाल तो उठेगा ही।


   इसमें कोई दो राय नहीं है कि ब्लड बैंक आधुनिक चिकित्सा प्रणाली का महत्वपूर्ण हिस्सा होते हैं। घायलों के इलाज, सर्जरी और जटिल प्रसव के दौरान ब्लड चढ़ाकर जान बचाई जाती है। थैलेसीमिया, एनीमिया या कैंसर रोगियों का जीवन बचाने के लिए भी ब्लड़ चढ़ाना होता है। बीटा-थैलेसीमिया मेजर जैसे आनुवंशिक रोगों में मरीजों को हर 15-30 दिन में 2-4 यूनिट ब्लड चढ़ाना पड़ता है। इस वजह से ये मरीज ट्रांसफ्यूजन ट्रांसमिटेड इन्फेक्शन (टीटीआई) का सबसे संवेदनशील हाई रिस्क ग्रुप माने जाते हैं।

  मुश्किल यह है कि डोनेशन से प्राप्त ब्लड की टेस्टिंग में गंभीरता नहीं बरती जाती। साथ ही यह भी सच है कि भारतीय ब्लड बैंक वैश्विक मानकों से बहुत पीछे हैं। ब्लड बैंकों में पुरानी एलिसा किट्स विंडो पीरियड में एचआईवी को नहीं पकड़ पातीं। दुर्भाग्य से, ब्लड बैंक में जरूरी एलिसा टेस्ट की पीढ़ी के बारे में भी कोई न्यूनतम स्टैंडर्ड तय नहीं किए गए हैं। असल में, भारतीय ब्लड बैंकों द्वारा इस्तेमाल किए जाने वाले टेस्ट के प्रकार में बहुत ज्यादा अंतर देखा गया है। ऑस्ट्रेलिया और ब्रिटेन जैसे कई देश सभी ब्लड बैंक इन्फेक्शन का पता लगाने के लिए न्यूक्लिक एसिड टेस्टिंग (एनएटी) का इस्तेमाल कर रहे हैं। एनएटी दूसरे तरीकों की तुलना में ब्लड से होने वाले इन्फेक्शन का बहुत पहले पता लगा सकता है लेकिन भारत में यह सुविधा कुछ ही ब्लड बैंकों तक सीमित है। असल में एनएटी टेस्ट महंगा होता है, इसलिए ब्लड बैंक इससे बचते हैं।

 फार्मास्युटिकल क्षेत्र में भारत की ताकत कम नहीं है। दुनिया के कई देशों की तुलना में बहुत कम लागत पर अच्छी क्वालिटी की दवाइयां बनाता है। सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ इंडिया और सिप्ला जैसी कई कंपनियों ने इनोवेशन करने की क्षमता दिखाई है। इन कंपनियों को एनएटी टेस्ट की लागत कम करने की चुनौती दी जानी चाहिए ताकि इसे पूरे देश में लागू किया जा सके।


   इसमें कोई संदेह नहीं है कि देश में रक्त संग्रह, जांच, भंडारण और वितरण के लिए एक सुदृढ़ राष्ट्रीय ढांचे की जरूरत है। इसके लिए हाल ही नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन बिल, 2025,संसद के दोनों सदनों में प्रस्तुत किया गया है। यह प्राइवेट मेंबर बिल है जिसे सांसद पुरुषोत्तमभाई रूपाला ने लोकसभा में और डॉ. अजीत माधवराव गोपछड़े ने राज्यसभा में प्रपोज किया था। इसका उद्देश्य पारदर्शिता बढ़ाना, स्वैच्छिक ब्लड डोनेशन को बढ़ावा देना, नियामक निगरानी तंत्र को मजबूत करने के साथ खून की सुरक्षित, पर्याप्त और विश्वसनीय आपूर्ति सुनिश्चित करना है।


   विधेयक में ब्लड ट्रांसफ्यूजन सेवाओं की केंद्रीकृत निगरानी के लिए एक नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन प्राधिकरण की स्थापना का प्रस्ताव है। यह प्राधिकरण राज्यों के बीच तकनीकी असमानता को कम करना भी होगा। इसमें रक्त और रक्त घटकों के संग्रह, परीक्षण, प्रसंस्करण, भंडारण, वितरण और ब्लड ट्रांसफ्यूजन के लिए समान राष्ट्रीय मानक निर्धारित करने का भी प्रावधान है। इस विधेयक के तहत सभी ब्लड बैंकों का पंजीकरण अनिवार्य करने का प्रावधान है ताकि अनियमित संचालकों और अवैध या असुरक्षित रक्त संग्रह केंद्रों को समाप्त किया जा सके। फेडरेशन आफ इंडियन ब्लड डोनर्स आर्गेनाइजेशन और स्वास्थ्य क्षेत्र में सक्रिय कई एनजीओ ने भले ही इस विधेयक को लेकर उत्साह दिखाया हो लेकिन इसका पारित होना आसान नहीं है।

 असल बात यह है कि देश में स्वास्थ्य का मुद्दा अब भी प्राथमिकता नहीं बन पाया है। इसके बावजूद नेशनल ब्लड ट्रांसफ्यूजन बिल, 2025 ने इस गंभीर मुद्दे की तरफ ध्यान आकर्षित किया है। समस्याओं के समाधान के लिए नियम—कानून जरूर बनाए जाने चाहिए, लेकिन इनके क्रियान्वयन के मामले में गंभीरता भी जरूरी है। अभी तो हालत यह है कि रक्त चढ़ाने के दौरान सामान्य सावधानी बरतने में भी लापरवाही के मामले सामने आ रहे हैं।  

ज्ञान चंद पाटनी