तिल का ताड़ क्यों बना देता है मीडिया

यूं तो इल्क्ट्रानिक मिडिया ने जब से समाचार विज्ञापन, खेल जगत, कला और सिनेमा क्षेत्र में अधिकार जमाया है तभी से सारे विश्व में क्रांति आ गई है।जहां पहले समाचार भेजने का साधन टेलीप्रिंटर टेलीफोन अथवा डाक तक ही सीमित था और बहुत अधिक समय लगता था आज विश्व के किसी भी कोने में समाचार पल भर में ही प्राप्त हो जाते हैं छोटे से छोटा गांव भी आज इंटरनेट की सुविधा होने से अखिल विश्व से जुड़ गया है।

इलेक्ट्रानिक मीडिया ने साहसपूर्ण कदम उठाते हुये बड़े बड़े घुटालों का भंडाफोड़ किया है।भ्रष्ट राजनेताओं को सबके सामने लाकर उन्हें जेल भॆजवाने में मीडिया की भारी भुमिका रही है।प्रशासनिक अधिकारियों के गोपनीय भ्रष्टक्रिया कलापों को और गोपनीय तथ्यों को बाहर लाकर और सार्वजनिक कर देश हित और जनहित्त में वीरोचित काम किया है। पुलिस की बर्बर्ता रिश्वत लेते हुये नेता अधिकारी और कर्मचारिओं को केमरे में कैद कर सारी दुनिया को अपनी सार्थकथा का परिचय दिया है। दूसरी ओराअतंकी हमलों के समय जान लेवा गोलावारी और बंबबारी के बीच निर्भीक होकर जान जोखिम में डालकर लोगों को लाईव टेलीकास्ट दिखया है। नई पीढ़ी का यह जोखिम भरा जज्बा प्रणम्य है। जब‌ 24 से 36 घंटे तक लगातार समाचार चेनलों पर डटे समाचार वाचक बिना थके अविरल लोगों को पल पल के समाचार पहुंचाते हैं तो वे श्रद्धा के पात्र हो जाते हैं और सम्मान्नीय भी हो जाते हैं। अन्ना हज़ारे के आंदोलन का कवरेज हो या मुंबई पर आतंकवादी हमले का आंखोंदॆखा हाल हो अपने स्वास्थ्य और जान की परवाह किये बगैर मीडिया ने अनवरत समाचार पहुंचाये हैं। परंतु इसका दूसरा नकारात्मक पहलु भी है जो छोटी छोटी बातों का व्यर्थ में तूल देकर वाद विवाद बढ़ाकर लोगोंकी छवि बिगाड़ने का प्रयास करता दिखाई देता है।जिसमें राजनेताओं के पीछे पड़ने और उनके व्यक्तिगत जीवन में झाकनें की बेहूता हरकतें शामिल हैं।यह ठीक है कि राजनेता सार्वजनिक जीव होते हैं और उनसे साफ सुथरे व्यव‌हार जीवन की आशा की जाती है किंतु आखिर वे भी तो इंसान हैं गल्तियां उनसे भी हो सकतीं हैं।आम आदमी की तरह उन्हें भी जीने का अधिकार है।यह बात तो ठीक है कि सार्वजनिक जीते हुये संभल कर कदम रखना चाहिये,ऐसे कोई काम न करें जिससे जनता में बेइज्जत होना पड़े।परंतु मीडिया को भी बहुत छोटी छोटी बातों को नज़र अंदाज़ करना चाहिये।आज़कल विरोधियों को दूसरे की छीछा

लेदरी करने में बड़ा आनंद आता है और वे मौका तलाशते रहते हैं फिर बाल की खाल निकालते रहते हैं।अपमान करने के लिये नये नये शगूफे छोड़ते रहते हैं। विगत दिनों बिछुआ ब्लाक के ग्राम खमरा में शहरी विकास मंत्री के एक कार्यक्रम में जिसकी अध्यक्षता जिले के प्रभारी मंत्री कर रहे थे के जूतों के फीते खुल गये थे जिन्हें एक बच्चे ने बांध दिया था फिर क्या था जैसे तूफान ही आगया हो।मंत्रीजी पर कांग्रेसियों ने आरोप जड़ दिये की उन्होंने एक आदिवासी का अपमान करसंपूर्ण आदिवासी कौम का अपमान कर दिया है।प्रदेश देश के के बड़े बड़े नेता बयानबाजी पर उतर आये।मीडिया ने बार बार लड़के को मंत्री के जूते में फीते बांधते दिखाया।बेबकूफी की पराकाष्ठा थी यह।हालाकि मंत्रीजी ने अपना अपराध स्वीकार कर माफी मांग ली।उन्होंने यह भी स्पष्ट कर दिया कि जिस लड़के ने फीते बांधे थे वह आदिवासी नहीं है बल्कि उन्हीं के क्षेत्र बालाघाट का और उन्हीं की जाति पिछड़ी जाति का है जो अन्य बच्चों के साथ कार्यक्रम देखने चला आया था।मंत्रीजी की बाय पास सर्जरी हुई है और हार्निया की तकलीफ है यह जानते हुये जब उनके जूतों के फीते खुल गये तो बच्चे ने खुद ही फीते बाँध दिये।वैसे भी यह इंसानियत का तगादा ही ही था कि किसी बीमारस् की सहायता की जाये।अदि कोई बालक किसी बुज़ुर्ग की कोई सहायता करता है तो अपना फर्ज़ अदा कर रहा होता है इसे अपमान बताना कोरी मूर्खता के सिवाय क्या हो सकता है। मध्यप्रदेश के कांग्रेस अध्यक्ष‌ ने तो बड़ी जोरों से मामले को तूल दे दिया।यह कोई अपराध नहीं था।मंत्रीजी ने लड़के का नाम शुभम उर्फ छोटू पिता रविशंकर पेठेकर बताया है।बेटा यदि बाप के जूतों में पालिश कर दे अथवा कोई बच्चा किसी बुज़ुर्ग की गिरी हुई लाठी हाथ में दे दे तो उस बच्चे का अपमान नहीं हो जाता।गनीमत है उन दिनों इलेक्ट्रानिक मीडिया नहीं था जब संजय गांधी के जूते एक कांग्रेसी नेता नॆ अपने हाथ में उठा लिये थे।फिर भी लोगों ने तूल दिया था।राजीव गांधी ने जबलपुर प्रवास के दौरान प्रोटोकाल तोड़कर सड़क पर खड़े एक ठेले से गन्ने का रस लेकर पी लिया था।राजनेता कितना भी बड़ा क्यों न हो वह भी आम आदमी की जिंदगी जीकर देखना चाहता है। और यही जीवन का आनंद भी है।इसको मीडिया अनावश्यक रूप से उछाले यह तो कतई शोभा नहीं देता। ऐसा मौका आया की अपनी टू व्हीलर से जाते हुये मेरी चप्पल नीचे सड़क पर गिर गई।मैंने उसे उठाने के लिये वाहन से नीचे उतरना चाहा तभी पीछे से आते हुये बालकों ने”आप मत उतरिये अंकलजी हम चप्प्ल लाते हैं”कहकर चप्पल उठाकर मुझे दे दी।

यह तो इंसानियत का तगादा है कि बड़ों को सम्मान दिया जाये,उन्हें मदद दी जाये।यदि मैं कहीं सार्वजनिक जीवन में होता तॊ क्या चप्प्ल उठाने वाला मामला तूल नहीं पकड़ जाता?एक ओर जहां मीडिया काबिले तारीफ काम कर आम जनों के बीच शॊहरत बटोर रहा है वहीं दूसरी ओर इस तरह के घटिया काम कर बदनामी भी मोल लेता है। उसे ऐसे कामों से बचना ही चाहिये।

 

6 COMMENTS

  1. जिस तरह से सिक्के के दो पहलू होते हैं उसी तरह से मीडिया भी है. सारा समाज इसी तरह चल रहा है. जो बिकता है वही दीखता है. सुधार होना चाहिए पर सबमे होगा अकेले मीडिया से आशा करना ठीक नहीं है.

  2. आपने कई मुद्दों पर बेहतर प्रकाश डाला है. कितनी अजीब बात है कि भारतीय मीडिया के दागदार चहरे प्रणव जेम्स राय, बरखा दत्त, प्रभु चावला और राजदीप सरदेसाई आदि बड़े-बड़े ओहदों पर काबिज हैं.
    आज भारतीय मीडिया खासकर इलेक्ट्रोनिक और सेकुलर मीडिया एक निरंकुश सांड की तरह है. जो अपने फायदे और मर्जी से अनर्गल ढंग से पत्रकारिता कर रहा है.
    नतीजन समाज में पत्रकारिता और मीडिया की साख तेजी से गिर रही है.
    हैरत होती है कि क्या इन पर नकेल कसने के लिए कोइ संस्थान या कानूनी व्यवस्था है भी या नहीं??

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