कमलेश पांडेय
देश के शिक्षण संस्थानों में छात्र-छात्राओं (स्टूडेंट्स) की आत्महत्या और उनमें बढ़ती मानसिक स्वास्थ्य (मेंटल हेल्थ) की समस्याओं पर माननीय सर्वोच्च न्यायालय (सुप्रीम कोर्ट) ने शुक्रवार को जो चिंता जताई है, वह अकारण नहीं है बल्कि इसके पीछे उन हजारों परिवारों और लाखों लोगों की बेदना छिपी हुई है जो ऐसे मामलों में अपने परिजनों को गंवा चुके है। इन घटनाओं में कोई बचपन में ही अनाथ हो गया तो कोई बुढ़ापे में बेसहारा। इसलिए सुलगता हुआ सवाल है कि क्या छात्र-छात्राओं की खुदकुशी पर सुप्रीम कोर्ट की चिंता से शिथिल प्रशासनिक मिशनरी में कोई नई हलचल पैदा होगी? या फिर उसकी यह पहलकदमी भी नक्कारखाने में तूती की आवाज मानिंद दबी रह जायेगी।
बता दें कि ऐसा बिल्कुल नहीं कि केंद्र व राज्य सरकारें इन घटनाओं से अनजान हैं, बल्कि उसने तो 1960 के दशक में ही इन मामलों में संजीदगी दिखाई और राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 1966 से ही भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या (एडीएसआई) रिपोर्ट जारी करनी शुरू कर दिए। ततपश्चात आत्महत्या के कारणों और उससे बचने के उपायों पर ब्रेक के बाद आत्ममंथन किया गया लेकिन परिणाम ढाक के तीन पात निकले और देश में आत्महत्या के मामलों में हाल के वर्षों में अप्रत्याशित बढ़ोतरी दर्ज की गई है।
यही वजह है कि गत दिनों माननीय सर्वोच्च न्यायालय को यह कहना पड़ा कि आत्महत्या की रोकथाम के लिए देश में कोई माकूल कानून नहीं है। बहरहाल इसे देखते हुए कोर्ट ने 15 गाइडलाइंस जारी की जो तब तक पूरे देश में लागू और बाध्यकारी होंगी, जब तक कि कोई स्पष्ट व पारदर्शी कानून इस बारे में नहीं बन जाता है। कोर्ट के मुताबिक, ये दिशा निर्देश (गाइडलाइंस) सभी सरकारी, सार्वजनिक व प्राइवेट स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों, प्रशिक्षण और कोचिंग संस्थानों और छात्रावासों (हॉस्टलों) पर लागू होंगी, चाहे वे किसी भी बोर्ड/विश्वविद्यालय से संबद्ध हों।
उल्लेखनीय है कि सुप्रीम कोर्ट ने नीट (NEET) की तैयारी कर रही 17 वर्षीय छात्रा की संदिग्ध हालत में मौत के मामले में सुनवाई करते हुए ये गाइडलाइंस जारी की। साथ ही, छात्रा की मौत की सीबीआई से जांच कराने का भी आदेश दिया है। कोर्ट का यह कहना सही है कि जब तक तत्सम्बन्धी कानून नहीं बनेंगे, तब तक उसके नए दिशानिर्देश लागू रहेंगे। इसके अलावा मेंटल हेल्थ नीति भी सबके लिए बनानी होगी। उसने दो टूक कहा कि सभी शिक्षण संस्थान यूनिफॉर्म मेंटल हेल्थ पॉलिसी अपनाएंगे और इसे अपने सूचना पट और वेबसाइट पर जारी करेगे। इसके अलावा,
एक सौ से अधिक (100+) छात्रों वाले संस्थानो में मेंटल हेल्थ प्रफेशनल जैसे- ट्रेड काउंसलर, सायकायट्रिस्ट को रखना होगा। इसके लिए वे दक्ष प्रफेशनल नियुक्त करें।
इन्हें स्टूडेंट-काउंसलर अनुपात का भी ध्यान रखना होगा यानी इनके यहां छोटे छोटे बैचों में समर्पित काउंसलर नियुक्त हो, जिनसे एग्जाम में सहयोग मिल सके। वहीं,
सुरक्षा उपाय भी करने होंगे जिसके तहत हॉस्टल की छतों, बालकनी और पंखों जैसी जगहों पर सुरक्षा उपकरण लगाने होंगे। कोर्ट ने यह भी निर्देश दिया है कि कोचिंग सहित सभी संस्थान अव्यवहारिक बैच विभाजन नहीं करें, खासकर प्रदर्शन के आधार पर। कहने का तातपर्य यह कि सभी संस्थान प्रदर्शन के आधार पर छात्रों को अलग अलग बैच में डालने से बचें क्योंकि इससे छात्रों में कुंठा की भावना पैदा होती है।
इसके अलावा, कोर्ट ने किसी भी तरह के उत्पीड़न पर कठोर रुख अपनाया है और जाति, लिंग, धर्म, दिव्यांगता, की शिकायत का मेकेनिजम बनाने का निर्देश दिया है। खासकर यौन आधार पर उत्पीड़न के प्रयासों पर त्वरित संजीदगी दिखाने को कहा है। कोर्ट ने इमरजेंसी में हेल्प प्रदान करने की भी बात कही है और संस्थानों में अस्पताल, हेल्पलाइनों के नंबर स्पष्ट अक्षरों में प्रदर्शित किए जाने के निर्देश दिए हैं। वहीं, सभी संस्थाओं के स्टाफ ट्रेनिंग पर जोर देते हुए सुझाव दिया है कि कर्मचारियों को साल में कम से कम दो बार ट्रेंड मेंटल हेल्थ प्रफेशनल से ट्रेनिंग दी जाए।
इसके अलावा, अभिभावकों (पैरंट्स) में भी जागरूकता लायी जाए। इस नजरिए से माता-पिता के लिए जागरूकता सेशन करें और उन्हें बच्चों में अत्यधिक प्रेशर न डालने को कहें। यदि यह सबकुछ कर लिया गया तो निःसन्देह ऐसी अप्रत्याशित घटनाएं रोकी जा सकती हैं।
गौरतलब है कि राष्ट्रीय अपराध रिकॉर्ड ब्यूरो (एनसीआरबी) ने वर्ष 2022 के लिए भारत में आकस्मिक मृत्यु और आत्महत्या (एडीएसआई) रिपोर्ट जारी की थी जिससे जुड़ी एडीएसआई रिपोर्ट ही आत्महत्या से होने वाली मौतों पर देश में एकमात्र सार्वजनिक रूप से उपलब्ध डेटासेट है। बताते चलें कि 1966 में पहली बार प्रकाशित एडीएसआई ( ADSI ) की रिपोर्ट के बाद से आत्महत्या की दर में नाटकीय वृद्धि देखी गई है। साल 2022 में तो आत्महत्या की दर 2021 से 4.2% बढ़कर 08 से 12.2 प्रतिशत 100,000 जनसंख्या (1,64,033 से 1,70,924) हो गई, जो 56 वर्षों में दर्ज की गई सर्वाधिक उच्चतम दर है।
इसी वर्ष यानी 2022 में ही भारत सरकार ने राष्ट्रीय आत्महत्या रोकथाम रणनीति शुरू की, जो आत्महत्या रोकथाम के लिए एक देशव्यापी दृष्टिकोण को स्पष्ट करने की दिशा में एक सराहनीय कदम है। इस रणनीति में 2020 के आधार वर्ष की तुलना में आत्महत्या से होने वाली मौतों में 10% की कमी लाने का स्पष्ट लक्ष्य रखा गया है। हालाँकि, दर में तीव्र वृद्धि से इस लक्ष्य को प्राप्त करने में अंतर बढ़ गया है।
इस वर्ष के आंकड़ों से कुछ उल्लेखनीय अवलोकन से पता चलता है कि आत्महत्या के पीछे उम्र, क्षेत्र और पेशे भी कारक बन रहे हैं, इसलिए छात्र जीवन से ही इन पर ध्यान दिए जाने की जरूरत है। जहां तक आत्महत्या और उम्र का सवाल है तो आंकड़े इस बात की चुगली करते हैं कि सभी आयु समूहों में आत्महत्या की दर औसतन 5 प्रतिशत बढ़ी है। वहीं,18 वर्ष से कम आयु के युवाओं को छोड़कर, जिनकी आत्महत्या दर में मामूली गिरावट देखी गई।
वहीं, 2022 में कुल आत्महत्याओं में 18-30 वर्ष की आयु के युवा वयस्कों की हिस्सेदारी 35 प्रतिशत थी, जो सबसे बड़ी हिस्सेदारी थी। इसके बाद 30 से 45 वर्ष की आयु के वयस्कों का स्थान था, जिनकी हिस्सेदारी कुल आत्महत्याओं के अनुपात में 32 प्रतिशत थी। जबकि देश में आत्महत्या से होने वाली मौतों में दोनों आयु समूहों का संयुक्त योगदान 67 प्रतिशत है।
वहीं, आत्महत्या और भूगोल यानी क्षेत्र का भी गहरा सम्बन्ध है। इसलिए देश भर में आत्महत्या की दर में काफी भिन्नता है। जहां बिहार में यह दर प्रति 100,000 जनसंख्या पर 0.6 है तो यह सिक्किम में प्रति 100,000 जनसंख्या पर 43.1 तक पहुंच चुका है। यह भिन्नता महत्वपूर्ण थी और छोटे राज्यों या केंद्र शासित प्रदेशों में सबसे अधिक स्पष्ट थी जहां जनसंख्या कम है जिसके परिणामस्वरूप रिपोर्ट की गई दरें अधिक थीं।
वहीं, भौगोलिक दृष्टि से बड़े और अधिक जनसंख्या वाले राज्यों में केरल में प्रति 100,000 जनसंख्या पर 28.5 की दर सबसे अधिक थी, उसके बाद छत्तीसगढ़ में 28.2 और फिर तेलंगाना में 26.2 थी। वहीं, महाराष्ट्र, तमिलनाडु और मध्य प्रदेश, जो पूर्ण संख्या के आधार पर शीर्ष तीन राज्य हैं, सामूहिक रूप से देश में होने वाली सभी आत्महत्याओं का एक तिहाई हिस्सा हैं और इनकी आत्महत्या दर क्रमशः 18.1, 25.9 और 17.9 है।
इसप्रकार, आत्महत्या में सबसे ज़्यादा वृद्धि मिज़ोरम में हुई जहाँ 2021 और 2022 के बीच आत्महत्याओं में 54.5 प्रतिशत की वृद्धि हुई। पूर्वोत्तर में पड़ोसी राज्य मणिपुर में सबसे ज़्यादा 47 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई। छोटे राज्यों में आत्महत्याओं की कुल संख्या में काफ़ी अंतर होने की संभावना है। वहीं, बड़े राज्यों में, हिमाचल प्रदेश में आत्महत्याओं की रिपोर्ट में उल्लेखनीय गिरावट आई है, जो 2021 और 2022 के बीच 28 प्रतिशत कम हो गई है। बिहार, पश्चिम बंगाल और पंजाब में भी आत्महत्याओं में क्रमशः 15 प्रतिशत, 6.2 प्रतिशत और 6.1 प्रतिशत की गिरावट दर्ज की गई है।
जबकि, आत्महत्याओं में सबसे ज़्यादा वृद्धि उत्तर प्रदेश में देखी गई, जो एक घनी आबादी वाला राज्य है, जहाँ आत्महत्याओं में 38 प्रतिशत की वृद्धि हुई। तीसरी सबसे ज़्यादा वृद्धि जम्मू-कश्मीर में हुई, जहाँ यह वृद्धि 31 प्रतिशत रही, उसके बाद झारखंड में 19.5 प्रतिशत रही।
जहां तक आत्महत्या के बताए गए कारण का सवाल है तो यह कहना उचित होगा कि आत्महत्याएँ किसी एक कारण से नहीं होतीं। और न ही ये सामाजिक, सांस्कृतिक, व्यवस्थागत और आर्थिक कारकों से अलग, शून्य में होती हैं। जबकि आत्महत्या पर एनसीआरबी की रिपोर्टें भ्रामक रूप से मौतों का एक ही कारण बताती हैं। लगभग 75 प्रतिशत आत्महत्याएं निम्नलिखित कारणों से होती हैं।
पारिवारिक समस्याएं और शारीरिक तथा मानसिक स्वास्थ्य की स्थिति के कारण उत्पन्न संकट, आत्महत्या के सभी कारणों में से 50 प्रतिशत से अधिक के लिए जिम्मेदार हैं। विवाह और रिश्तों से जुड़ी चिंताओं को मिलाकर मृत्यु का तीसरा कारण बताया गया। यह उन कुछ कारणों में से एक था जहाँ पुरुषों में आत्महत्या से होने वाली मौतों की संख्या महिलाओं में आत्महत्या से होने वाली मौतों के लगभग बराबर थी। और दहेज संबंधी कारणों से, महिलाओं में आत्महत्या से होने वाली मौतें पुरुषों से ज़्यादा थीं।
वहीं, शराब और मादक पदार्थों का सेवन तथा आर्थिक और वित्तीय असुरक्षा (ऋण, गरीबी और बेरोजगारी) दोनों ही आत्महत्या से होने वाली 14 प्रतिशत मौतों का कारण थे। चिंताजनक बात यह है कि शराब और मादक पदार्थों के सेवन के कारण आत्महत्या से होने वाली मौतों में 2021 से 2022 तक सबसे अधिक वृद्धि देखी गई, जो 10 प्रतिशत तक बढ़ गई।
जहां तक आत्महत्या और व्यवसाय के सम्बन्धों का सवाल है तो आंकड़े बताते हैं कि इनका भी इससे गहरा सम्बन्ध है।एनसीआरबी आत्महत्या से मरने वाले लोगों के पेशे पर रिपोर्ट करता है। सभी आत्महत्याओं में से लगभग 77 प्रतिशत छह पेशेवर श्रेणियों में होती हैं। पिछले साल की तरह, इस साल भी आत्महत्या से होने वाली सभी मौतों में एक-चौथाई से ज़्यादा हिस्सा दिहाड़ी मज़दूरों का है, जो पिछले साल से 8 प्रतिशत ज़्यादा है।
एनसीआरबी द्वारा गृहिणियों को दूसरे सबसे ऊंचे वर्ग में वर्गीकृत किया गया था। इस व्यापक समूह में कुल आत्महत्याओं का 15 प्रतिशत हिस्सा था और 2021 से 2022 तक इसमें 9 प्रतिशत की सबसे बड़ी वृद्धि भी देखी गई। वहीं, स्व-रोज़गार करने वालों में आत्महत्या की दर कुल आत्महत्याओं की संख्या का 11 प्रतिशत थी जो तीसरे स्थान पर थी, उसके बाद वेतनभोगी लोगों में यह दर 10 प्रतिशत थी। वेतन पाने वालों में आत्महत्या की दर पिछले वर्ष की तुलना में 3 प्रतिशत बढ़ी। वहीं, कुल आत्महत्याओं में बेरोजगार लोगों और छात्रों दोनों की हिस्सेदारी 8 प्रतिशत थी।
इस प्रकार साल 2022 में भारत में आत्महत्या की दर एक नए शिखर पर पहुँच गई। वहीं, वर्ष 2024 में भी आत्महत्या की घटनाओं में वृद्धि हुई। इस साल हुई कुल 1388 मौतों में 612 आत्महत्या की घटनाएं हुई हैं। जबकि इससे एक साल पहले भी 515 आत्महत्या की घटनाएं हुईं थीं। इससे पूरे देश में फैली इस मानसिक महामारी की जटिल स्थिति का अंदाजा सहज ही लगाया जा सकता है। इस बात में कोई दो राय नहीं कि आत्महत्या के कारण मानसिक स्वास्थ्य, पारिवारिक तनाव, आर्थिक समस्याएं और सामाजिक दबाव हैं। इसलिए देश में आत्महत्या की घटनाओं में भी बड़ी वृद्धि देखने को मिली है।
यह कड़वा सच है कि यदि इस समय कोई तत्काल और ठोस कार्रवाई नहीं की गई, तो यह दर और भी ज़्यादा बढ़ने की आशंका है। इसलिए एक समर्पित आत्महत्या रोकथाम रणनीति सही दिशा में एक कदम है। लेकिन जैसा कि आंकड़े दर्शाते हैं, वास्तविक बदलाव लाने के लिए राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों में हस्तक्षेप की आवश्यकता है। ऐसे हस्तक्षेप प्रत्येक क्षेत्र के विशिष्ट संदर्भ के अनुरूप होने चाहिए, व्यापक उप-राष्ट्रीय योजनाओं की आवश्यकता होनी चाहिए और महत्वपूर्ण प्रणालीगत, सामुदायिक, पारस्परिक और सामाजिक गतिशीलता को संबोधित करने के लिए विभिन्न क्षेत्रों और हितधारकों की भागीदारी की आवश्यकता होनी चाहिए। तब तक, एनएसपीएस के अंतर्गत निर्धारित लक्ष्य को पूरा करना एक दूरगामी लक्ष्य बना रहेगा। इसलिए माननीय सर्वोच्च न्यायालय ने सटीक समय पर अपनी टिप्पणी की और नए दिशानिर्देश जारी किए। इससे उम्मीद है कि शिथिल प्रशासनिक मिशनरी में गति आएगी।
कमलेश पांडेय