कविता

तुम्हें क्या जरूरत है पढ़ने की

तुम्हें क्या जरूरत है पढ़ने की

तुम तो एक सुंदर स्त्री हो

पढ़ने दो उसे जो करना चाहता है विवाह तुमसे

स्त्रियों को पढ़ना नहीं चाहिए
इससे व्यवस्था दूषित होती है

हम पुरुषों को सम्मान करना पड़ जाता है तुम्हारा

बीच बाजार पढ़ी लिखी औरतों को मेम साहब बुलाना पड़ जाता है

भीड़ में नहीं फेंर पाते हम तुम्हारी कमर, कुल्हो या नाभि पर हाथ

धक्का-मुक्की में तुम्हारी छातियों को छूने से डरते हैं

बुलाकर कहीं, पकड़कर केश, पटककर बिस्तर पर

तुम्हारी सलवार का नाडा जबरन खोल नहीं पाते

तुम्हें बहलाना फुसलाना नामुमकिन हो जाता है

नामुमकिन हो जाता है तुम्हारा समर्पण

तुम कांटो से ऊनी कपड़े छोड़कर
बुनने लगती हो सपने

तुम पिघलाकर परंपराओं की सलाखें
आजाद हो जाती हो

तुम जब आकर खड़ी होती हो
हम पुरुषों के बराबर

तो हम खुद को बहुत बोना पाते हैं

तुम नहीं रह जाती केवल उपभोगी
तुम उपयोगी हो जाती हो

तुम्हें समझना चाहिए तुम्हारे अधिकार नहीं है

मगर जब तुम मांग करती हो ,
जब तुम लड़ती हो इसके लिए

तब हमें अपने अधिकार साझा करने पड़ जाते हैं तुम्हारे साथ

और इस साझेदारी में हम खुद को कमजोर पाते हैं

तुम पढ़ कर समझ जाती हो
तुम्हारे लिए बने नियमों में कोई तुक नहीं है

तुम जान जाती हो योनि और इज्जत के झूठे रहस्य को

तुम हमेशा से हम से आगे थी ,
थी हम से बेहतर

पढ़ी लिखी औरतों को मर्द नहीं चुन पाते

मर्दों को चुनती है औरतें जो पढ़ लिख जाती हैं

पुरुषों की सर्वोच्च अस्मिता के लिए स्त्रियों को नहीं पढ़ना चाहिए

यह सब कुछ जानने के बाद भी क्या तुम पढ़ना चाहती हो?