महिलाओं को ही करने होंगे खुद के सम्मान के प्रयास

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बी.पी.गौतम

सृष्टि का विस्तार हुआ, तो पहले स्त्री आई और बाद में पुरुष। सर्वाधिक सम्मान देने का अवसर आया, तो मां के रूप में एक स्त्री को ही सर्वाधिक सम्मान दिया गया। ईश्वर का कोई रूप नहीं होता, पर जब ईश्वर की आराधना की गयी, तो ईश्वर को भी पहले स्त्री ही माना, तभी कहा गया त्वमेव माता, बाद में च पिता त्वमेव। सुर-असुर में अमृत को लेकर विवाद उत्पन्न हो गया, तो श्रीहरि को स्त्री का ही रूप धारण कर आना पड़ा और उन्होंने अपने तरीके से विवाद समाप्त कर दिया, मतलब घोर संकट की घड़ी में स्त्री रूप ही काम आया। देवताओं को मनोरंजन की आवश्यकता महसूस हुई, तो भी उनके मन में मेनका व उर्वशी जैसी स्त्रीयों की ही आकृति उभरी। रामायण काल में गलती लक्ष्मण ने की, पर रावण उठा कर सीता को ले गया, क्योंकि स्त्री प्रारंभ से ही प्रतिष्ठा का विषय रही है, इसी तरह महाभारत काल में द्रोपदी के व्यंग्य को लेकर दुर्योधन ने शपथ ली और द्रोपदी की शपथ को लेकर पांडवों ने अपनी संपूर्ण शक्ति लगा दी, जिसका परिणाम या दुष्परिणाम सबको पता ही है, इसी तरह धरती की उपयोगिता समझ में आने पर, धरती को सम्मान देने की बारी आई, तो उसे भी स्त्री (मां) माना गया। भाषा को सम्मान दिया गया, तो उसे भी स्त्री (मात्र भाषा) माना गया। आशय यही है कि सृष्टि के प्रारंभ से ही देवता और पुरुष, दोनों के लिए ही स्त्री महत्वपूर्ण रही है। स्त्री के बिना जीवन की कल्पना तक नहीं की जा सकती। मां, पत्नी, बहन या किसी भी भूमिका में एक स्त्री का किसी भी पुरुष के जीवन में महत्वपूर्ण स्थान होता है। बात पूजा करने की हो या मनोरंजन की, ध्यान में पहली आकृति एक स्त्री की ही उभरती है, इसलिए विकल्प स्त्री को ही चुनना होगा कि वह किस तरह के विचारों में आना पसंद करेगी। वह लक्ष्मी, सरस्वती, पार्वती, सीता, अनसुइया, दुर्गा, काली की तरह सम्मान चाहती है या मुन्नी की बदनामी और शीला की जवानी पर थिरकते हुए मनोरंजन का साधन मात्र बन कर रहना चाहती है।

पाश्चात्य संस्कृति से प्रभावित पढ़ी-लिखी या इक्कीसवीं सदी की अति बुद्धिमान स्त्रीयों को यह भ्रम ही है कि उनके किसी तरह के क्रियाकलाप से पुरुष को कोई आपत्ति होती है। पुरुष को न कोई आपत्ति थी और न है, क्योंकि उसका तो स्वभाव ही मनोरंजन है, वह तो चाहेगा ही कि ऐसी स्त्रीयों की भरमार हो, जो उसे आनंद देती रहें, मदहोश कर सकें। खैर, समस्या यह है कि विचार और व्यवहार से स्त्री पाश्चात्य संस्कृति को आत्मसात करना चाहती है और बदले में पुरुष से प्राचीन काल की भारतीय स्त्री जैसा सम्मान चाहती है। परंपरा और संस्कृति से भटकी आज की स्त्री चाहती है कि शॉर्ट टी शर्ट और कैपरी में लच्छेदार बाल उड़ाते हुए तितली की तरह उड़ती फिरे, तो उस पर कोई किसी तरह का अंकुश न लगाये। पुरुषों जैसे ही वह हर दुष्कर्म करे। सिगरेट में कश लगाये, बार में जाये और देर रात तक मस्ती करे, लेकिन पुरुष बदले में सावित्री जैसा सम्मान भी दे। क्या यह संभव है?

धार्मिक सिद्धांतों व नीतियों का दायरा पूरी तरह समाप्त हो गया है और अब हम लोकतांत्रिक प्रणाली के दायरे में रह रहे हैं, जहां सभी को समानता का अधिकार मिला हुआ है, जिससे स्त्री या पुरुष अपने अनुसार जीवन जीने को स्वतंत्र हैं, पर स्त्रीयों को यह विचार करना ही चाहिए कि इस स्वतंत्रता ने उन्हें क्या से क्या बना दिया? सम्मान की प्रतीक स्त्री आज सिर्फ भोग का साधन मात्र बन कर रह गयी है, जिसका सर्वश्रेष्ठ उदाहरण विज्ञापन कहे जा सकते हैं। आवश्यकता नहीं है, तो भी प्रत्येक विज्ञापन में अर्धनग्न स्त्री नजर आ ही जाती है, क्योंकि उसे ही कोई आपत्ति नहीं है और वह भी स्वयं को ऐसे ही दिखाना चाहती है, तो एक पुरुष जब उस स्थिति में आपको देख रहा है या भोग रहा है, तो आपके बारे में मानसिकता भी वैसी बन ही जायेगी, इसीलिए स्त्री का सम्मान घट रहा है और निरंतर घटता ही रहेगा, तभी सृष्टि के प्रारंभ में ही स्त्री के लिए सामाजिक स्तर पर नीतियों और सिद्धांतों का कठोर दायरा बनाया गया था, क्योंकि स्त्री जितनी श्रेष्ठ विचारों वाली होगी, उसके संपर्क वाला पुरुष स्वत: ही श्रेष्ठ विचारों वाला हो जायेगा। यही बात है कि स्त्री के आचरण में समय के साथ जैसे-जैसे परिवर्तन आता गया, वैसे-वैसे पुरुष के विचारों में विकृति आती चली गयी, जो आज सर्वोच्च शिखर की ओर अग्रसर होती नजर आ रही है।

इसलिए अपने सम्मान के साथ अपना अस्तित्व बनाये और बचाये रखने के लिए स्त्री को ही पहल करनी होगी। अपने विचार और आचरण में गुणवत्ता लानी ही होगी, अन्यथा सिर्फ और सिर्फ भोग की एक वस्तु मात्र बन कर रह जायेगी। पुरुष की बात की जाये, तो उसे तो भोगने में सदैव आनंद की अनुभूति हुई है और होती भी रहेगी, क्योंकि उसके विचारों में गुणवत्ता पैदा करने वाली मां अब कम ही दिखाई देती है। इच्छाओं को सीमित करने वाली सुनीति जैसी पत्नी भी चाहिए, पर अधिकांशत: सुरुचि जैसी पत्नियां नजर आने लगी हैं, जिनके संपर्क में आया पुरुष राजा उत्तानपात की तरह ही भटकता जा रहा है और दुष्कर्म को भी शान से कर रहा है। ईमानदारी, सच और न्याय की स्थापना के साथ, अपने स्वाभिमान व अस्तित्व लिए भी स्त्री को परंपरा और संस्कृति की ओर लौटना ही होगा, क्योंकि निरंतर गर्त में जा रहे, इस समाज को अन्य कोई रोक भी नहीं सकता।

दिल्ली में हाल-फिलहाल हुई बलात्कार की घटना और पीड़ित लड़की के निधन को लेकर देश भर में आक्रोश का वातावरण बना हुआ है। व्यवस्था को निर्दोष करार नहीं दिया जा सकता, लेकिन सिर्फ व्यवस्था को ही दोषी ठहराने और व्यवस्था को कोसने से ही कुछ ठीक नहीं होने वाला। महिलाओं को सामाजिक स्थिति मजबूत करने की दिशा में ठोस कदम उठाने होंगे। वस्तु वाली छवि से बाहर निकल कर स्वयं को प्रभावशाली नागरिक बनाना होगा। महिलाओं को भोग की वस्तु बनाए रखने वाले माध्यमों के विरुद्ध महिलाओं को ही आवाज उठानी होगी, क्योंकि पुरुष लिंग भेद मिटाने की दिशा में स्वयं कभी प्रयास नहीं करेगा, इसलिए व्यवस्था और पुरुष प्रधान समाज को कोसने की बजाये, स्वयं के चरित्र निर्माण की दिशा में महिलाओं को ही गंभीरता से कार्य करना होगा। महिलायें स्वयं को वस्तु के दायरे से बाहर निकालने में सफल हो गईं, तो उनकी सामजिक स्थिति में स्वतः सुधार हो जायेगा।

7 COMMENTS

  1. सच कहूं। बुरा न मानिये तो मुझे आपका यहआलेख घीसी पीटी लकीरों परचलता हुआ एक बहुत ही उबाऊ और घटिया प्रयत्न लगा।क्या बात पैदा की है आपने?पुरुष वर्ग को मनमानी करने का सर्वाधिकार प्राप्त है।उसके लिए कर्तव्य कुछ भी नहीं है।उसके लिए कोई आचार संहिता नहीं है।ऐसा क्यों?सब दायित्व केवल नारियों पर ही क्यों?पुरुष वर्ग को क्या अधिकार है कि वह किसी भी नारी को केवल मनोरंजन की वस्तु समझे? यह मानसिकता क्या यह नहीं दर्शाता कि एक की माँ या बहन दूसरे के लिए केवल भोग या मनोरंजन की वस्तु सिद्ध होगी।पहनावे में तो विभिन्नता रहेगी ही। नारी के पहनावे को स्कूल यूनिफार्म का रूप तो नहें दिया जा सकता।इन हालातों में कौन इस बात का निर्णय कौन करेगा कि उसका मानक क्या होना चाहिए?आवश्यकता है,पुरुषों की मानसिकता बदलने की,नारी को इस बदले हुए आधुनिक रूप को पहचानने की और उसको उसी रूप में स्वीकार करने की।अगर आज अपनी अनपढ़ माँ को अपने स्नातकोतर बहन या बेटी में ढूंढेंगे और वहां उसे अलग देखकर मनोरंजन की वस्तु समझने की भूल कर बैठेंगे तो यह हमारी बीमार और दकियानूसी मानसिकता के अतिरिक्त और किस बात का परिचायक होगा?

  2. गौतम जी… मैं तो आपका भक्त हो गया… बहुत अच्छा लिखा है आपने… बहुत जटिल व् पेंच भरी बात, बड़ी सधी हुई सरल भाषा में की है…. मज़ा आ गया..

    साधुवाद

    रवि,
    स्योहारा, बिजनौर (उ० प्र०)

  3. स्त्री खुद को लगातार सशक्त बना रही है इसीलिए उस पर पुरूषों के हमले भी तेज़ हो रहे हैं जैसे गोत्र और जाति व्यवस्था को चुनौती देने पर खाप पंचायतें तालिबानी फरमान सुना रही हैं.

  4. गौतम जी का आलेख अन्य संघर्षवादी आलेखों से अलग पहचान रखता है। आप लेखक ही नहीं चिंतक भी प्रतीत होते हैं।
    निम्न, श्री माँ के विचार उसी में जोड दीजिए।
    ====>
    श्रींमाँ: (संदर्भ श्री मातृवाणी:)अरविंदाश्रम पॉंडिचेरी (श्री अरविंद सोसायटी) कहती हैं:

    ” जबतक कि स्त्रियां अपने-आपको स्वतंत्र न करें तबतक कोई कानून उन्हें स्वतंत्र नहीं कर सकता।
    कौन-सी चीज है, जो उन्हें दासी बनाती है?
    १-पुरुष और उसके बलके प्रति आकर्षण,
    २-घरेलू जीवन और सुरक्षा की कामना,
    ३-मातृत्व के लिए आसक्ति।
    यदि स्त्रियां इन तीन दासताओं से मुक्त हो सकें तो वे सचमुच पुरुषों के बराबर हो जाएंगी।
    पुरुष की भी तीन दासताएं है:
    १- स्वामित्व की भावना, शक्ति और आधिपत्य के लिए आसक्ति,
    २-नारी के साथ लैगिक संबंध की इच्छा,
    ३-विवाहित जीवन की छोटी-मोटी सुविधाओं के लिए आसक्ति।
    यदि पुरुष इन तीन दासताओं से मुक्ति पा लें, तो वे सचमुच स्त्रियों के बराबर हो जाएंगे।
    श्रींमाँ: (संदर्भ श्री मातृवाणी:)अरविंदाश्रम पॉंडिचेरी (श्री अरविंद सोसायटी)”

    • किसी को किसी से स्वतंत्र होने का सवाल नहीं है. पुरषार्थ- से पुरुष की पहचान होती है, नारीत्व -से नारी की पहचान होती है, प्रकृति के दोनों विपरीत किन्तु पूरक अवयव हैं. दोनों के बेहतरीन संस्कार-सम्पन्न होने पर ही सभ्य समाज का और सुसभ्य राष्ट्र का निर्माण किया जा सकता है.

      • सही कहा, तिवारी जी.
        कभी कभी “रिडक्षियो एड्‌-अब्सर्डम” पद्धति से काम लेना पडता है।
        धन्यवाद।

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