लेख

विश्व विजेता भारत

विश्व की सभ्यताओं का प्रारम्भ अथवा उनका मूल भारतीय संस्कृति में ही मिलता है। यह बात केवल भारत नहीं , विश्व के अनेक विद्वानों ने कहीलिखी है। अतीत काल में भारत में सबसे अधिक प्रचलित भाषा संस्कृत रही है। यूँ तो अनेक बोलियाँ और भाषाएँ सदा ही प्रचालन में रहती आई हैं पर संस्कृत का अखंड अतीत सबसे महत्वपूर्ण है। संस्कृत भाषा के वर्तमान स्वरुप और वैदिक काल के स्वरूप और के काल निर्धारण में मतभेद हो सकते हैं पर इस बात में तो कोई मतभेद नहीं कि भारत के सभी विषयों के मौलिक ग्रन्थ संस्कृत में हैं। विश्व की अधिकाँश भाषाओं की जननी संस्कृत ही है। कहने की आवश्यकता नहीं होनी चाहिए कि भारत की सभी बोलियों और भाषाओं की जननी भी संस्कृत ही है। बहस की बात यह नहीं आम समाज के कितने लोगों की बोल-चाल की भाषा संस्कृत रही। ख़ास बात यह है कि शासन और साहित्य की परिष्कृत भाषा अधिकतर संस्कृत रही। अर्थात भारत का हज़ारों वर्ष का इतिहास और अनंत ज्ञान इसी देव वाणी में सुरक्षित और संरक्षित हुआ।

असीलिये जो दानवी शक्तियां इस देव संस्कृति को मिटाना चाहती हैं, संस्कृत सदा से उनके निशाने पर रही: यह स्वाभाविक है। इस्लामी आक्रमणों के समय तो हर प्रकार के साहित्य को कुफ्र मान कर नष्ट किया गया और लाखों नहीं करोड़ों अमूल्य ग्रन्थ नष्ट हर दिए गए। उसके बाद अंग्रेजों के काल में भारत की संस्कृति के विनाष के अनगिनत प्रयास हुए। बचे-खुचे संस्कृत साहित्य को समाप्त करने के लिए मैक्समुल्लर जैसे अनेक किराए के अधकचरे विद्वानों को पैसा देकर और कट्टरपंथी क्रिश्टी सोच से प्रेरित करके संस्कृत ग्रंथों के विकृत अर्थ करवाए गए। १९४७ के बाद अँगरेज़ मानसिकता के शासकों का इस्तेमाल करके भारत की अस्मिता को समाप्त करने के प्रयास और भी प्रभावी ढंग से चले जो कि आज तक चल रहे हैं। उपरोक्त बातों को सिद्ध करने के लिए अब प्रभूत प्रमाण उपलब्ध हो गये हैं। पर भारत का पढ़ा-लिखा समाज मैकालियन प्रदुषण का इतनी बुरी तरह शिकार बना है कि उसे न तो भारत की गौरव की बात से कोई उत्साह होता है और न कोई प्रेरणा मिलाती है। डा। अब्दुल कलाम जी से लेकर स्वामी विवेकानद तक ने इस पीड़ा को बार-बार प्रकट किया है।

इन बीमार सोच के तथाकथित विद्वानों की उपेक्षा करते हुए मैं यहाँ कुछ प्रेरक उद्धरण भारतीय संस्कृति और संस्कृत भाषा के पक्ष में प्रस्तुत कर रहा हूँ ,जिससे देशभक्त व संस्कृत-संस्कृति भक्त और अधिक प्रोत्साहित व प्रेरित हों।

लारा एलिजाबेथ लिखती हैं , ”विश्व के सारे साहित्य का मूल जानने के लिए संस्कृत भाषा की जानकारी, इस भाषा के महान योगदान का ज्ञान और आधुनिक ग्रंथों से उस भाषा सम्बन्ध में जानना आवश्यक है।सोलोमन के समय में और एलेक्जेंडर के समय में भी संस्कृत बोली जाती थी।”

अर्थात ईसा से १०१५ वर्ष पूर्व भी संसार में संस्कृत भाषा खूब प्रचलित थी। और एक हम हैं जो बौध ग्रंथों के उदहारण से सिद्ध करना चाहते हैं कि बुध और महावीर के काल में भारत में संस्कृत का प्रचालन समाप्त हो गया था। आज के हज़ार साल के बाद भारत के पुरातत्वविदों को आज का अंग्रेजी साहित्य मिल जाये तो क्या उन्हें मान लेना चाहिए कि भारत में केवल अंग्रेजी ही प्रचलित थी। यह तर्क है या कुतर्क ? भाई तब भी आजकल की तरह अनेक भाषाए प्रचलित रही होंगी पर शासन और विद्वानों की सुप्रतिष्ठित भाषा संस्कृत रही होगी। जैसे कि भारत में आज अंग्रेजी भाषा शासन की भाषा है जिसे देश के ५ % लोग भी ठीक से नहीं जानते। पर और अनेक भाषाएँ और बोलियाँ भी खूब प्रचलित है। साहित्य सृजन की भाषा मुख्यतः हिंदी बनी हुई है। अतः हज़ार साल बाद पुरातत्व खनन में केवल अंग्रेज़ी के साहित्य के मकल जाने से पुरातत्व विद घोषित कर दे कि भारत की भाषा अंग्रजी थी, तो कितना सही होगा ? अनेक मामलों में ऐसा हुआ है। अतः भारत में निश्चित रूप से स्वदेशी भाषा संस्कृत की तो ऐसी दशा कभी न रही होगी जो आज अंग्रेजी कि भारत में है। अर्थात केवल २ से ३ प्रतिशत की भाषा।

गौड़फ्रे हिगिंस की पुस्तक ‘दी कैलेटिक डरुईड्स ‘ में पृष्ठ २७ से ४२ तक वर्णन है कि आयरलैंड की प्राचीन लिपि ‘अगम ‘ थी जो संस्कृत से बहुत मिलाती है। आयरलैंड के लोग स्वयं मानते हैं कि इस अगम लिपि के निर्माता वे स्वयं नहीं कोई और लोग हैं। इंग्लैण्ड के सुप्रसिद्ध विद्फ्वान ‘सर विलियम जोन्स ‘ भी अगम और संस्कृत कि अद्भुत समानता से बड़े आश्चर्य चकित थे। इन्ही जोन्स महोदय ने लिखा है,”—प्लेटो और पाईथागोरस ने अपने श्रेष्ठ सिद्धांत वेदान्त से ही लिए थे।”

किसी भी सामान्य समझ के व्यक्ति को यह बात समझ आ सकती है कि यदि संसार में संस्कृत का इतना प्रसार व प्रभाव था तो इस भाषा के जन्म दाताओं का प्रभाव भी तो कभी सारे संसार में रहा होगा। अब मैकाले पुत्र हम को यह उपदेश तो न दें की अतीत के गौरव को कब तक ढोते रहोगे, कब तक ढिंढोरा पीटोगे। जनाब ज़रा सच को ठीक से सामने तो आ जाने दो, उस सच को जिस पर १५० साल से परदे डालने के षड्यंत्र हो रहे हैं। इस सच की चर्चा मात्र से कुछ लोगों के पेट में मरोड़ उठने क्यूँ लगता है। कितने ही फालतू विषयों पर काम हो रहा है, करोड़ों, अरबों रुपयों की बर्बादी हो रही है; उन पर तो ये विश्ववादी और सेकुलर बोलते नहीं, कृपया इस महत्वपूर्ण विषय को ज़रा अपनी गति से आगे बढ़ने दो। फिर देखो क्या कमाल होता है। वैसे भी भारतीयता के जागरण ये तूफ़ान अब किसी के रोके रुकने वाला तो है नहीं।

विश्व भर में भारतीय संस्कृति, साहित्य व साम्राज्य के प्रभावों प्रमाणों पर कुछ महत्व पूर्ण उद्धरण देखने योग्य हैं——————-

# पुराणों में दिए गए तथ्य, परम्पराएं और संस्थाएं क्या एक दिन में शुरू हो सकती हैं ? अरे ! ईसा से भी तीन सौ साल पहले उनका अस्तित्व पाया जाता है। वे सब इतने प्राचीन हैं कि और कोई भी उनकी बराबरी नहीं कर सकता। – ‘एडवर्ड पोकॉक’ ने ‘इंडिया इन ग्रीस’ के पृ। २४९ पर ‘प्रो। विल्सन’ को उधृत करके यह लिखा है।

# विश्व में हिन्दुओं की कोई बराबरी नहीं कर सकता। हिन्दुओं की उछ सभ्यता फैलाते-फैलाते पश्चिम में इथियोपिया और फिनिशिया तक गयी, पूर्व मैं स्याम, चीन, जापान तक पहुँची, दक्षिण में सीलों और जावा, सुमात्रा तक फ़ैली और उत्तर में ईरान चाल्दिया और कोल्चिस तक होती हुई ग्रीस और रोम तक फ़ैल गयी। – काउंट बिआर्न स्टीर्ना, दी थिओगनी ऑफ़ हिन्दुस, पृ। १६८

इसी प्रकार के अनेकों प्रमाण विश्व भर के विद्वानों ने दिए हैं जिनसे पता चलता है की कभी सारे असभ्य संसार को सभ्यता का पाठ भारत ने पढ़ाया। समय के काल चक्र में हम अपनी युद्ध कसला में लापरवाही के कारण दुनिया की असभ्य व दानवी ताकतों के अत्याच्रों का शिकार बने। शायद सबसे बड़ा कारण हमारे पराभव का यह रहा की हम सारे संसार को अपने जैसा न्याय व नीति का आचरण करने वाला समझने की भूल कर बैठे और सैनिक सुरक्षा की उचित व्यवस्था नहीं की। जिसके परिणामस्वरूप एक हज़ार वर्ष का अत्याचार सहना पडा। अस्तु।।।।।।।।।।।।।

इंग्लैण्ड, जापान, यूनान, इरान, जर्मन ये सब अपनी अतीत के गौरव से प्रेरणा लेते हैं तो कुछ गलत नहीं। फिर अगर हम भी ऐसी प्रेरणा लें तो किसी को तकलीफ क्यूँ होती है ? और फिर होती ही है तो होती रहे। भारत और भारतीयता को चाहने वालों की विजय के अति महत्वपूर्ण अगले दो वर्ष हैं। मार्च के अंतिम सप्ताह में भारतीय नव वर्ष के साथ इसकी शुरुआत हो रही है।

( उपरोक्त लेख की प्रेरणा मुझे प्रो। मधुसुदन जी के संस्कृत पर लिखे उत्तम लेख व उस पर आई टिप्पणियों के कारण हुई )