पंकज जायसवाल
छत्तीसगढ़ में एक अंग्रेजी अखबार के संवाददाता से अनौपचारिक बातचीत में गृहमंत्री अमित शाह ने कहा कि अगर देश में नक्सली हत्या और हथियार छोड़ दें और उनकी विचारधारा पर अगर वह काम करते रहें तो उन्हें कोई आपत्ति नहीं. बात सही भी है. बिना हिंसा और हथियार के वामपंथ अंत्योदय के ज्यादा करीब है. दोनों का लक्ष्य कमोबेश एक ही है, अंतिम व्यक्ति का उदय. बस प्राप्त करने के मार्ग अलग हैं. अंत्योदय जहां सनातन अर्थशास्त्र के मूलभूत सिद्धांत सर्वे भवन्तु सुखिना सर्वे भवन्तु निरामया पर चलते हुए संतोष के मापदंड पर सुख और ख़ुशी को वरीयता देता है तो वहीँ वामपंथ अपने समाधान में पहले वर्गों में लोगों को खंडित कर फिर उनके मध्य वर्ग संघर्ष से समानता लाई जा सकती है, इस पर काम करता है. इसके बावजूद भी अगर वह हिंसा और हथियार के बिना इस विचारधारा पर काम करें तो सामाजिक अध्ययन के आधार पर एक डायग्नोसिस रिपोर्ट तो मिलता ही है. अतः यह उचित होगा कि वह हिंसा, हत्या और हथियार छोड़ अपने बौद्धिक अध्ययनों से सबको लाभान्वित करें लेकिन इस कार्य में भी उन्हें एक बात का ध्यान रखना होगा कि धर्मनरपेक्षता का पैरोकार अगर वह बन रहें हैं तो शुद्ध रूप से धर्मनिरपेक्ष बनें. धर्मों के प्रति अपने विचार को लेकर वह सुविधानुसार चुनाववाद का शिकार ना रहें.
एक हमारे वामपंथी मित्र हैं. एक ज़माने में वह फुल टाइम वामपंथी कामरेड थे. उन्होंने बातचीत में बताया कि दो दशक तक कामरेड रहने के बाद अंत में उन्हें अहसास हो रहा है कि भारत में वामपंथ अब एक अन्य तरह का कल्ट हो गया है जो अपनी विचारधारा को लेकर कट्टर रहता है. उनका खुद से प्रश्न था कि स्वतंत्रता की बात करते हुए कट्टर कैसे रहा जा सकता है. ठीक एक और अधेड़ उम्र के वामपंथी मित्र ने कई साल पहले एक चर्चा के दौरान बताया कि जैसे ही वह कॉलेज में पढ़ने गए, वामपंथी संगठनों में शामिल हो गए. घर से बाहर सिविल सर्विस की तैयारी करने गए थे लेकिन यार दोस्त बोलने लगे कि यार तुम सिविल सर्विसेज की परीक्षा में बैठ रहे हो, मतलब तुम बुर्जुवा समाज की सत्ता और व्यवस्था को स्वीकार रहे हो और इसका भाग बनना चाहते हो. बकौल मित्र ऐसे जोशीले विचार दे देकर उन लोगों ने सरकारी नौकरी की कोई परीक्षा नहीं देने दी और आज उम्र के पड़ाव पर उनके साथ उनके बच्चों का भविष्य भी संकट में हैं. आर्थिक तंगी होने के कारण उन दोनों मित्रों को अपने बच्चों और परिवार की परवरिश में बहुत संकट आ रहा है और वह अपने उन शुरुवाती दिनों को याद कर पछता रहें हैं जिसने उनकी जवानी और बच्चों का भविष्य खा लिया.
मैं और अमित शाह देखा जाय तो वामपंथ के अंध विरोधी नहीं लेकिन भारत में वामपंथ वामान्ध और सुविधानुसार चुनाववाद का शिकार है. वह चुनाव करता है कब और कहाँ किसको बोलना है और कहाँ चुप रहना है. स्वअन्वेषण के चक्कर में सत्य से दूर चला गया है और विरोध के पात्रों का सुविधानुसार चयन कर लिया है. व्यक्तिवाद विरोध अब इनका प्रिय विषय है और मार्क्स के चिंतन को ये भूल चुके हैं. पहले यह पात्रों और पक्षों और उनके धर्म का चयन करते हैं, फिर उसका विरोध करते हैं.
भारतीय वामपंथ में एक नई श्रेणी पैदा हो गई है वामांध श्रेणी, जो एक सिरे से सनातन का विरोध करते हैं, इनके फ़ॉर्मूले में समानता वर्ग संघर्ष से आएगी और भारतीय हिन्दू समाज में इन्होने बिना किसी अध्ययन और मेहनत के यह रेडीमेड वर्ग ढूंढ लिया और बिना धर्म का मर्म जाने, धर्म में कालांतर में घुस आई बीमारियों को ही असली धर्म बताकर उसके खिलाफ दुराग्रह फैलाते रहते हैं. ये अपने लेख में अपने मतलब की परमाणु से भी छोटी बारीकियों को पकड़ कर उसे खोलकर रख देंगे ये लेकिन जब हिन्दू धर्म की बात आती है तो इसे इसके मर्म में न जाकर, कालांतर में घुस आई बीमारियों के आधार पर ही विश्लेषण करते हैं .
दरअसल भारतीय वामपंथियों ने वामपंथ के मूल से अपनी आँखें मूँद ली हैं जो कहता है कि वामपंथ का मुख्य उद्देश्य बराबरी पर आधारित सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना करना है. मार्क्स की विचारधारा सामाजिक चेतना को ऊपर उठाकर समाज गठन के मूल में अर्थ व्यवस्था के प्रभाव को अनिवार्य रूप से स्वीकार कर उसका अध्ययन करती है. वामपंथ का दर्शन जिस काल में पैदा हुआ था, वह औद्योगिक क्रांति का दौर था और यंत्रो के प्रयोग ने मानवीय श्रम में कटौती करना चालू कर दिया था और रोजगार के व्यापक अवसर और आयाम उपलब्ध नहीं थे. ऐसे काल में मार्क्स ने जो सिद्धांत प्रतिपादित किये, वे समयानुकूल और वैज्ञानिक थे जिसके मूल में समाज में आर्थिक समानता लाना था जिसके कारण से ही समाज में सामाजिक और राजनैतिक समानता लाई जा सकती है. कार्ल मार्क्स ने कभी नहीं कहा कि जो मैंने लिख दिया या बोल दिया है, वही अंतिम सत्य है और जिसकी व्याख्या आलोचना या समय बदलने के हिसाब से उसमें परिवर्तन नहीं किया जा सकता है. परिवर्तन को आवश्यक बताते हुए मार्क्स ने खुद कहा था कि जो एक चीज निश्चित है वह यह है कि मै खुद मार्क्सवादी नहीं हूँ.
भारत में जो आदि सनातन धर्म है वह बाकायदा नास्तिकता को भी स्वीकार करता है और नास्तिकों से कोई घृणा नहीं है उसे, कोई पूजा करे न करे कोई इश्वर को माने न माने कोई बाध्यता नहीं है. भारतीय हिन्दू समाज में जो सामाजिक बुराइयाँ धर्म का आवरण ओढ़ के आई थी उसे समय ही ख़त्म करता रहता है और लोग इसे स्वीकार भी करते हैं लेकिन भारत में जो इनका सुविधानुसार चुनाववाद है, ये इनके द्वारा मार्क्स को दी गई गाली है जिसने अपने सिद्धांत को मानव समाज के व्यापक हित के लिए बनाया था.
धर्म अफीम है, इसे मार्क्स ने कहा लेकिन इसे सिर्फ एक ही धर्म के लिए तो नहीं कहा था, उन्होंने कहा था कि लोगों की ख़ुशी के लिए पहली आवश्यकता धर्मं का अंत है तो सलेक्टिव होके तो नहीं कहा था. इसे व्यापक रूप से कहा था. दरअसल मार्क्स का चिंतन मानव समाज विकास क्रम को वैज्ञानिक दृष्टिकोण से देखने का प्रयत्न है जिसका मूल ही है कि जड़ नहीं होना जबकि भारतीय वामांध वामपंथी इसे एक पंथ का रूप देते हुए जड़ता का शिकार हो गए हैं. सुविधानुसार चुनाववाद का ये कैसे इस्तेमाल करते हैं .
मार्क्स के विचार का सनातन दर्शन में भी कोई विरोध नहीं है. यहाँ साकार, निरंकार और नास्तिक तीनों का स्थान है . मार्क्स के सिद्धांत, कि संसार में अशांति और असंतोष का कारण गरीबों और अमीरों के बीच बड़ी होती खाई है, से हटाकर भारत के कट्टर वामपंथी उसे हिन्दू बनाम हिन्दू दलित, हिन्दू बनाम मुस्लिम बनाम बौद्ध पता नहीं क्या क्या बना देते हैं. मार्क्स के सिद्धांत जिसके अनुसार परिवर्तन के लिए पहले शांतिपूर्वक क्रांति करनी चाहिए, गाँधी जैसा प्रमाण होने के बावजूद भी ये कम पढ़े लिखे समाज को अपने उद्वेलित विचारों से पहले चरण में ही नक्सली बना देते हैं. भारत का वामांध वामपंथी कार्ल मार्क्स के द्वंदात्मक भौतिकवाद , ऐतिहासिक भौतिकवाद , वर्ग संघर्ष , राज्य सिद्धांत और अतिरिक्त मूल्य का सिद्धांत के लिए प्रयोगस्थली केवल एक ही वर्ग को बनाना चाहता है क्योंकि वह सुविधानुसार चुनाववाद में विश्वास करता है .
भारत का वामपंथ अगर हिंसा हत्या हथियार और सुविधानुसार चुनाववाद छोड़ पूर्ण धर्मनिरपेक्ष ही हो जायें तो यह समाज के व्यापक हित में काम आ सकते हैं.
पंकज जायसवाल