राजनीति

आस्तीनों में ना अपने सांप पालो दोस्तों / पंकज झा

कथित माननीय अरूप जी और तथाकथित श्रीमान राष्ट्रवादी जी……! कथित इसलिए कि अगर आपको लगे कि आपके विचारों में दम है तो खुल कर हमारी तरह नाम और पते के साथ आना चाहिए. नक्सलियों की तरह आस्तीन में छुपकर वार करने वालों की सराहना नहीं होती आज-कल. अपन जब भी जो भी लिखते हैं पूरे जिम्मेदारी के साथ लिखते हैं. इसलिए दांत तोड़ दिए जाने पर डॉक्टर से भी खुले-आम जा कर संपर्क कर सकते हैं. ना “राष्ट्रवादी” नाम का उपयोग करने वाले आप जैसे कायरों की तरह किसी को जाति के आधार पर लांछित करते हैं और न ही व्यक्तिगत निंदा-भर्त्सना में भरोसा है अपना. अगर अरुंधती का नाम ले कर लिखा भी है तो इसलिए कि उसका वह लेखन व्यक्तिगत ना होकर जवानों की शहादत का पृष्ठभूमि तैयार करने वाला रहा है. हमने क्या हासिल किया है क्या नहीं यह मेरे जानने वालों से पूछा जा सकता है मुझे सफाई देने की ज़रूरत नहीं. संघ से अपना ज्यादा नाता नहीं रहा है फिर भी इतना ज़रूर कहूँगा कि जहां आप छुपे हैं उस खोल में भी चैन की नींद सो रहे हैं तो निश्चय ही वह संघ जैसे संगठनों की बदौलत ही संभव हुआ है. वाणी या कलम का संयम मेरे समेत सबके लिए अपेक्षित है. लेकिन जब आँख के सामने एक साथ ताबूत बना दिए गए 76 शहीद सोये हों और आप जैसे लोग जश्न मना रहे हों तो फिर कहाँ संयम रह जाता है? अहसान जाफरी, तीस्ता या गुजरात के बारे में फिर कभी. ‘मुकराना’ के आदिवासियों को उससे कोई लेना-देना भी नहीं है. गुजरात के मामले पर काफी कुछ लिखा गया है और लिखा जा भी रहा है. भले ही रक्तिम मीडिया ने जगह ज्यादे नहीं दी हो लेकिन तीस्ताओं के नंगे नाच का भी भंडाफोर हो ही गया है. किस तरह उन लोगों ने गवाहों को खरीद एवं बरगला कर, झूठ पर झूठ रच एक चुनी हुई सरकार को बदनाम करने का प्रयास किया, किस तरह कही भी हो जाने वाले या करा देने वाले दंगे उन लोगों की रोजी-रोटी का सामान बन कर सामने आता है वह अब किसी से छिपा नहीं है. आप सबकी पहचान होती तो जबाब देना ज्यादा आसान होता. अगर आप जैसे लोग इन भौकने वाले मीडिया के बहकावे में आ कर ऐसी बातें कर रहे हैं तब गुजारिश है कि थोड़े ठंडे दिमाग से अपने लोकतंत्र के बारे में सोचें. यह समझने का प्रयास करें कि लाख बुराइयों के बावजूद लोकतंत्र से अच्छा -या कम बुरा- विकल्प वर्तमान दुनिया में मौजूद नहीं है. कमियां कई हो सकती है लेकिन अगर नक्सलियों को समर्थन करने के बाद भी अरुंधती जैसे लोगों की जुबान उनके हलक में ही सलामत रह जाती है तो इस लिए कि यह लोकतंत्र है. स्वछंदता की हद तक यहाँ अभिव्यक्ति की स्वतंत्र उन सौदागरों को भी नसीब है. तो उठाने वाले हर सवाल का जबाब अपने यहाँ मौजूद है. गुजरात पर भी बातें की जा सकती है. क़ानून अपना काम कर ही रहा है. अगर दोषी कोई भी साबित हो तो दण्डित होगा ही. लेकिन यहाँ पर अफजल-कसाब के बदले किसी अहसान की चर्चा करना जान-बूझ कर मुद्दों को भटकाना ही कहा जा सकता है. खासकर अरुंधती को लेकर लिखे गए किसी आलेख या विचार में अकारण संघ को घुसा देना भी इसी श्रेणी का मामला कहा जायगा. आइये बात अभी बस्तर की करें.

मान लें किसी नगर-निगम के महापौर की अक्षमता या उसके बेईमानी के कारण किसी शहर में हैजा फ़ैल गया हो. लोग-बाग बड़ी संख्या में मर रहे हों. तब एक नागरिक के रूप में हमारा पहला दायित्व क्या होना चाहिए ? जाहिराना तौर पर सबसे पहले उस महामारी के रोकथाम की उपाय, है ना ? या सब लोग पिल पड़ेंगे उस महापौर के खिलाफ नारेबाजी करने में ? निश्चित ही जब स्थिति सामन्य हो जायेगी तब उस नकारे की भी खबर लेंगे लेकिन फिलहाल हैजा को ही खतम करने का उपाय करेंगे ना? तो बस्तर के साथ अभी किसी भी तरह की दूसरी बात ऐसे ही नारे लगाने के मानिंद होगा. सीधी सी बात है कि साठ साल में इस आदिवासी क्षेत्र में जिसका भी शासन रहा हो वह जिम्मेदार है वर्तमान के इस नक्सल महामारी के प्रति. कमोबेश कोई भी राजनीतिक दल इस जिम्मेदारी से पल्ला नहीं झाड सकता. खास कर अब जब दिग्विजय सिंह जैसे लोगों को भी यह उपेक्षा रणनीतिक तौर पर दिखने लगी है. तो उनसे भी सवाल पूछा जाना चाहिए कि अगर यह क़ानून-व्यवस्था या उपेक्षा का मामला है तो इस क्षेत्र पर दस साल राज कर लूट का सरंजाम करने के लिए क्यूँ न वे सबसे पहले माफी मांगते हैं. तो मित्रवर…निश्चय ही, कुछ तो मजबूरियां रही होगी वरना कोई यूँ बेवफा नहीं होता….! इस बात से किसी को भी इनकार नहीं किया जाना चाहिए कि राजनीतिकों, व्यापारियों, शोषकों आदि के कारस्तानियों का ही उपज है यह नक्सलवाद. आज के नक्सली वास्तव में आदिवासी-जनों को बरगलाने में इसलिए ही कामयाब हो पाए क्युकी नेताओं ने ऐसे स्थिति पैदा की थी. लेकिन यह समय इस पर मंथन करने का नहीं है. अभी नियति ने हमारे समक्ष कोई ज्यादे विकल्प नहीं छोड़े हैं. चाहे तो लोकतंत्र या नक्सलवाद. चाहे तो भारत या फिर चीन. चाहे प्रगति का राजमार्ग या फिर पशुपति से तिरुपति (आगे बीजिंग तक) तक लाल गलियारा. चाहे तो लोकतांत्रिक ढंग से चुनी गयी सरकारें, या फिर हर तरह के मानवाधिकार को कुचलने एके लिए कुख्यात ‘जनताना सरकार’. तो गंदगी और लोकतंत्र में से हमें एक को चुनना है और किसी भी तरह के तीसरे पक्ष की कोई गुंजाइश फिलहाल तो नहीं है. चाहे तो आप भारत के संविधान के साथ हैं या फिर “आंतरिक सुरक्षा को खतरा” के रूप में – उपहास के रूप में ही सही लेकिन अरुंधती द्वारा भी – चिन्हित किये गये गिरोहों के साथ. निश्चय ही इस महाभारत में किसी शिखंडी के लिए कोई जगह नहीं है. आपको किसी कलम के हिजड़े को खड़े कर योद्धाओं को अस्त्र चलाने से रोकने नहीं दिया जाएगा. अगर आप लोकतंत्र के साथ हैं तो स्वागत, अन्यथा किसी भी तरह का मानवाधिकार सबसे पहले देश के संविधान में आस्था रखने वालों का होगा. देशद्रोहियों के मानवाधिकार को कुचल कर भी . इसमें कोई भी किन्तु-परन्तु कोई भी अगर-मगर चलने नहीं दिया जाएगा.

यह समय पूरी ताकत के साथ लोकतंत्र के हत्यारों को कुचलने का है. और इस बीच में जो भी आये, छुप कर या सामने आ कर हर तरह से उनको समाप्त कर आगे बढ़ जाने का है. हर तरह के विचार-विमर्श, वाद-प्रतिवाद, सहमति-असहमति आदि की पूरी गुंजाइश इस समाज में है. हम बहस-मुहाबिसा भी करेंगे, लड़ेंगे-झगड़ेंगे भी, मत-मतान्तर भी होगा हमारा लेकिन अपने देश को बचा लेने के बाद. अभी जैसा सबको पता है लाल-गलियारा कोई केवल शब्द विन्यास नहीं है. हाल ही में एक चीनी बौद्धिक का ब्लू-प्रिंट सामने आया है जिसमें वो भारत को तीस टुकड़ों में बाटने की बात करते हैं. देश ने चाइना से युद्ध के समय आस्तीन के सांपो को चीन के चेयरमेन को अपना चेयरमेन कहते हुए भी सुना ही है. लाख नक्सल चुनौतियों के बावजूद बस्तर के साथ सबसे अच्छी बात यह है कि वह देश के मध्य में है. किसी देश का सीमा वहाँ से नहीं लगता. इस मामले में देश को बढ़त हासिल है और कही ना कही अगर नक्सली कमज़ोर पड़ रहे हैं या पड़ेंगे तो इसी कारण. तो लाल-गलियारा उसी नक्सल कमजोरी को दूर करना का उनका उपाय है. बार-बार खबर तो आती ही है कि हिमालय को लांघ चीन नेपाल तक पहुच आसान करना चाहता है. जिस दिन ऐसा हो गया और वहाँ से ये गलियारा इनको मिल गया फिर तो जिस तरह ईस्ट इंडिया कंपनी का स्वागत करने भाई लोग आतुर थे वैसे ही अरुन्धतियां साज-सिंगार कर पहुच ही जायेंगी काठमांडू तक स्वागत करने. तो चिंता और डर इस बात का ही है.

लेकिन अगर हम समय से जाग गए. तो कम-से-कम अभी इन नक्सल नामधारी लुच्चों की इतनी औकात नहीं है कि वे लोकतंत्र पर सवाल भी खड़े कर पाए. लाख बुरे हालत में भी हमारे जांबाजों ने ऑपरेशन ग्रीन हंट के दौरान ज्यादे ही नक्सलियों को मार गिराया है. तो प्रिय अरूप और राष्ट्रवादी मित्र. अगर आप भी छुपे हुए भेडिये नहीं बल्कि सच्चे नागरिक हैं, तो अभी आपके पास भी विकल्पों की कमी होनी चाहिए. सवाल अभी देश और लोकतन्त्र को बचाने का है, बाकी बातें बाद में. जैसा कि नीरज ने कहा है….आग लेकर हाथ में पगले जलाता है किसे, जब ना ये बस्ती रहेगी तु कहाँ रह पायेगा…आखिर जब-तक हुसैन की तरह अरुंधती भी अपने किसी ‘क़तर’ में ना चली जाय तबतक उसको भी यह सोचना चाहिए कि इसी बस्ती में उसका भी घर है. और अपने ही हाथों अपने घर को जलाने से बाज़ आये…धन्यवाद.