धर्म-अध्यात्म

खुली फ़िज़ां में सांस लेंगी बुर्क़े में क़ैद ‘हव्वा’ की बेटियां

-फ़िरदौस ख़ान

यूरोपीय देशों ने बुर्क़े को ‘अमानवीय’ क़रार देते हुए मुस्लिम महिलाओं को इससे निजात दिलाने की मुहिम छेड़ी है। ब्रिटेन के कंजरवेटिव सांसद फिलिप होलोबोन ने बुर्के पर पाबंदी की वकालत करते हुए अपने क्षेत्र की बुर्क़ाधारी महिलाओं से मिलने से इंकार कर दिया। उनका कहना है कि महिलाएं उनसे बिना बुर्क़े के मिलें या फिर पत्र व्यवहार के ज़रिये बात करें। उनके इस बयान से ब्रिटेन में बुर्क़े पर पाबंदी को लेकर बहस छिड़ गई है। एक सर्वे के मुताबिक़ ब्रिटेन के 67 फ़ीसदी नागरिक अपने देश पर बुर्क़े पर पाबंदी लगाने के पक्ष में हैं। हालांकि ब्रिटेन के आव्रजन मंत्री डेमियन ग्रीन ने कहा है कि ब्रिटेन में सार्वजनिक स्थानों पर बुर्क़े पर प्रतिबंध लगाने की सरकार की अभी कोई योजना नहीं है।

ब्रिटेन में यह मुद्दा चार साल पहले भी उठ चुका है, जब वहां के मंत्री जैक स्ट्रॉ ने कहा था कि गैर मुसलमान बुर्क़ाधारी महिलाओं से बात करने की हालत में असुविधा महसूस करते हैं। उस वक्त तत्कालीन प्रधानमंत्री टोनी ब्लेयर ने कहा था कि लोगों के अपने धार्मिक विचारों का पालन करने की पूरी आज़ादी है, लेकिन बुर्क़ा पहनने वाली महिलाएं शेष समाज में ठीक से घुल-मिल नहीं पातीं।

ग़ौरतलब है कि इसी माह फ्रांस के निचले सदन में सार्वजनिक स्थानों पर बुर्क़े पर पाबंदी लगाने के संबंधी विधेयक को बहुमत से मंज़ूरी मिल चुकी है। नेशनल असेंबली में इस क़ानून के पक्ष में 335 सांसदों ने मत दिया, जबकि विरोध में सिर्फ एक ही सांसद ने मतदान किया। सितंबर में संसद के ऊपरी सदन सीनेट की मंज़ूरी मिलने के बाद यह क़ानून बन जाएगा। इस क़ानून के तहत सार्वजनिक स्थानों पर बुर्क़ा पहनने वाली महिलाओं पर 150 यूरो का जुर्माना लगाया जाएगा। महिलाओं को बुर्क़ा पहनने पर मजबूर करने वाले पुरुषों पर 30 हज़ार यूरो तक का जुर्माना हो सकता है।

गत फ़रवरी में फ्रांस ने एक ऐसे विदेशी व्यक्ति को नागरिकता देने से मना कर दिया, जो अपनी पत्नी को बुर्क़ा पहनने के लिए मजबूर करता था। इस संबंध में फ्रांस के मंत्री एरिक बेसन का कहना था कि सामान्य जांच के दौरान यह पाया गया था कि यह व्यक्ति अपनी पत्नी को बुर्क़ा पहनने को मजबूर कर रहा है। इससे उस महिला को अपना चेहरा ढके आने-जाने की आज़ादी से वंचित किया जा रहा था और यह महिला-पुरुष के बीच समानता और धर्मनिरपेक्षता को नकारने के बराबर था। फ्रांस के क़ानून के मुताबिक़ अगर कोई नागरिकता चाहता है तो उसे समाज में शामिल होने की मंशा दिखानी होगी। जनवरी में फ्रांस की संसदीय समिति ने सिफ़ारिश की थी कि अगर कोई व्यक्ति ‘कट्टरपंथी धार्मिक प्रथा’ का पालन करने के संकेत देता है तो उसे रेज़िडेंस परमिट और नागरिकता न दी जाए।

क़ाबिले-गौर है कि साल 2004 में फ्रांस ने सरकारी स्कूलों और दफ््तरों में हिजाब और अन्य धार्मिक चिन्हों के पहनने पर पाबंदी लगा दी थी। इस पर काफ़ी बवाल भी मचा था. फ्रांस के राष्ट्रपति निकोला सारकोज़ी ने कहा था कि फ्रांस में बुर्क़ा पहनना स्वीकार्य नहीं है, क्योंकि बुर्क़ा पहनने वाली महिलाएं क़ैदी के समान हैं, जो आम सामाजिक जीवन जीने से महरूम रहती हैं और अपनी पहचान की मोहताज होती हैं। इसके कुछ वक्त बाद ही फ्रांस की महिला मुस्लिम मंत्री फ़देला अमारा ने फ्रांस में बुर्क़े पर पाबंदी का समर्थन करते हुए कहा था कि बुर्क़ा महिलाओं को क़ैदी की तरह बना देता है और फ्रांस के मौलिक सिध्दांतों में से एक महिला-पुरुष के बीच समानता की अवहेलना करता है। बुर्क़ा एक पहनावा ही नहीं बल्कि एक धर्म के राजनीतिक दुरुपयोग का प्रतीक है। उनका कहना था कि बुर्क़े पर पाबंदी से महिलाओं का मनोबल बढ़ेगा। वहीं, फ्रांसीसी संसद में राष्ट्रपति निकोलस सरकोजी की सत्तारूढ़ पार्टी यूएमपी के अध्यक्ष जीन फ्रांकोइस कोप का कहना था कि सार्वजनिक इमारतों और सड़कों पर बुर्क़ा पहनने की इजाज़त नहीं होगी, क्योंकि इससे आतंकवाद को बढ़ावा मिलता है। फ्रांस में मुस्लिम आबादी अन्य सभी यूरोपीय देशों के मुक़ाबले ज्यादा है।

पिछले माह जून में स्पेन के कैथोलिक बहुल बार्सिलोना में सार्वजनिक इमारतों में पूरे चेहरे को ढकने वाले बुर्क़े पर पाबंदी लगा दी गई। अधिकारियों के मुताबिक़ यह पाबंदी म्युनिसिपल कार्यालय, बाज़ार और पुस्कालयों आदि स्थानों पर लागू रहेगी। गत मई में इटली के उत्तरी इलाक़े में बसे शहर नोवारा में टयूनिशिया की रहने वाली 30 वर्षीय एक महिला से बुर्क़ा पहनने के आरोप में पांच सौ यूरो का जुर्माना गया। गौरतलब है कि इटली के क़ानून के मुताबिक़ ऐसे कपड़े पहनने पर मनाही है जिससे पुलिस को पहचान करने में परेशानी हो। कुछ अरसा पहले ही बुल्गारिया की संसद के निचले सदन ने भी ऐसे क़ानून को प्रारंभिक स्तर की अनुमति दी है। इसके मुताबिक़ चेहरे को पूरी तरह से ढकने वाले कपड़े पहनने पर 15 से बीस यूरो का जुर्माना या सात दिन तक की जेल हो सकती है।

कनाडा सरकार क्यूबेक प्रांत में बुर्क़े पर पाबंदी लगाने के लिए मार्च में एक विधेयक लाई थी। इसके तहत नक़ाब पहनने वाली मुस्लिम महिलाओं को शिक्षा, डे केयर और गैर आपातकालीन चिकित्सा सेवाओं से वंचित कर दिया जाएगा। यह क़ानून सार्वजनिक क्षेत्र में काम करने वाली महिलाओं पर भी लागू होगा।

जर्मनी में भी बुर्क़े पर पाबंदी की कवायद जारी है। जर्मनी में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी की सांसद अकगुन बुकर्े पर पाबंदी की वकालत करते हुए कहा है कि बुर्क़ा पूरे शरीर को क़ैद में रखने वाला पहनावा है। वर्ष 2005 में नीदरलैंड में भी बुर्क़े पर प्रतिबंध लगाने का मुद्दा उठ चुका है।

सीरिया में विश्वविद्यालयों में महिलाओं के बुर्क़ा पहनने पर पाबंदी लगा दी गई है। यहां के शिक्षा मंत्री जी. बरकत ने बुर्क़े पर पाबंदी के निर्देश देते हुए कहा था कि महिलाओं के पूरे चेहरे को ढकने वाला नक़ाब शैक्षणिक मूल्यों और परंपराओं के ख़िलाफ़ है। उनका कहना था कि विश्वविद्यालय में पढ़ने वाले छात्रों और उनके अभिभावकों के अनुरोध पर यह क़दम उठाया गया है।

इसी तरह मिस्र की राजधानी काहिरा स्थित अल-अज़हर विश्वविद्यालय के इमाम शेख़ मोहम्मद सैयद तांतवई ने कक्षा में छात्राओं और शिक्षिकाओं के बुर्क़ा पहनने पर रोक लगाकर एक साहसिक क़दम उठाया था। इस फ़ैसले के ख़िलाफ़ कई इस्लामी सांसदों ने शेख़ तांतवई के इस्तीफ़े की मांग करते हुए इसे इस्लाम पर हमला क़रार दिया था। हालांकि बुर्क़े पर पाबंदी लगाने का ऐलान करने के बाद इमाम शेख़ मोहम्मद सैयद तांतवई ने क़ुरान का हवाला देते हुए कहा है कि नक़ाब इस्लाम में लाज़िमी (अनिवार्य) नहीं है, बल्कि यह एक रिवाज है।

उनका यह भी कहना था कि 1996 में संवैधानिक कोर्ट ने अपने फ़ैसले में कहा था कि कोई भी सरकारी मदद हासिल करने वाले शिक्षण संस्था का अधिकारी स्कूलों में इस्लामिक पहनावे पर अपना फ़ैसला दे सकता है। बताया जा रहा है कि एक स्कूल के निरीक्षण के दौरान शेख़ मोहम्मद सैयद तांतवई ने एक छात्र से अपने चेहरे से नक़ाब हटाने को भी कहा था। गौरतलब है कि मिस्र के दानिश्वरों का एक बड़ा तबका बुर्क़े या नक़ाब को गैर ज़रूरी मानता है। उनके मुताबिक़ नक़ाब की प्रथा सदियों पुरानी है, जिसकी शुरुआत इस्लाम के उदय के साथ हुई थी। अल-अज़हर विश्वविद्यालय सरकार द्वारा इस्लामिक कार्यो के लिए स्थापित सुन्नी समुदाय की एक उदारवादी संस्था मानी जाती है, जो मुसलमानों की तरक्की को तरजीह देती है। इसलिए अल-अज़हर विश्वविद्यालय प्रशासन द्वारा छात्रों और शिक्षिकाओं के नक़ाब न पहनने को सरकार द्वारा सार्वजनिक संस्थानों में बुर्क़ा प्रथा पर रोक लगाने का एक हिस्सा माना जा रहा है। क़ाबिले-गौर है कि सऊदी अरब के दूसरे देशों के मुक़ाबले मिस्र काफ़ी उदारवादी देश है. अन्य मुस्लिम देशों की तरह यहां भी बुर्क़ा या नक़ाब पहनना एक आम बात है।

कट्टरपंथी बुर्क़े को ज़रूरी मानते हैं। कुछ साल पहले ऑस्ट्रेलिया में मुसलमानों के धर्म गुरु शेख़ ताज अल हिलाली ने बुर्क़े से संबंधित एक ‘वाहियात’ बयान देकर कोहराम मचा दिया था। उनका कहना था कि जो महिलाएं सिर पर स्कार्फ़ नहीं डालतीं, वे अपने साथ बलात्कार व अन्य प्रकार के यौन उत्पीड़न को आमंत्रित करती हैं। हिलाली का तर्क था कि अगर आप मांस को ढके बग़ैर उसे खुला छोड़ देंगे तो बिल्लियां आकर उसे खा जाएंगी। इस स्थिति के लिए आप किसे दोष देंगे। इस बयान की चहुंओर निंदा हुई थी और हिलाली को तीन माह के लिए पद से निलंबित भी कर दिया गया था।

यह बात गले नहीं उतरती कि बुर्क़ाधारी महिलाएं यौन उत्पीड़न का शिकार नहीं होतीं। वर्ष 2005 में उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फ़रनगर के चरथावल में रहने वाली इमराना के साथ उसके ससुर अली मोहम्मद ने बलात्कार किया था। इसी तरह मुज़फ्फ़रपुर की रानी और हरियाणा की एक अन्य महिला भी अपने ससुर की हवस का शिकार बनीं। ये तीनों ही महिलाएं पर्दानशीन थीं, इसके बावजूद वे अपने घर में ही अपने पिता समान ससुर की यौन प्रताड़ना का शिकार हुईं। हैरत और शर्मनाक की बात यह भी है कि कट्टरपंथियों ने दोषियों को सज़ा देने की बजाय उनका बचाव किया और पीड़ित महिलाओं को प्रताड़ित किया। कट्टरपंथियों ने इन महिलाओं को मजबूर किया कि वे अपने ससुर को पति और अपने पति को पुत्र मानें। कट्टरपंथी पुरुषों को यह नसीहत नहीं करते कि वे महिलाओं का सम्मान करें।

क़ाबिले-गौर यह भी है कि क़ुरआन में सबसे पहले मुस्लिम पुरुषों को पर्दे का आदेश दिया गया है। पुरुषों से कहा गया है कि अपनी नज़र का पर्दा करो और दूसरी महिलाओं को मत देखो, अपने शरीर के व्यक्तिगत हिस्सों को अच्छी तरह ढक कर रखो। बाद में सूरह-अल-नूर और सूरह-अल-अहज़ाब में महिलाओं के लिए पर्दे का ज़िक्र आता है, लेकिन उसमें महिलाओं से कहा गया कि अपने सिर और जिस्म को अच्छी तरीके से ढको। ढकने की इस शर्त में चेहरा शामिल नहीं है। वैसे भी बुर्क़ा इस्लाम का हिस्सा नहीं है। इस्लाम के उदय के क़रीब 300 साल के बाद पहली बार महिलाओं को बुर्क़े जैसा लिबास पहने हुए देखा गया. ये महिलाएं ठंड से बचने के लिए अतिरिक्त कपड़ों के रूप में बुर्क़े जैसे लिबास का इस्तेमाल करती थीं। मगर अफ़सोस की बात यह है कि बाद में मज़हब के ठेकेदारों ने महिलाओं को क़ैद करने के लिए बुर्क़े का इस्तेमाल शुरू कर दिया। नतीजतन, महिलाएं सिर्फ़ घर की चहारदीवारी तक ही सिमट कर रह गईं और इस तरह दिनोदिन उनकी हालत बद से बदतर होती चली गई। दरअसल, बुर्क़ा एक अमानवीय प्रथा है, जो महिलाओं को शारीरिक रूप से ही नहीं, बल्कि मानसिक तौर पर भी गुलाम बनाती है।