न्यायालयों में हिन्दी

Supreme-Court

      सदियों से भारत में आम जनता की आवाज़ दबाई जाती रही है और उन्हें उनके नैसर्गिक अधिकारों से वंचित किया जाता रहा है। चाहे वह कोई युग रहा हो अथवा कोई राजा रहा हो। लोक भाषा कभी भी राज भाषा नहीं रही। संस्कृत को देवभाषा का अलंकरण देकर, इसे जनभाषा बनने से सोद्देश्य रोका गया। दुनिया की सबसे समृद्ध भाषा अपने उद्गम स्थल पर ही कभी जनभाषा का रूप नहीं ले पाई। आम जनता लोकगीतों और लोक कथाओं के माध्यम से अपने को अभिव्यक्त करती रही, जिसे देश के Elite Class (ब्राह्मण वर्ग) ने कभी मान्यता नहीं दी। शास्त्रार्थ संस्कृत में होते थे। आम जनता को इससे कोई फ़र्क नहीं पड़ता था कि शंकराचार्य जीत रहे हैं या मंडन मिश्र। नतीज़ा यह निकला कि जनता मौलिक ग्रन्थों से दूर होती चली गई और अपने इतिहास, दर्शन तथा दिशा निर्देश के लिए पेशेवर कथावाचकों पर निर्भर होती चली गई। इन कथावचकों ने जघन्य अपराध किए हैं। कहानी को रोचक बनाने के लिए इनलोगों ने रामायण, महाभारत, पुराणों, उपनिषदों, मनुस्मृति आदि पवित्र ग्रन्थों में अपनी सुविधा के अनुसार प्रसंग जोड़ दिए। जिसे शूद्रों से द्वेष था उसने मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम से शूद्र तपस्वी शंबूक का वध करा दिया और मनुस्मृति में फ़तवा लिखवा दिया कि अगर शूद्र ने गलती से भी वेद मंत्रों का उच्चारण सुन लिया हो, तो उसके कान में पिघला हुआ सीसा डाल दिया जाय। भगवान श्रीकृष्ण ने गीता में स्पष्ट कहा है कि चारों वर्णों की रचना गुण और कर्म के आधार पर की गई है। हमारे Elite class  ने इसे जन्मना बना दिया। किसी विद्वान को नारियों से घृणा थी, तो भगवान श्रीराम से गर्भवती सीता का परित्याग करा दिया। गोस्वामी तुलसीदास जी ने इन प्रक्षेपों को अपने ग्रन्थ में स्थान नहीं दिया, तो श्री रामचरित मानस को शास्त्र का दर्ज़ा देने से काशी के Elite class ने इन्कार कर दिया। तर्क दिया गया कि गंवारू भाषा में लिखा गया ग्रन्थ कभी शास्त्र नहीं बन सकता। गोस्वामी जी के चरित्र हनन के लिए उनके श्रीरामकथा वाचन के दौरान वेश्याओं को भेजा गया, उनपर प्राणघातक हमले कराए गए, और वहिष्कार किया गया (सन्दर्भ – मानस का हंस, लेखक अमृत लाल नागर)। किंवदंतियों के अनुसार काशी में श्री रामचरित मानस पर बाबा विश्वनाथ के हस्ताक्षर के पश्चात ही, लंबे संघर्ष के बाद ब्राह्मणों ने मानस और इसके रचयिता को मान्यता प्रदान की। भाषा विशेष के आधार पर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करने और अपनी आजीविका को सुरक्षित रखने की भारत में परंपरा रही है। अंग्रेजों ने इस मानसिकता का दोहन करके ही इस देश में अंग्रेजी को स्थापित किया। काले अंग्रेजों ने इस नीति का समर्थन किया। गुलाम भारत में अंग्रेजी के काम चलाऊ ज्ञान के बल पर बड़ी से बड़ी नौकरी प्राप्त की जा सकती थी और आज़ाद भारत में भी प्राप्त की जा सकती है। लार्ड मैकाले ने भारत को हमेशा के लिए मानसिक गुलाम बनाने के लिए ब्रिटिश संसद में अंग्रेजी को अनिवार्य बनाने हेतु प्रस्ताव रखा, जिसे वहां की सरकार और संसद ने ज्यों का त्यों स्वीकार कर लिया। अंग्रेजी भारत की राजभाषा बन गई और व्यवहारिक रूप में आज भी राज भाषा ही है।

कई सौ सालों के अथक प्रयास के बावजूद भी अंग्रेजी आज तक जनभाषा नहीं बन पाई। कर्नाटक के कुछ गावों में आज भी संस्कृत जनभाषा है, परन्तु भारत के एक भी गांव में अंग्रेजी जनभाषा नहीं है। इसे आज भी मात्र तीन प्रतिशत लोग ही समझ पाते हैं। लेकिन यह भाषा ब्यूरोक्रेसी और Elite class  के माफ़िक बैठती है। क्या यह हास्यास्पद नहीं है कि अपनी ज़मीन गिरवी रखकर न्याय की तलाश में हाई कोर्ट या सुप्रीम कोर्ट पहुंचा ठेठ भारतीय आश्चर्य से काले कोट पहने अपने वकीलों की दलीलें उस भाषा में सुनने के लिए वाध्य है, जिसे न वह समझ सकता है और न लिख सकता है। न्यायाधीश जिस भाषा में न्याय लिखता है उसे पढ़वाने और समझने के लिए भी उसे पैसे खर्च करने पड़ते हैं। यह कैसा न्यायालय है जिसमें न्यायाधीश से अपनी फ़रियाद करने के लिए अंग्रेजी बोलने वाले और काला कोट पहनने वाले एक एजेन्ट की जरुरत पड़ती है। फ़रियादी यह समझ ही नहीं पाता है कि उसके पैसे के बल पर दिल्ली में आलिशान कोठी में रहने वाला उसका वकील जिरह के दौरान उसके पक्ष में बोल रहा था या अधिक पैसे लेकर विरोधी के पक्ष में। क्या आपको पता है कि सुप्रीम कोर्ट के नामी वकील एक सुनवाई के लिए कितने रुपए लेते है? मात्र तीस लाख। यह काला धन उन्हें हिन्दी नहीं दिलवा सकती। अतः कोर्ट में अंग्रेजी ही चलेगी। यह भाषा आज के Elite class,  यथा ब्युरोक्रेट्स, टेक्नोक्रेट्स, स्विस बैंक एकाउंट होल्डर, स्वार्थी तत्त्वों और मानसिक गुलामों को रास आती है। दुर्भाग्य से ९७% स्वभाषा प्रेमियों पर आज भी ३% काले अंग्रेज ही शासन कर रहे हैं अतः अभी कोई परिवर्तन दृष्टिगत नहीं हो रहा।  ऐसा इसलिए क्योंकि आज भी नेहरू का जिन्न संसद से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक हावी है। लेकिन गांधी की आंधी को ये टाट के पर्दे हमेशा के लिए नहीं रोक पाएंगे। परिवर्तन अवश्यंभावी है –

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विपिन किशोर सिन्हा
जन्मस्थान - ग्राम-बाल बंगरा, पो.-महाराज गंज, जिला-सिवान,बिहार. वर्तमान पता - लेन नं. ८सी, प्लाट नं. ७८, महामनापुरी, वाराणसी. शिक्षा - बी.टेक इन मेकेनिकल इंजीनियरिंग, काशी हिन्दू विश्वविद्यालय. व्यवसाय - अधिशासी अभियन्ता, उ.प्र.पावर कारपोरेशन लि., वाराणसी. साहित्यिक कृतियां - कहो कौन्तेय, शेष कथित रामकथा, स्मृति, क्या खोया क्या पाया (सभी उपन्यास), फ़ैसला (कहानी संग्रह), राम ने सीता परित्याग कभी किया ही नहीं (शोध पत्र), संदर्भ, अमराई एवं अभिव्यक्ति (कविता संग्रह)

1 COMMENT

  1. न्यायालय में दिया गया निर्णय यदि वादी-प्रतिवादी को समझ में न आए तो वह अन्याय ही नहीं अपराध भी है.

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