दारुल उलूम का फतवा स्थापित कर सकता है सौहाद्र का नया इतिहास

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प्रवीण गुगनानी

भारतीय मुसलमानों को छोड़ना चाहिए अंग्रेजों की दी हुई गौमांस की कुटेव

गौवंश वध हमारें विशाल लोकतान्त्रिक देश भारत के लिए अब एक चुनौती बन गया है. देश में प्रतिदिन शासन प्रशासन के सामनें गौ वध और अवैध गौ तस्करी के मामलें न केवल दैनंदिन के प्रशासनिक कार्यों के बोझ और चुनौती को बढ़ातें हैं बल्कि सामाजिक समरसता, सौहाद्र और सद्भाव के वातावरण में भी जहर घोलनें वालें सिद्ध होते हैं. मुस्लिमों के बड़े त्यौहार बकरीद के एन पहले कल ही देवबंद की सर्वमान्य और मुस्लिम विश्व की प्रतिष्ठित और गणमान्य संस्था दारूल उलूम ने गौ वध के सन्दर्भों में एक बड़ी, सार्थक और सद्भावी पहल जारी की है. दारूल उलूम के जनसंपर्क अधिकारी अशरफ अस्मानी ने एक आधिकारिक अपील जारी करते हुए कहा है कि गाय हिन्दू समाज के लिए पूज्यनीय विषय है और मुसलमानों को हिन्दू भाइयों की भावनाओं का सम्मान करते हुए गौ मांस का उपयोग नहीं करना चाहिए. देवबंद की ही दूसरी शीर्ष मुस्लिम संस्था जो कि देवबंदी मुसलक की शिक्षा व्यवस्था संभालती है “दारूल उलूम वक्फ” ने भी सम्पूर्ण भारत के मुसलमानों से इस आशय की अपील जारी करते हुए गौ मांस का उपयोग नहीं करने की सलाह दी है.

गौ वध को लेकर भारत के अधिकाँश क्षेत्रों में प्रायः हिन्दू मुसलमान आमने सामने तनाव की मुद्रा में खड़े कानून व्यवस्था को चुनौती देते दिखाई देते हैं. स्वतन्त्रता प्राप्ति के तुरंत बाद के दिनों में कश्मीर पर हुए पाकिस्तान के पहले हमले के बाद 4 जनवरी 1948 को महात्मा गांधी ने अपनी शाम की प्रार्थना सभा में बोलते हुए कहा था कि आओ हम ईश्वर से प्रार्थना करें कि वह हमें ऐसी शक्ति दे कि या तो हम (भारत और पाकिस्तान या हिन्दू और मुसलमान) एक दूसरे के साथ मैत्रीपूर्वक रहना सीख लें और यदि हमें लड़ना ही है, तो एक बार आर-पार की लड़ाई कर लें। यह बात मूर्खतापूर्ण लग सकती है, लेकिन देर-सबेर इससे हममें शुद्धता आ जाएगी (लेट अस प्रे टू गॉड इज टु ग्रांट दैट वी मे आइदर लर्न टु लिव इन एमिटी विद ईच अदर आॅर इफ वी मस्ट फाइट टू लेट अस फाइट टु द वेरी एंड दैट मे बी फॉली बट सूनर आॅर लेटर इट विल प्योरीफाई अस). निश्चित तौर पर उन्हें यही आशा रही होगी कि हम मैत्री पूर्वक रहें और एक दुसरे के धार्मिक विश्वासों का आदर करते हुए अपने अपने आचरण में शुद्धता लायें. दारूल उलूम का हाल ही में जारी यह फतवा मुस्लिमों के आचरण के शुद्धिकरण के साथ साथ आपसी सद्भाव और सामाजिक समरसता का एक बड़ा औजार सिद्ध हो सकता है.

वैसे मुस्लिमों में गौ मांस की परम्परा बहुत पुरानी नहीं है बल्कि यह डिवाइड एंड रुल की ब्रिटिश कालीन विघटनकारी नीति का उत्पादित विचार है. गाय के सम्बन्ध में मुस्लिम इतिहास कुछ और ही कहता है. मुस्लिम शासकों ही नहीं बल्कि कई मुस्लिम संत भी ऐसे हुए हैं जिन्होनें अपने उपदेशों में गाय और गौ वंश के सन्दर्भों में सार्थक बातें की हैं. उदहारण स्वरुप उम्मुल मोमिनीन (हज़रत मुहम्मद साहब की पत्नी), नबी-ए-करीम हज़रत मुहम्मद सलल्लाह,(इबने मसूद रज़ि व हयातुल हैवान) आदि ने गौमांस भक्षण की आलोचना और गाय के दूध घी को ईश्वर का प्रसाद बताया है. मुस्लिमों के पवित्र ग्रन्थ कुरान में सात आयतें ऐसी हैं, जिनमें दूध और ऊन देने वाले पशुओं के प्रति कृतज्ञता प्रकट की गई है और गौवंश से मानव जाति को मिलने वाली सौगातों के लिए उनका आभार जताया गया है.

वस्तुतः भारत में गौ हत्या को बढ़ावा देने में अंग्रेजों ने अहम भूमिका निभाई. जब सन 1700 में अंग्रेज़ भारत में व्यापारी बनकर आए थे, उस वक्त तक यहां गाय और सुअर का वध नहीं किया जाता था. हिन्दू गाय को पूजनीय मानते थे और मुसलमान सुअर का नाम तक लेना पसंद नहीं करते, लेकिन अंग्रेज़ इन दोनों ही पशुओं के मांस के शौकीन थे और उन्हें इसमें भारत पर कब्जा करनें हेतु विघटन कारी नीतियों के बीज बोने का मौका भी दिखा. उन्होंने मुसलमानों को भड़काया कि कुरान में कहीं भी नहीं लिखा है कि गौवध नहीं करना चाहिए. उन्होंने मुसलमानों को गौमांस का व्यापार करनें हेतु लालच भी दिया और कुछ लोग उनके झांसे में आ गए. इसी तरह उन्होंने दलित हिन्दुओं को सुअर के मांस की बिक्री कर मोटी रक़म कमाने का झांसा दिया.

उल्लेखनीय है कि यूरोप दो हज़ार बरसों से गाय के मांस का प्रमुख उपभोक्ता रहा है. भारत में भी अपने आगमन के साथ ही अंग्रेज़ों ने यहां गौ हत्या शुरू करा दी और 18वीं सदी के आखिर तक बड़े पैमाने पर गौ हत्या होने लगी. यूरोप की ही तर्ज पर अंग्रेजों की बंगाल, मद्रास और बम्बई प्रेसीडेंसी सेना के रसद विभागों ने देशभर में कसाईखाने बनवाए. जैसे-जैसे भारत में अंग्रेजी सेना और अधिकारियों की तादाद बढ़ने लगी वैसे-वैसे ही गौहत्या में भी बढ़ोतरी होती गई. ख़ास बात यह रही कि गौहत्या और सुअर हत्या की वजह से अंग्रेज़ों की हिन्दू और मुसलमानों में फूट डालने का भी मौका मिल गया. इसी दौरान हिन्दू संगठनों ने गौहत्या के ख़िलाफ़ मुहिम छेड़ दी थी तब आखिरकार महारानी विक्टोरिया ने वायसराय लैंस डाऊन को पत्र लिखा. पत्र में महारानी ने कहा-”हालांकि मुसलमानों द्वारा की जा रही गौ हत्या आंदोलन का कारण बनी है, लेकिन हकीकत में यह हमारे खिलाफ है, क्योंकि मुसलमानों से कहीं ज्यादा हम गौ हत्या कराते हैं. इसके जरिये ही हमारे सैनिकों को गौ मांस मुहैया हो पाता है.”

आखिरी मुगल बादशाह बहादुर शाह जफ़र ने भी 28 जुलाई 1857 को बकरीद के मौके पर गाय की कुर्बानी न करने का फ़रमान जारी किया था. साथ ही यह भी चेतावनी दी थी कि जो भी गौहत्या करने या कराने का दोषी पाया जाएगा उसे मौत की सज़ा दी जाएगी. इसके बाद 1892 में देश के विभिन्न हिस्सों से सरकार को हस्ताक्षर-पत्र भेजकर गौ हत्या पर रोक लगाने की मांग की जाने लगी. इन पत्रों पर हिन्दुओं के साथ मुसलमानों के भी हस्ताक्षर होते थे. इस समय भी मुस्लिम राष्ट्रीय मंच द्वारा देशभर के मुसलमानों के बीच एक हस्ताक्षर अभियान चलाया जा रहा है, जिसमें केंद्र सरकार से गाय को राष्ट्रीय पशु घोषित करने और भारतीय गौवंश की रक्षा के लिए कठोर कानून बनाए जाने की मांग की गई है.

निश्चित ही भारत में रह रहे मुस्लिम बंधु राष्ट्रव्यापी निर्णय लेकर और इन एतिहासिक और शरियत के तथ्यों को पहचान कर भारत के बहुसंख्य समाज की आराध्या और श्रद्धा केंद्र के साथ ग्रामीण और कृषि अर्थव्यवस्था की रीढ़ “गाय और गौ वंश” के सन्दर्भों में यदि सकारात्मक और सद्भावी निर्णय लेते हैं और गौ वध नहीं करनें की शपथ लेते हैं तो यह ब्रिटिश कालीन विघटन कारी नीतियों के भारत से विदाई का अवसर ही कहलायेगा और भारत में साम्प्रदायिक सौहाद्र और सद्भाव की नई बयार बहायेगा. भारतीय मुसलामानों को यह विचार करना ही होगा कि अंग्रेजों की देन इस गौमांस भक्षण को वे जितनी जल्दी त्याग दें उतना ही उत्तम होगा. दारुल उलूम का ईदुज्जुहा के अवसर पर जारी यह फतवा भारतीय मुसलामानों में गौवंश के प्रति आस्था विश्वास और श्रद्धा जागृत करगा ऐसी आशा और विश्वास है.

3 COMMENTS

  1. ऐसा समझ में आ रहा है की भारतवासी अधिकतर दूसरों की बातों से ज्यादा प्रभावित हो जाते हैं. इसका एक कारण तो प्रत्यक्ष है की उन्हें स्वयं पर विश्वास जो नहीं है और वह गोरे रंग के लोगों को अपने से ज्यादा उच्च समझते हैं. भारतीय मुसलमान भी मूलतः किसी समय हिन्दू ही थे. ऐसा लगता है की कुछ मुस्लिम भाई शायद कुरान शरीफ को ठीक से नहीं पढ़े हैं. शायद यह भी एक वजह हो सकती है जिससे अँगरेज़ सरकार ने इस बात का ग़लत फायेदा उठाते हुए मुस्लिम लोगों को हमारे खिलाफ भड़काया और हम सभी को आपस में भिड़ाया.
    वहीँ दूसरी तरफ हिन्दू लोग भी धर्म भीरु हैं जिसकी वजह से अंग्रेजों ने मूर्ख बना कर उन्हें मुस्लिमों के खिलाफ भड़का दिया.
    अगर आज भी मुस्लिम बोर्ड यह मानता है की गाय न सिर्फ हिन्दू बल्कि स्वयं मुसलमानों के लिए भी एक पवित्र जीव है तो इससे बढ़कर क्या बात हो सकती है. गाय को वैज्ञानिक तौर पर भी बहुत उच्च कोटि का प्राणी समझा जाता है. उसका न सिर्फ दूध बल्कि मूत्र और गोबर भी औषधि के रूप में इस्तेमाल किया जाता है. सिर्फ यही नहीं बल्कि गाय एक ममतापूर्ण प्राणी भी है जो सदैव अपने स्वामी के प्रति प्रेम भावना रखती है. ऐसे कई उदाहरण पढने में मिले है जहाँ एक मुस्लिम स्वामी अपनी गाय को कसाई के हाथों बेचना चाहता है पर फिर भी गाय ने यह सब समझते हुए उसे किसी बड़े संकट से बचाया. जसकी वजह से उस आदमी कि आँखें खुल जाती है और वह फिर से गाय को अपने संरक्षण में ले लेता है. शायद यही कारण है कि गाय को हम माता का दर्जा देते हैं और उसकी पूजा करते हैं.

  2. अगर इस तरह का फ़तवा जारी किया गया है, तो वह स्वागत के योग्य है। जिस दिन मुसलमान शन्तिपूर्ण सह अस्तित्व और दूसरे धर्मावलंबियों की भावनाओं का सम्मान करना शुरु कर देंगे, उसी दिन विश्व शान्ति की स्थापना हो जाएगी।

  3. पिछले दो वर्षों से देवबंद स्थित दारुल उलूम द्वारा बकरीद के अवसर पर इस आशय की अपील जारी की जाती है. ये एक अच्छी बात है. देश में सद्भाव का वातावरण निर्माण करने में ये सहायक होगा. मुग़ल बादशाहों ने देश में गोहत्या पर रोक लगा रखी थी.एक बात और. १९८२ में मेरठ में शाह्घासा में एक मंदिर को लेकर सांप्रदायिक उन्माद उत्पन्न हो गया था. उस समय कांग्रेस के वरिष्ट नेता और भूतपूर्व केन्द्रीय मंत्री जनरल शाहनवाज ने स्व.इंदिरा गाँधी को एक पात्र लिखा था जिसके उत्तर में इंदिरा जी ने लिखा था की सांप्रदायिक सौहार्द के लिए सबसे जरूरी है की हम अपने पडोसी की भावनाओं का सम्मान करें.दुर्भाग्य से वोट की राजनीती के कारण कुछ राजनीतिक दलों द्वारा समाज में विद्वेष उत्पन्न किया गया. ये एक एतिहासिक सत्य है की इस देश के मुस्लिमों के पूर्वज हिन्दू ही थे और अतीत में छल, बल से उनका मतान्तरण हुआ था. सभी मुस्लिमों का डी एन ए हिन्दुओं के सामान ही है ऐसा अभी हेदराबाद स्थित एक प्रयोगशाला द्वारा पांच लाख लोगों के रक्त का परिक्षण करके प्रमाणित किया है. अतः देश के हित में ये आवश्यक है की मुस्लिम समाज को भी अपने पूर्वजों के प्रति सम्मान का भाव रखते हुए ऐसे कार्यों से तौबा करनी चाहिए जिनसे सामाजिक वैमनस्य पैदा हो या बढे.दारुल उलूम को सामयिक ‘फतवे’ के लिए साधुवाद.

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