आधुनिक समाज में भी हावी दहेज प्रथा

सुमन कुमारी

तेजी से हो रहे वैज्ञानिक उपलब्धियों, तकनीकी बदलावों इतना तो स्पष्‍ट है कि मनुष्‍य विकास की ओर अग्रसर है, पर यह स्पष्‍ट नहीं है कि उसकी दिशा ठीक है भी या नहीं? 21वीं सदी में विकास का पैमाना तय करने के बावजूद हम तर्कसंगत विकास की अवधारणा प्रस्तुत नहीं कर सकते हैं क्यूंकि अब भी हमारे सामने कई ऐसी चुनौतियां हैं जिस पर काबू पाना हमारी पहली प्राथमिकता होनी चाहिए। एक तरफ हम विकास की नई सीढ़ियों पर कदम रख रहें हैं तो दूसरी ओर पुरानी प्रथाओं और सामाजिक विसंगतियों को ढ़ो रहे हैं। हमारे देश में ऐसी कई प्रथाएं हैं जिसके भीतर जाने कितनी बुराइयां भरी पड़ी हैं। इन्हीं में दहेज भी एक है। जो धीरे-धीरे हमारे समाज में महामारी का रुप धारण कर चुकी हैं। ऐसी महामारी जो रोज कई मासूमों को निगल रही है जिनका कोई दोष नहीं होता है। दहेज की यह लानत कोई नई प्रथा नहीं है और न ही यह पश्चिम की देन है। बल्कि यह तो स्वंय हमारी संस्कृति का एक विकृत स्वरूप है। फर्क सिर्फ इतना है कि तब मकसद कुछ और था और आज कुछ और हो चुका है। विवाह के समय अपनी लाडो को खाली हाथ कैसे विदा करे जिस कारण हमारे पूर्वज अपनी इच्छानुसार बेटी को भेंट दिया करते थे। परंतु अब यह स्टेटस सिंबल बन चुका है।

कहा तो यह जाता है कि इंसान शिक्षा प्राप्त करने के बाद अच्छे और बुरे में फर्क करना सीख जाता है। शिक्षा बुराईयों को खत्म करने का सबसे कारगर हथियार है। परंतु यही शिक्षा दहेज जैसी सामाजिक बुराई को खत्म करने में असफल साबित हुई है। दूसरे शब्दों में षिक्षित वर्ग में ही यह गंदगी सबसे ज्यादा पाई जाती है। आज हमारे समाज में जितने शिक्षित और सम्पन्न परिवार है, वह उतना अधिक दहेज पाने की लालसा रखता है। इसके पीछे उनका यह मनोरथ होता है कि जितना ज्यादा उनके लड़के को दहेज मिलेगा समाज में उनके मान-सम्मान, इज्जत, प्रतिष्‍ठा में उतनी ही चांद लग जाएगी। एक डॉक्टर, इंजीनियर लड़के के घरवाले दहेज के रूप में 15-20 लाख की मांग करते है, ऐसे में एक मजबूर बेटी का बाप क्या करे? बेटी के सुखी जीवन और उसके सुनहरे भविष्‍य की खातिर वे अपनी उम्र भर की मेहनत की कमाई एक ऐसे इंसान के हाथ में सौंपने के लिए मजबूर हो जाते हैं जो शायद उनके बेटी से ज्यादा उनकी पैसों से शादी कर रहे होते है। इच्छा तो हर ईंसान के मन में पनपती है, चाहे वह अमीर हो या गरीब। जिनके पास ढ़ेर सारा पैसा है वह अपनी लड़की का शादी एक अच्छे परिवार में कर देते हैं। परंतु वे लोग उन बेबस लाचार पिता के बारे में कभी क्यों नहीं सोचते जिनके पास पैसे तो नहीं है पर इच्छाएं तो उनकी भी होती हैं। उनकी बेटियां भी सर्वगुण संपन्न होती हैं। देखा जाये तो दहेज प्रथा को बढ़ावा देने में स्वंय लड़की वाले भी कहीं न कहीं जिम्मेदार होते हैं। लड़के वालों की सभी मांगें पूरी करते है, तभी तो वे अत्याधिक डिमांड की उम्मीद रखते है। अगर स्वंय लड़की वाले इसके खिलाफ हों जाएं तो कोई भी केवल दहेज की मोटी रकम की खातिर अपने बेटे को उम्रभर कुंवारा बैठाना पंसद नहीं करेगा। यह किसी एक की कोशिश से मुमकिन नहीं होगा बल्कि इस कुप्रथा को खत्म करने के लिए पूरे समाज का साथ होना जरुरी होता है।

वास्तव में दहेज प्रथा की वर्तमान विकृती का मुख्य कारण नारी के प्रति हमारा पारंपरिक दृष्टिकोण भी है। एक समय था जब बेटे और बेटी में कोई अंतर नहीं माना जाता था। परिवार में कन्या के आवगमन को देवी लक्ष्मी के शुभ पदार्पण का प्रतीक माना जाता था। धीरे-धीरे समाज में नारी के अस्तित्व के संबंध में हमारे समाज की मानसिकता बदलने लगी। कुविचार की काली छाया दिन-ब-दिन भारी और गहरी पड़ती चली गई। परिणामस्वरूप घर की लक्ष्मी तिरस्कार की वस्तु समझी जाने लगी। नौबत यहां तक आ गई कि हम गर्भ में ही उसकी हत्या करने लगे। अगर हम गौर करें तो पायेंगे कि भ्रूण हत्या भी कहीं न कहीं दहेज का ही कुपरिणाम है। दहेज प्रथा की यह विकृति समाज के सभी वर्गों में समान रूप से घर कर चुकी है। उच्चवर्ग तथा कुछ हद तक निम्नवर्ग इसके परिणामों का वैसा भोगी नहीं है जैसा कि मध्यमवर्ग हो रहा है। इसके कारण पारिवारिक और सामाजिक जीवन में महिलाओं की स्थिति अत्यंत शोचनीय बनती जा रही है। आए दिन ससुराल वालों की ओर से दहेज के कारण जुल्म सहना और अंत में जलाकर उसका मार दिया जाना किसी भी सभ्य समाज के लिए बड़ी शर्मनाक बात है।

दहेज के खिलाफ हमारे समाज में कई कानून बने लेकिन इसका कोई विशेष फायदा होता नजर नहीं आता है।

 

जगह-जगह अक्सर यह पढ़ने को तो मिल जाता है ”दहेज लेना या देना अपराध है” परंतु यह पंक्ति केवल विज्ञापनों तक ही सीमित है, आज भी हमारे चरित्र में नहीं उतरी है। आवश्‍यकता है एक ऐसे स्वस्थ सामाजिक वातावरण के निर्माण की जहां नारी अपने आप को बेबस और लाचार नहीं बल्कि गौरव महसूस करे। जहां उसे नारी होने पर अफसोस नहीं गर्व हो। उसे इस बात का एहसास हो कि वह बोझ नहीं सभ्यता निर्माण की प्रमुख कड़ी है। वास्तव में दहेज जैसी लानत को जड़ से खत्म करने के लिए युवाओं को एक सशक्त भूमिका निभाने की जरूरत है। उन्हें समाज को यह संदेश देने की आवश्‍यकता है कि वह दहेज की लालसा नहीं रखते हैं अपितु वह ऐसा जीवनसाथी चाहते हैं जो पत्नी, प्रेयसी और एक मित्र के रूप में हर कदम पर उसका साथ दे। चाहे वह समाज के किसी भी वर्ग से संबंध रखती हो। (चरखा फीचर्स)

3 COMMENTS

  1. दहेज़ की प्रथा का संबध हमारे दकिया नुसी विचारों से है.बेटे बेटी को समान महत्व दीजिये .बेटी को उच्च शिक्षा दिलाइये .उसको अपना जीवन साथी चुनने की आजादी दीजिये.यह प्रथा धीरे धीरे अपने आप समाप्त हो जायेगी.सबसे बड़ी बात बेटी और बेटे के विवाह का माप दंड एक रखिये न बेटी की शादी में दहेज़ दीजिये और न बेटे की शादी में लीजिये..

  2. अच्छा रिश्ता अच्छे दहेज़ से नहीं मिलता. वधु पक्ष को भी लालच से बचकर संस्कार और सही अर्थों में शिक्षित वर की तलाश करनी होगी.

  3. सुमन जी अच्छा लेख बधाई

    एक बात समझ में नहीं आई आपके अनुसार लड़की वाले भी दहेज़ को बढावा देते है
    यह बात शत प्रतिशत सही है किन्तु आपने जो उदाहरन दिया वह कतई उचित नहीं है .
    क्या डाक्टर इंजीनियर ही उचित वर की श्रेणी में सुमार होते है
    यदि हा तो फिर दहेज़ उत्पीडन के सबसे ज्यादा मामले इन्ही के खिलाफ क्यों होते है .
    दहेज़ सर्वथा अनुचित है किन्तु जब देनेवाला दोनों हाथो लुटाने को तैयार है तो इसमें लेने वाले का क्या दोष .
    अस्तु एक पिता पति होने के नाते बस इअतना ही कहना चाहूँगा लालच बुराई की जड़ है इससे सर्वप्रथम तो लड़की के पिता को बचाना चाहिए जो अति लालसा में अंधे होकर अपनी लड़की के भविष्य का निर्धारण करते है .

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