आलोचना

अभिव्यक्ति का मतलब अश्लीलता तो नहीं…

-गिरीश पंकज

अपने देश में इन दिनों अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर जिस तरह की लंपटताई का खेल चल रहा है, उसे देख कर खीझ होती है। कुछ तथाकथित प्रगतिशील लोगों के कारण समाज का एक नया बौद्धिक वर्ग अश्लील अभिव्यक्तियों को ही आधुनिक होने की गारंटी समझ रहा है। आप अपनी तमाम काली करतूतों का बखान करके बोल्ड बन सकते हैं। बोल्ड कहलाने के नाम इधर कुछ लेखिकाओं की कहानियों में इतनी भयानक अश्लीलताएँ नजर आती है, कि हैरत होती है। जो बातें पुरुष लिखने में संकोच करता है, उसे ये लेखिकाएँ धड़ल्ले से लिख रही हैं। सिर्फ इसलिए कि लोग उन्हें बोल्ड, अत्याधुनिक, मॉडर्न आदि जुमलों से नवाजेंगे। अभी मैं एक ‘ब्लॉग’ देख रहा था। एक नई युवती की हर दूसरी कविता में संभोग, वीर्यपात, हस्तमैथुन आदि शब्दों की बहुलता देखकर मैं चकित रह गया। दु:ख की बात यह है कि उसे प्रोत्साहित करने वाले कमेंट्स भी आ रहे थे। ”अतिसंदर”…”साहसपूर्ण”.. ”बधाई”….आदि-आदि। इन दिनों यही सब चल रहा है। लगता है, कि एक बारीक साजिश हो रही है, कि कैसे भारतीय समाज की नैतिक अवधारणाएँ तार-तार हों। एक शिगूफा कोई छोड़ता है तो धीरे-धीरे विवेकशून्य जमात उस रास्ते पर चलने लगती है।

बात ज्यादा पुरानी नहीं है, जब एक तथाकथित साहित्यिक पत्रिका में कुछ लेखक अपनी आत्मकथा कह रहे थे। वे अपने काले कारनामों को बेशरमी के साथ लिख करे थे। और उनको वाह-वाही भी मिल रही थी। एक लेखक-पत्रकार ने कभी छत्तीसगढ़ आ कर यहाँ की कुछ महिलाओं के साथ दैहिक संबंध बनाए थे, उसका जिक्र वे कुछ इस अंदाज से कर रहे थे, गोया उन्होंने दो-चार नक्सली मार गिराए हों,या कोई समाजिक परोपकार का काम कर दिया हो। अभी एक पखवाड़े पहले ही रायपुर में हुए संपन्न हुए एक साहित्यिक आयोजन में एक कवि-आलोचक भाषण देते हुए बता रहे थे, कि मुझे एक दिन फलाने का नाम याद नहीं आया तो उस दिन मैं कुछ ज्यादा शराब पी गया। ऐसा बोल कर वे यह बताने की कोशिश ही कर रहे थे, कि देखो, मैं कितना सत्यवादी हूँ। आपने तो बड़ी बहादुरी का काम कर दिया, लेकिन उसका खामियाजा कौन भुगतेगा, इस पर भी विचार किया है? नये लेखक-पत्रकार तो यही सोचेंगे, कि जब ये सब (तथाकथित)बड़ा लेखक कर सकता है, तो हम क्यों संकोच करें? दरअसल यह समय पूरी बेशर्मी केसाथ अपने छिछोरेपन को बताकर बोल्ड होने का है। देवी-देवताओं के अश्लील चित्र बनाना और विरोध हो तो कहना ये तो अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता पर हमला हो जाता है। अभिव्यक्तिकी स्वतंत्रता के नाम पर किसी ने कभी यह क्यों नहीं किया, कि अपनी माँ-बहिन के ही अश्लील चित्र बना देता। वहाँ तो विवेक काम करता है, कि ऐसा नहीं करना चाहिए, लेकिन दूसरों की आस्थाओं के प्रतीक चिन्हों को निर्वस्त्र करने में विवेक को लकवा मार जाता है? वहाँ आप अभिव्यकित की स्वतंत्रता के पैरोकार हो जाते हैं? मतलब साफ है कि ये सब जानबूझ कर, सस्ती लोकप्रियता प्राप्त करने के लिए ही की जाती है।

हम लोग एक ऐसे समय में जी रहे हैं, जहाँ अब साहित्य और समाज में अश्लीलता, पतन, व्यभिचार आदि को जैसे अघोषित तौर पर सार्वजनिक स्वीकृति मिल चुकी है। लोग कुछ बोलते नहीं। मौन स्वीकृति का ही एक लक्षण माना जाता है। मतलब क्या समझें कि समाज भी यही सब चाहता है? इधर की कुछ फिल्मों में भी अश्लील दृश्य एवं गालियों की भरमार थी। ये फिल्में चली भीं, लेकिन इनका व्यापक विरोध नहीं हुआ। लिखित साहित्य में तो पिछले एक दशक से अश्लीलता परोसी जा रही है। लेकिन इसका प्रतिवाद देखने को नहीं मिलता। कभी-कभार कोई विरोधी-स्वर उठता है तो कहा जाता है, कि यह कहानी की मांग थी, या उस पात्र का चरित्र ही ऐसा है। जैसा चरित्र है, वैसी भाषा है। बात ठीक है, लेकिन क्या गालियाँ संकेतों में नहीं दी जा सकती थी। बेडरूम सीन के लिए क्या यह जरूरी है,कि उसका सविस्तार वर्णन ही किया जाए? क्या लेखक चुक गए है, क्या उन्हें पाठकों या दर्शकों की कल्पनाशीलता पर भरोसा नहीं रहा? कुछ चीजें तो लोगों के लिए भी छोड़ दिया जाए। मेरे अपने लेखन के दौरान में ऐसे अनेक अवसर आए जब लगा कि चरित्र के अनुरूप लिखना चाहिए, लेकिन अश्लीलता का खतरा था। मुझे लगा कि यह सृजन की मर्यादा के विपरीत आचरण होगा, इसलिए उन दृश्यों को मैंने खुद संपादित कर दिये और प्रतीकों से काम चला लिया। लेकिन इस वक्त तथाकथित लंपट आलोचक और कुछ संपादक चरित्रहीनता को बढ़ावा देने के लिए यही कहते हैं, कि संकोच मत करो, खुल कर लिखो। बोल्ड बनो। दकियानूसी भाषा के सहारे कब तक साहित्य चलेगा। शालीनता अब मध्ययुगीन मुहावरा है। पिछड़ापन है. आधुनिक होना है तो अश्लीलता की चिंता मत करो। इन सब बातों का इतना असर हुआ है कि इधर जो लेखन हो रहा है, उनमें लेखिकाएँ ज्यादा अश्लील होकर सामने आ रही हैं। इनका विरोध करने पर आपको प्रतिक्रियावादी, पुरातनपंथी, तालिबानी और न जाने कैसे-कैसे विशेषणों से नवाजा जा सकता है। लेकिन मेरी अपनी मान्यता है कि खतरे उठा कर भी मूल्यों के खिलाफ हो रहे लेखन या सृजन का विरोध किया जाना चाहिए।

यह ध्यान रखना चाहिए कि हमारे देश की अपनी एक सांस्कृतिक पहचान है। उसकी वैश्विक गरिमा है। पश्चिम की अपनी आधुनिकता है,लेकिन हमारे अपने संस्कार हैं। पश्चिम में नाबालिग लड़की आए दिन माँ बन जाती है। हम इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते। लेकिन अब तो अपने देश में भी ऐसी खबरें आने लगी है। यह सब हमारी नई जीवन-शैली के दुष्परिणाम हैं। यह सब इसलिए हो रहा है, कि हम धीरे-धीरे वर्जनाविहीन समाज की ओर बढ़ रहे हैं। बहुत-से घर-परिवारों में अश्लीलता, शराबखोरी, माँसाहार आदि आम बात है। शरीर को दिखाने वाले कपड़े तो अब घर-घर की कहानी हो गई है। शरीर आगे से झाँकता है, पीछे से झाँकता है, इधर से दिखता है तो उधर से दिखता है। लोगों की नजरे घूरती हैं,लेकिन यह बात माता-पिता को क्या समझ में नहीं आती? समझ में तो आती है,लेकिन वे टोकेंगे तो लोग कहने लगेंगे कि देखो, कितने पिछड़े हुए खयालात हैं। यहीं पर हम लोग मार खा रहे हैं। शालीनता अब उपहास का विषय और अशालीनता गौरव की बात होती जा रही है। यह समय सज्जन लोगों का नहीं रहा। जो सीधा है वो मूर्ख है। जो नैतिक है वो बेकार है। जो ईमानदार है, वह मिसफिट है। जो सच्चा है, वह पागल है। जो हिम्मती है, वह अपने पैरों पर कुल्हाड़ी मार रहा है। अब लोग चालाकी से काम लेते हैं। इधर की कुछ लेखिकाएँ देहदान के मामले में बड़ी उदार हो गई हैं। पुरस्कार मिले, प्रकाशन हो, सम्मान मिलेगा यश की किसी भी तरह ही गुंजाइश हो तो वे आसानी से ”देह-दान” कर सकती हैं। यह सुनी बात नहीं है, इन आँखों ने यह सब देखा है। इस बाबत् बोल्ड लेखिकाओं के अपने-अपने हास्यास्पद तर्क भी हैं। इन लोगों का दिमाग कुछ आलोचकों एवं संपादकों और आधुनिकतावादियों ने ही खराब किया है। अब यह गंदगी धीरे-धीरे सृजन की पूरी गंगा को मैली करने पर उतारू है। अगर यही रफ्तार रही तो वह दिन दूर नहीं जब हमारा साहित्य, हमारा समाज भारतीय नहीं,पश्चिम-समाज में रूपांतरित हो जाएगा। तब हम गर्व से करते रहें कि ”देखो, हमहू आधुनिक होइ गए हैं” । लेकिन अगर यही रफ्तार बेढँगी रही तो एक दिन पूरी दुनिया हम पर हँसेगी। पश्चिम जो चाहता था,वो हो गया। पश्चिम जीत गया भारत हार गया। यही तो चाहता था मेकाले। भारत को हारना नहीं चाहिए। मूल्य बचे रहें तो बेहतर, लेकिन जब समाज में हमारे अपने लेखक-चिंतक ही छिछोरेपन को, अश्लीलता को आधुनिकता का पर्याय बना कर परोसेंगे, तो हम किससे उम्मीद करेंगे? फिर भी मुझे लगता है, कि कुछ लोग तो इन विसंगतियों को समझने की कोशिश जरूर करेंगे और अराजकताओं का प्रतिकार करके यह दिखा देंगे कि नैतिक-सांस्कृतिक बने रहना भी अपने किस्म की एक आधुनिकता है। धारा के साथ तो कोई भी बह सकता है, लेकिन धारा के विपरीत बहना ही बुद्धिमानी है।