चिंतन

बापू और शास्त्री को जीवन में उतारना

याद करने से ज्यादा जरूरी है

बापू और शास्त्री को जीवन में उतारना

डॉ. दीपक आचार्य

आज का दिन राष्ट्रपति महात्मा गांधी और पूर्व प्रधानमंत्री लालबहादुरशास्त्री के नाम समर्पित है। हम दशकों से कई सारे कार्यक्रमों का आयोजन कर एक दिन इन्हें भरपूर याद कर लिया करते हैं। इस एक दिन में हम दोनों को इतना याद करते हैं जितना पूरे साल भर में नहीं।

जिधर देखो उधर बापू और शास्त्री के नामों, कर्मों और उपदेशों की गूंज। हम इन दोनों महापुरुषों की जयंतियां बड़े धूमधाम से मनाते हैं। जो लोग गांधीवादी हैं वे भी, शास्त्रीवादी हैं वे भी, और जो उभयपक्षीय हैं वे भी, आज के दिन जो कुछ बोलते हैं वह इन दोनों ही महापुरुषों की श्रद्धा में निवेदित होता है। गांधी और शास्त्री राग के सिर्फ गायन के ही हम इतने आदी हो चुके हैं हमसे इन पर कुछ भी भाषण दिलवा दो, जी भर कर दे देंगे।

राष्ट्रपिता महात्मा गांधी और शास्त्रीजी ने जिन नैतिक मूल्यों, मानवीय जीवन के आदर्शों, सिद्धान्तों को अपनाया और ताज़िन्दगी इन पर अड़िग रहते हुए दुनिया को इस राह चलने की बात बतायी, जिन पर हम लगातार लम्बे-चौड़े भाषण देने के आदी हो गए हैं।

सबसे बड़ा प्रश्न यह है कि हम इन दोनों महापुरुषों को अपने जीवन में कितना उतार पाए हैं। यह सवाल ही इतना पेचीदा है कि कोई भी इसका जवाब देने के पहले अपनी आत्मा को टटोलने का साहस करेगा और उसके बाद ही कुछ कह पाने की स्थिति में होगा।

आज का दिन दोनों हस्तियों को सिर्फ याद करने भर का नहीं है बल्कि इनके आदर्शों और सिद्धान्तों को जीवन में उतारने के लिए है। पिछले कई सालों से हम गांधी और शास्त्री के नाम पर कितने ही आयोजन करते आ रहे हैं मगर ज्यों-ज्यों समय बीतता गया हम उनके नाम को ही याद रखते जा रहे हैं, उनकी शिक्षाओं और उपदेशों को भूलते जा रहे हैं।

और यही कारण है कि हम अब जो भी कुछ कर रहे हैं वह नाम के लिए कर रहे हैं, काम के लिए करने का न हमारा इरादा कभी रहा है, न रहेगा। आजकल गांधी और शास्त्री के नाम पर, उनके जीवन और सिद्धान्तों, कर्मयोग और देश को उनकी देन पर हम जितना बोलना चाहिए, उससे भी कहीं ज्यादा बोलने लग जाते हैं और इन विषयों पर बोलते हुए हमें कभी थकान तक नहीं महसूस होती। बल्कि हमारे लिए इन पर बोलना उसी तरह है जैसे किसी हकीकत को छिपाने के लिए चादर का ढंकना।

हमें हमेशा यह भ्रम बना रहता है कि ऐसे महापुरुषों और आदर्शों की बातें करने भर से हमारे दागों भरे चेहरे पर क्रीम लग जाएगा और छवि का शुभ्र दर्शन होगा। हमें जनता की सोनोग्राफीक आँखों के बारे में कुछ भी नहीं पता, जो भीतर तक की हलचलों के संकेत भाँप लेने में माहिर हो चली है। जयंतियां और पुण्यतिथियां मनानी हों या और कोई आयोजन, हमारा मुकाबला ही नहीं है। यों कहें कि लोकतंत्र का मतलब ही अब अपने हक़ में उत्सवों का आयोजन हो गया है, तो शायद किसी को भी बुरा नहीं लगेगा।

ये मौके हमारे जीवन में रिफ्रेशर फेस्टिवल से कम नहीं हैं, अगर हम इनके मर्म को आत्मसात करने का माद्दा अपने भीतर पैदा कर लें। ये ही वे अवसर हैं जो हमारे जीवन का तुलनात्मक अध्ययन करने को बाध्य करते हैं और यह बताते हैं कि जहां कुछ कमी है उसे सुधारने के लिए इन अवसरों को यादगार बनाया जाए।

महात्मा गांधी और शास्त्रीजी के जाने के बाद उनकी याद में मनाए जाने वाले कार्यक्रमों में यदि पिछले वर्षों में साल भर में मात्र एक ही संकल्प ग्रहण किया होता या कोई एक भी अच्छी बात अंगीेकार की होती तो आज हम भी बदल जाते और साथ ही साथ यह जमाना भी। पर ऐसा हो नहीं पाया।

इसे मानवीय दुर्बलताएं कह लें या हमारे स्वार्थ, या फिर हमारी मनुष्यता में कोई खोट। पर इतना जरूर है कि हम इन महापुरुषों को इतने वर्ष बाद भी होंठों से नीचे नहीं उतार पाए हैं, हृदय तक पहुंचने की बात तो बहुत दूर की है। हाँ हमने सुन-सुन कर और कार्यक्रम मना-मना कर इतनी महारत जरूर हासिल कर ली है कि इनके बारे में भाषणों का अम्बार लगा सकने की पूरी सामर्थ्य जरूर पा ली है।

गांधी और शास्त्री सिर्फ सुनने और देखने भर के लिए या एक दिन याद कर साल भर के लिए भूल जाने के लिए नहीं हैं बल्कि ये पूरी जिन्दगी याद रखने और जीवन में उतारने के लिए हैं। आज भी हमारे इलाके की बात हो या दूर तलक, ढेरों गांधीवादी हस्तियां ऐसी हैं जिन्होंने गांधीव्रत को अपना रखा है। ऐसे लोग भले ही हाशिये पर हों, मगर आम जनता के दिलों में इनके प्रति अगाध श्रद्धा और आस्था कूट-कूट कर भरी हुई है।

आज गांधीवादी कहलाना फायदेमंद हो गया है, गांधीवादी होना नहीं। जो असली गांधीवादी हैं, ईमानदारी, नैतिक चरित्र और मूल्यों से भरा-पूरा जीवन जी रहे हैं उनके जीवन में भले ही अभावों का डेरा हो, सम सामयिक तृष्णाओं और सुविधाओं से उनका दूर का रिश्ता न हो, मगर जो राष्ट्रभक्ति का ज़ज़्बा इनके मन में देखा जाता है, वैसा उन लोगों के मन में भी नहीं जिन्हें गांधीवादी कहलाने और गांधीजी के नाम पर जीवननिर्माण का अवसर मिला है।

आज फिर मौका है हमारे पास, अब भी कुछ प्रण लें, समाज और देश के लिए जीने का हौसला पैदा करें और अपनी वृत्तियों को स्वार्थपूर्ण बनाने की बजाय समाजोन्मुखी बनाएं। हमारे सामने जब समाज और राष्ट्र होता है तब हमारा प्रत्येक कर्म राष्ट्रवाद का जयगान करने लगता है और तब हमें सम सामयिक ऐषणाओं, मिथ्या प्रतिष्ठा अथवा लोकप्रियता पाने का मोह नहीं रहता बल्कि ये सारी चीजें अपने आप हमारे इर्द-गिर्द विचरण करने लगती हैं और हम इन सभी से सदैव असंपृक्त ही रहा करते हैं।

आइये आज फिर हम गांधीजी और शास्त्रीजी को याद करें और यह प्रयास करें कि उनकी कोई न कोई अच्छी बात हमारे जीवन में उतारें। हम भाषणों के माया-मोहजाल से ऊपर उठकर कुछ बनें, कुछ करें और ऐसा कर जाएं कि लोग इसी परंपरा में हमें भी याद करना न भूलें।