राजनीति

अराजकता की गिरफ्त में जम्मू एवं काश्मीर

-लाल कृष्ण आडवाणी, पूर्व उपप्रधानमंत्री

इन दिनों काश्मीर काफी सुर्खियों में है। पिछले सप्ताह जम्मू-काश्मीर से भारतीय जनता पार्टी के विधायक नई दिल्ली आकर प्रधानमंत्री से मिले और उन्हें एक ज्ञापन सौंपा। जिसमें उन्होंने राज्य में सुरक्षा बलों की उपस्थिति को किसी भी प्रकार से कम करने के प्रति सावधान किया है।

उन्होंने यह भी आग्रह किया कि वे किसी भी पृथकतावादी मांग के आगे नहीं झुकें। भाजपा के लिए काश्मीर का भारत में पूर्ण विलय का मुद्दा भारतीय जनसंघ के जन्म से ही पार्टी निरन्तर उठाती रही है।

जनसंघ के संस्थापक अध्यक्ष डा.श्यामा प्रसाद मुकर्जी ने राज्य के एकीकरण के मुद्दे पर अपनी जान न्यौछावर कर दी।

1953 में कानपुर में भारतीय जनसंघ के पहले राष्ट्रीय सम्मेलन में डा.मुकर्जी ने राष्ट्र को अथाह महत्व का गुंजायमान नारा दिया:

एक देश में – दो विधान (दो संविधान)

एक देश में – दो प्रधान (दो राष्ट्रपति)

एक देश में – दो निशान (दो झंडे)

नहीं चलेंगे, नहीं चलेंगे

कश्मीर में डा. मुकर्जी के बलिदान से इस नारे के दो लक्ष्यों को तो हासिल कर लिया गया।

1953 तक दो प्रधान – एक नई दिल्ली में जिसका जम्मू एवं कश्मीर पर कोई अधिकार नहीं था, और दूसरा सदरे-रियासत के नाम पर राज्य में पूरी तरह से अधिकारों का उपयोग करता था। सदरे-रियासत की पदवी समाप्त की गई और राष्ट्रपति के अधिकारों के तहत जम्मू एवं काश्मीर को लाया गया।

इसी तरह, दो निशान: एक, राष्ट्रीय तिरंगा 1953 तक जम्मू एवं काश्मीर में नहीं लहराया जा सकता था। उसका अपना अलग झण्डा था, जो राज्य का झण्डा बन चुका था। डा. मुकर्जी द्वारा शुरु किए गए आंदोलन में जनसंघ और प्रजा परिषद के अनेकों कार्यकर्ता वास्तव में तिरंगा फहराते हुए ही पुलिस गोलियों से शहीद हुए!

लेकिन तीसरा लक्ष्य जो हमारे महान नेता द्वारा चिन्हित किया गया था, को पाना अभी शेष है: भारतीय संविधान का अनुच्छेद 370 जम्मू एवं कश्मीर के लिए पृथक संविधान की व्यवस्था करता है और जो अलगाववाद को पाल-पोस रहा है, अवश्य ही समाप्त होना चाहिए।

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आज काश्मीर घाटी में पूर्णतया अराजकता की स्थिति है। और सरकार इससे निपटने में अनिभज्ञ जान पड़ती है। राज्य से भाजपा के विधायकों द्वारा प्रधानमंत्री को दिए गए ज्ञापन में लिखा है:

”अलगाववादियों ने एक वैकल्पिक रणनीति अपना ली है। उन्हें यह अहसास हो गया है कि आतंकवादी घटनाओं को वैश्विक स्वीकार्यता नहीं मिलेगी। उन्हें यह भी ज्ञात है कि भारत के देशभक्त और पूरी तरह से मुस्तैद सुरक्षा बल आतंकवादी और अलगाववाद से जुड़े तोड़-फोड़, विस्फोटों और हिंसा को परास्त कर सकते हैं। 2008 से अलगाववादियों ने छिट-पुट हिसंक घटनाओं के बजाय भीड़ की हिंसा का सहारा लेने का फैसला किया है। उनकी रणनीति विश्व को काश्मीर मुद्दे की तथाकथित न्यायसंगतता जताने की है!

आज अलगाववादी सीमा पार से निर्देश ले रहे हैं। युवा स्कूली बच्चों से महिलाओं और बुजुर्गों द्वारा सुरक्षा बलों और सरकारी भवनों पर पत्थर फेंकवाना उनकी वरीयता प्राप्त रणनीति है। वे भीड़ से हिंसा इसलिए करवाते हैं ताकि सुरक्षा बल भड़क कर रक्षात्मक कार्रवाई करने को मजबूर हों। छद्मवेशी आतंकवादी इस हिंसक भीड़ के हिस्से हैं। इस रक्षात्मक सुरक्षा की कार्रवाई में लोग घायल होते हैं उनकी जानें जाती हैं। भीड़ की हिंसा में भाग लेने वाले भी घायल होते हैं। कुछ को अपनी जानें भी गवानी पड़ी हैं।

आतंकवाद और तोड़-फोड़ से निपटने हेतु भारत की रणनीति स्पष्ट और सुपरिभाषित रही है। हांलाकि वर्तमान चुनौती का सामना करने में सरकार अंधेरे में भटकती नजर आती है। राज्य सरकार एकदम अलोकप्रिय हो चुकी है। मुख्यमंत्री के विरुध्द व्यक्तिगत रोष है। ऐसा प्रतीत होता है कि वे अपनी पार्टी के लोगों और कार्यकर्ताओं से भी कटते जा रहे हैं।”

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राबर्ट लुईस स्टैवनसन ने अपनी पुस्तक ‘विरजिनीबस प्युइरिसिक्यु (Virginibus puerisque) (लेटिन भाषा में ‘लड़कियों एवं लड़कों को’) में लिखा है ”मानव एक ऐसा प्राणी है जो सिर्फ रोटी के सहारे नहीं रहता, बल्कि मुख्यतया जुमलों (Catchwords) के सहारे रहता है।” एक ऐसा ही जुमला है ‘कम्युनल’ या ‘साम्प्रदायिक’ जिसका भारतीय राजनीतिज्ञ बहुधा अपनी सुविधा और स्वार्थानुसार उपयोग करते हैं। इस मूल शब्द में कुछ भी निंदात्मक नहीं है क्योंकि यह समुदाय और समूह से जुड़ा है। लेकिन समय के साथ-साथ यह भारतीय राजनीतिक व्यवहार में घिनौने दुर्वचन का शब्द बन गया है। जवाहरलाल नेहरु इसे महान देशभक्त और संसदविज्ञ डा. श्यामा प्रसाद मुकर्जी और उनके द्वारा स्थापित भारतीय जनसंघ के लिए उपयोग करते थे। आज यह एक विशेषण के तौर पर भारतीय जनता पार्टी को लांछित करने के लिए किया जाता है।

यह सही है कि भाजपा एक विचारधारात्मक पार्टी है जिसकी अनेक मामलों में एक विशिष्ट दृष्टि है। कुछ मुद्दों पर वस्तुत: पार्टी अकेली है, यह बात अलग है कि इन मुद्दों पर जनता का व्यापक समर्थन प्राप्त है। 1998 तक हमारा यह दृष्टिकोण कि भारत के पास अपनी स्वयं की परमाणु निवारक क्षमता होनी चाहिए-अनन्य रुप से हमारा दृष्टिकोण था। 1998 में एनडीए में हमारे सहयोगिओं ने इस दृष्टिकोण को स्वीकारा। आज समूचा राष्ट्र इस पर गर्व करता है कि हमारे देश के पास परमाणु हथियार हैं।

आज भाजपा देश में सिर्फ एकमात्र ऐसी पार्टी है जो मानती है कि संविधान का अनुच्छेद 370, जो जम्मू एवं काश्मीर राज्य को विशेष दर्जा देता है को समाप्त किया जाना चाहिए। हम मानते हैं कि यह प्रावधान देश की मनोवैज्ञानिक एकता में सबसे बड़ी बाधा है।

यदि कोई हमारे रुख और तर्कों पर विवाद करते हुए असहमति प्रकट करता है,तो समझ आ सकता है। लेकिन मुझे तब आश्चर्य होता है कि जब भाजपा की अनुच्छेद 370 को समाप्त करने की मांग को हमारी साम्प्रदायिकता के सबूत के रुप में देखा जाता है। यह रेखांकित करता है कि कैसे इस ‘शब्द’ के अर्थ का अनर्थ किया गया है। यहां पर इस अनुच्छेद को शामिल करने के औचित्य के सम्बन्ध में हमारे संविधान निर्माताओं द्वारा दिए गए तर्कों का स्मरण करना समीचीन होगा।

स्वतंत्रता प्राप्ति के समय देश में 500 से ज्यादा रियासतें थी। इनमें से अधिकांश के अपने संविधान थे। जब 17 अक्टूबर, 1949 को संविधान सभा में इस विशेष प्रावधान पर विचार शुरु हुआ तब एन. गोपालास्वामी आयंगर जिन्होंने इस प्रावधान को प्रस्तुत किया, ने इस तथ्य की ओर ध्यान दिलाया कि सभी अन्य रियासतों के मामले में उनके संविधान, भारत के संविधान में समाहित कर लिए गए हैं लेकिन यह जम्मू एवं काश्मीर के संदर्भ में संभव नहीं पाया है उसका संविधान अलग ही रहेगा।

मौलाना हसरत मोहानी ने आंय्यगर को टोकते हुए पूछा कि जम्मू एवं काश्मीर के साथ यह ‘भेदभाव’ क्यों किया गया है? अत: मोहानी के लिए जम्मू एवं काश्मीर के लिए पृथक संविधान बनाए रखने का कदम राज्य के विरुध्द भेदभाव करने जैसा था!

आयंगर का उत्तर था :

”यह भेदभाव काश्मीर की विशेष परिस्थितियों को लेकर है। यह विशेष राज्य एकीकरण के किसी रुप में अभी इतना तैयार नहीं हुआ है जितना कि अन्य राज्यों के मामले में है। यह सभी की उम्मीद है कि आने वाले समय में जम्मू एवं काश्मीर भी औरों के समान इसी तरह के एकीकरण के लिए तैयार हो जाएगा।”

संविधान सभा की बहस का ब्यौरा दर्शाता है कि आंय्यगर की उक्त घोषणा कि समय के साथ ही जम्मू एवं काश्मीर अन्य राज्यों की पंक्ति में आ जाएगा, का उल्लास से स्वागत किया गया।

तब आंय्यगर ने बताना शुरु किया कि क्यों राज्य को कुछ समय के लिए अपवाद रखने की अनुमति दी गई। उन्होंने कहा ” पहले पहल जम्मू एवं काश्मीर राज्य की सीमाओं के भीतर युध्द चल रहा है।” उन्होंने और कहा ”जम्मू-काश्मीर राज्य के सम्बन्ध में हम संयुक्त राष्ट्रसंघ में उलझे हैं और अभी यह कहना संभव नहीं है कि हम कब इस उलझन से मुक्त होंगे।”

अत: संविधान सभा के विचार- विमर्श से साफ है कि जम्मू एवं काश्मीर को अनुच्छेद 370 के तहत विशेष दर्जा देना एक अंतरिम समझौते के समान था। पाकिस्तान का आक्रमण और संयुक्त राष्ट्र का पहलू इसके पीछे था। इस अनुच्छेद का इस तथ्य से कोई लेना देना नहीं है कि जम्मू-काश्मीर एक मुस्लिम बहुल राज्य है, जैसाकि आज हमारी मांग की आलोचना करते हुए तर्क दिया जाता है।

श्रीनगर, जहां डा0 मुकर्जी को बंदी बनाकर रखा गया था, में उनकी मृत्यु के तुरंत बाद उभरे राष्ट्रव्यापी आक्रोश ने सरकार के लिए कुछ सही कदम उठाने का मार्ग प्रशस्त किया। जम्मू एवं काश्मीर में प्रवेश के लिए मौजूद परमिट प्रणाली जिसके उल्लंघन के लिए डा0 मुकर्जी को कैद किया गया था, समाप्त कर दिया गया। समय के साथ ही सर्वोच्च न्यायालय, निर्वाचन आयोग और नियंत्रक महालेखाकार परीक्षक (सीएजी) के अधिकार क्षेत्र में राज्य को भी सम्मिलित कर लिया गया।

जब कभी श्री वाजपेयी ने संसद में अनुच्छेद 370 का मुद्दा उठाया तो पण्डित नेहरु सर्वदा उत्तर देते थे कि अनुच्छेद का धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है और समय के साथ यह अनुच्छेद समाप्त हो जाएगा।

1964 की शुरुआत में संयुक्त राष्ट्र संघ की सुरक्षा परिषद में हुए विचार विमर्श में पाकिस्तान की तरफ से बोलते हुए जुल्फिकार अली भुट्टो ने तर्क दिया कि ”सुरक्षा परिषद को भारत को आगे विलीनीकरण से रोकने का निर्देश देना चाहिए”। उसके पश्चात, शिक्षा मंत्री मोहम्मेदाली करीम छागला [बहुप्रसिद्ध न्यायविद एम् सी छागला जो कि मुंबई हाई कोर्ट के मुख्य न्यायाधीश एवं अमेरिका और इंग्लैंड सहित कई देशों में भारत के राजदूत भी रहे] ने राज्यसभा (24 फरवरी,1964) में उत्कृष्ट भाषण दिया जिसमें उन्होंने अनुच्छेद 370 के बारे में यह महत्वपूर्ण टिप्पणी की थी:

”प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरु ने उस दिन बोलते हुए कहा कि संविधान के अनुच्छेद 370 का धीरे-धीरे क्षरण हो रहा है। मैं सिर्फ उम्मीद करता हूं कि यह क्षरण तेजी से होगा और मैं यह भी आशा करता हूं कि बहुत शीघ्र यह अनुच्छेद भारत के संविधान से अदृश्य हो जाएगा। आखिरकार यह संक्रमणकालीन और अस्थायी है। मैं सोचता हूं कि यह संक्रमणकालीन अवधि काफी लम्बी हो चुकी है।”

संयुक्त राष्ट्र संघ में काश्मीर पर अनेक कटु बहसों में भारत का अच्छे ढंग से पक्ष रखने वाले, छागला का रोष समझ में आ सकता है। आखिरकार तब तक संविधान को अंगीकृत किए 14 वर्ष बीत चुके थे और तब भी जम्मू एवं कश्मीर काश्मीर से संबंधित यह अस्थायी अनुच्छेद संविधान को निरंतर कलुषित कर रहा था। कश्मीर अभी भी विवादस्पद मुद्दा है। छागला द्वारा की गई टिप्पणियों को भी 46 वर्ष बीत चुके हैं। यह संक्रमणकालीन अवधि अभी तक समाप्त नहीं हुई है; आज यदि कोई छागला सुझाए कि यह अस्थायी अनुच्छेद समाप्त किया जाए तो यह खतरा बना रहेगा कि उसको साम्प्रदायिक और प्रतिक्रियावादी नाम न दे दिया जाए!