मैं और मेरी अलमारी में बंद किताबें !

मैं और मेरी अलमारी में बंद किताबें !

आत्माराम यादव

मैं बचपन से ही किताबों से

बहुत प्रेम करता हूं,

पहले लोटपोट, मधुर मुस्कान, नंदन

गुडिया जैसी किताबों का चस्का लगा था

धीरे धीरे सरिता,कादम्बिनी, माया

निरोगधाम जैसी पत्रिकाओं का शौक

मुझे सातवें आसमान पर पहुंचा देता था।

किताबें पढ़ने के जुनून ने

10 साल की उम्र में ही मुझे

बस स्टैंड पर लाकर खड़ा कर दिया

जहॉ ब्रज किशोर मालवीय और संजीव डे

हरी मालवीय के बुक स्टोर से

कमीशन से किताबें लेता और

बस स्टैंड पर आने वाली हर बस के

बाहर जोर’जोर से आवाज देकर

किताबें बेचता और बचे समय में

किताबें पढने के शौक को पूरा करता

अक्सर मैं किताबों का बस्ता

दुकान पर जमा करने की बजाय

घर ले जाता,ताकि रात गये इत्मीनान से किताबें पढ़ सकूं।

युवावस्था में कदम रखते ही

मैंने पेपर-किताबें बेचना बंद कर दिया

तब मै बुक स्टालों पर जाता

जहॉ घंटों एक एक किताब और उसके

लेखक का नाम देख कर खडा रहता

महंगी मनपसंद किताब खरीद पाना

तब मेरे लिये एक सपना बनकर रह गया।

तब किताब पढने के लोभ में मेरे कदम

अनायास ही शहर की गिनी चुनी दो

लायबेरिया तक मुझे पहुचाते।

लाइब्रेरी से किराये पर किताबें लाना

लालटेन और चिमनी के उजाले में

बिस्तर में बैठे-लेटे पढना

आज भी याद है ।

उन दिनों स्कूल की किताबों में

चोरी छिपे रानू, गुलशन नंदा,

बंकिम चंद्र, आचार्य चतुरसेन, प्रेमचन्द्र

अमृता प्रीतम,, भीष्म साहनी, कृष्णचन्द्र

शिवानी, भारतेन्दु हरिश्चन्द्र

जासूसी उपन्यासकार ओमप्रकाश शर्मा

दार्शनिक, ओशो और

मैकियावेली में किसी एक को

रात 10 बजे के बाद सोते ही

किसी एक लेखक को सुबह होने

तक पढना, जुनून था मेरा।

अनेक बार लालटेन में तेल खत्म होने पर

दिये में बाती डालकर रात की

निःशब्दता में, या म्युनिस पार्टी के खम्बे

के नीचे खड़े होकर उन्हें पढ़ने का

आनन्द ही कुछ और था।

एक किताब का २० पैसे

प्रतिदिन किराया लाइब्रेरी में

देकर किताब पढना

अपने में गर्वित करता था।

उस समय पत्रिकायें

धर्मयुग, दिनमान रविवार

समाचार पत्र प्रचण्ड, बिलिस्टस,नईदुनिया

पढ़ने का आनन्द ही कुछ ओर था,

क्योंकि

तब घरों में बिजली तक नहीं पहुंची थी

और मरफी कंपनी के रेडियो से

आकाशवाणियों से सुबह शाम समाचार

और फिल्मी गानों का कार्यक्रम

सबका समय निर्धारित था ।

समय के साथ लाइब्रेरी से किताबें

लाना बंद कर, मैंने खुद के लिये इन्हें

खरीद कर पढ़ना शुरू किया।

साल दर साल गुजरते गये

मैं किताबे खरीदता और पढ़ता रहा

साहित्यिक किताबों का अंबार लगने पर

मैंने हजारों रुपये मूल्य की किताबें

एक स्कूल में बच्चों की लाइब्रेरी को दे दी।

शेष दो सैकड़ा बेशकीमती किताबें

मैंने केंद्रीय जेल होशंगाबाद में

कैदियों में आत्म सुधार के लिये दे दी।

कुछ कानूनी और चुनिंदा दुर्लभ किताबें

आज भी मेरी अलमारी में मेरा

इंतजार करती है, वे तकती है

बडी हसरत लिये कि

मैं अलमारी के शीशों से उन्हें मुक्त कर

उन किताबों से मिलू, उन्हें पढू

ठीक उसी प्रकार जैसे मेरी कई शाम,

सुबह और रातें

इन किताबों की सोहबत में

उनके एक-एक पन्ने के एक एक शब्द को

हाथों के स्पर्श ही नहीं अपितु

आँखों से प्रेम,करुणा और आक्रोश का

भाव मिलने पर ये शब्द जीवंत हो जाते थे।

मैं अब कंप्यूटर पर अपना

ज्यादातर समय देकर भूल गया हू

अलमारी में बंद किताबों को

”पीव” जो मेरा आज भी इंतजार करती है।

आत्माराम यादव पीव

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