साहित्‍य

भारतीयता बचाने के लिये भारतीय भाषाओं में जीना अनिवार्य

किसी भी राष्ट्र की संस्कृति उसकी भाषा, संगीत, नृत्य, खानपान, पहनावा तथा धर्म में निहित होती है, भाषा के द्वारा वह पनपती है, अन्यथा वानर भी हमारे ही तरह सुसंस्कृत होते.संस्कार जन्म से ही पडना प्रारम्भ हो जाते हैं.बालक व्यवहार की नकल करता है तथा भाषा द्वारा, अभिव्यक्ति करने से भी अधिक महत्वपूर्ण, जीवन का अर्थ, उसके मूल्य तथा जीवन जीने की कला सीखता है.अपनी संस्कृति जीवन के मूल्य सिखलाने के अतिरिक्त, संवेदनशीलता, मिट्टी, हवा, पानी, आकाश और सूर्य से प्रेम करना भी सिखलाती है; तथा स्वयं अपनी संस्कृति से भी प्रेम करना सिखलाती है.रसखान बार बार जन्म लेकर उसी ‘ब्रज गोकुल गॉव के ग्वारन’ में रहना चाहते है. संस्कृति के सहज संस्कारों के लिए सुसंस्कृत व्यवहार तथा भाषा यह दो माध्यम महत्वपूर्ण हैं. भाषा को अपने में इतना गरिमामय कर्म करने की क्षमता लाने में सदियां लगती हैं.

यदि हमारी भाषा चली गई तो ‘हमारा’ भी विनाश हो जाएगा. मात्र इतना नहीं कि इस राष्ट्र में इस राष्ट्र की भाषा बोलने सुनने वालों के स्थान में अंग्रेजी बोलने वाले आ जाएंगे.इस तरह बोलने वाले जो ‘वर्णसंकर’ आएंगे वे मानवीय मूल्यों से, उन शाश्वत मूल्यों से, स्थानीय तथा तात्कालिक मूल्यों से हीन होंगे जो उन्हें इस मिट्टी पानी में मानव बना सकते है.वे संभव है कि अपनी पढार्ऌ लिखाई में – पुस्तकीय ज्ञान – में निष्णात हों, उनमें एक विमान के बराबर ताकत हो सकती है किन्तु उनके विमान में यदि ‘रडर’ (दिशा निर्धारक) होगा तब वह ‘रीमोट’ चालित होगा.उन्हें एंजिन (ज्ञान) द्वारा तेज उडने की क्षमता तो मिलेगी किन्तु अपने विमान की दिशा पर वे नियंत्रण नहीं रख सकेंगे और निश्चित रूप से कभी न कभी ‘क्रैश’ करेंगे.अंगेजी पढने के बावजूद उनमें पाश्चात्य संस्कृति के लाभदायी संस्कार भी नहीं आ पाएंगे.पाश्चात्य संस्कृति पाश्चात्य हवा-पानी मिट्टी के लिए विकसित हुई है. उदाहरणार्थ, उन्हे वर्षा ॠतु अच्छी नहीं लगती, शीत ॠतु नहीं भाती, बसंत और ग्रीष्म ही भाती हैं .प्रकृति तो उनके लिये मात्र उपभोग्य वस्तु ही है, अन्य मनुष्य भी उनके लिये उपभोग्य वस्तु ही होंगे.

सारांश में कहूं तो भाषा का विषय बहुत गम्भीर है- अस्तित्व का प्रश्न है, एक व्यक्ति के नहीं किन्तु, एक समाज, एक राष्ट्र के अस्तित्व का.भाषा मात्र विचारों के सम्प्रेषण का माध्यम नहीं है, वह एक भूगोल के, इतिहास के, समाज के बीच जीवन को जीवन्त बनाने का माध्यम है, उसमें राम आदर्श स्थापित करते हैं तो कृष्ण व्यावहारिक आदर्श.और दुःख की बात यह है कि हम भाषा को मात्रा ‘रोटी’ कमाने के ध्येय से, हालाँकि वह भी त्रुटिपूर्ण, सीखते हैं, जिसका स्तर कामचलाऊ होता है.किन्तु हमारी अंग्रेजी की गुलामी इतनी बढ ग़ई है कि आज हम नर्सरी से ही विदेशी भाषा सिखाने का प्रयत्न कर रहे हैं.यह भूल जाते है कि जब बच्चे एक भाषा कुछ अच्छी तरह से सीख लेते है तब वे अन्य भाषाएं भी सरलतापूर्वक सीख सकते है. और जब वे एक भी भाषा ठीक से नहीं सीख पाते, तब अन्य भाषाएं भी ठीक से नहीं सीख सकते.मातृभाषा सीखने के लिये बच्चे को सबसे कम परिश्रम करना पडता है और वह उसके हृदय की भाषा भी सहज ही बनती है.अंग्रेजी विश्व की एक महत्वपूर्ण भाषा है, उसे भी सीखना चाहिए किन्तु विचारणीय है कि भारत कीे कितनी प्रतिशत जनता को अंग्रेजी सीखने की आवश्यकता है ?

भाषा जैसे महत्वपूर्ण विषय में एक बात को स्पष्ट करने की आवश्यकता अभी भी रह जाती है.वह है, इतने विशाल राष्ट्र के लिए जिसमें 18 भाषाएं राज्यों तथा संघ द्वारा स्वीकृत हैं, संपर्कभाषा या राजभाषा कौन सी हो? इस राष्ट्र की संस्कृति तो मूलरूप से एक है, इसीलिए ‘कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी’.अतएव भारतीय संस्कृति की रक्षा करने के लिये, पाश्चात्य संस्कृति को लाने वाली अंग्रेजी भाषा- वह चाहे कितनी ही विश्व सुगम क्यों न हो नहीं हो सकती. इस विषय पर हमारे राष्ट्र के सभी महान नेता एक मत थे, और वही संविधान में परिलक्षित हुआ है. विश्व में हिन्दी बोलने -सुनने वालों की संख्या द्वितीय या तृतीय है. तब हम क्यों डरते हैं? क्या इसमें आपसी सौहार्द्र की कमी नजर आती है? थोडा परिश्रम करें तब हिन्दी में भी अंग्रेजी के समान ज्ञान का भंडार आ जाएगा. भारत अब एक ऐसा विकासशील राष्ट्र है जो विकास संपन्न होने के लिए ‘टेक -आफ’ की पट्टी पर आ गया है. किसी भी विषय में मौलिक चिन्तन की क्षमता की संभावना उसकी भाषाओं में है.

सभी विद्वानों का मत है कि प्राथमिक शिक्षा मातृभाषा में होना चाहिए. माध्यमिक शिक्षा में हिन्दी विशेष रूप से, अन्य भारतीय भाषाएं, अंग्रेजी तथा अन्य भाषाएं सिखलाना चाहिए. पूरी माध्यमिक तथा महाविद्यालय की शिक्षा का माध्यम उस प्रदेश की भाषा ही रहना चाहिए. महाविद्यालय में अंग्रेजी में विशेष योग्यता चाहने वालों के लिये कुछ विषयों का माध्यम अंग्रेजी हो सकता है.

हिंदी को संपर्क भाषा के रूप में समुन्‍नत करने के लिए हमें सबसे पहले अंग्रेजी से मोह हटाना होगा.अपनी गलत हीन भावना को दूर करना होगा. इसके लिए मात्र इतना ही साहस चाहिए, ”चलें, हम मातृभाषा में काम शुरू तो करें.”

हिंदी को संपर्क भाषा का व्यावहारिक रूप देने के लिए अंग्रेजी को रोटी की अनिवार्यता से अलग करना अत्यंत आवश्यक है. विभिन्न भारतीय भाषाओं तथा हिंदी के बीच विचार विनिमय, अंतर्भारतीय भाषाओं के बीच सीधे अनुवाद के कार्य को बढावा देना, इस हेतु कार्यशालाएं, गोष्ठियाँ, पत्रिकाओं इत्यादि को बढावा देना चाहिए. इस दिशा में हिन्दी अकादमी, दिल्ली ने विभिन्न प्रदेशों में गोष्ठियां तथा कार्यशालाएं आयोजित करना प्रारंभ किया है; ऐसा सभी प्रदेशों के हिन्दी संस्थानों को तो करना ही चाहिये, अन्य सरकारी तथा गैरसरकारी संस्थाओं, सभी को ऐसा कार्य करना चाहिए.दूरदर्शन इस दिशा में सभी भारतीय भाषाओं की अच्छी कृतियों की प्रस्तुति कर तो रहा है किन्तु उससे हमें कहीं अधिक अपेक्षा है- दोनो में मात्रा में तथा ‘गुणवत्ता में’.

गैर हिन्दी भाषा राज्यों के छात्रों को, विशेषकर पूर्वांचल क्षेत्र के छात्रों को, यथेष्ट छात्रवृति देकर हिंदी भाषी राज्यों में हिन्दी माध्यम में पढने के लिए उत्साहित करना चाहिए. तथा इसका विलोम भी अर्थात हिन्दी भाषी राज्यों के हिन्दी भाषी छात्रों को इतर राज्यों मे छात्रवृति देकर, उन्हें उसी राज्य की भाषा में शिक्षा प्राप्त करने के लिए प्रोत्साहित करना चाहिए.यह बहुत ही ‘व्यय- प्रभावी’ पद्धति बन सकती है न केवल हिंदी को प्रभावी संपर्क भाषा बनाने के लिए, वरन आपसी सांस्कृतिक समझ के लिये भी.

सभी हिन्दी राज्यों में हिन्दी के अतिरिक्त, कम से कम, एक अन्य भारतीय भाषा की शिक्षा अनिवार्यतः दी जाना चाहिए. उदाहरणार्थ, मध्यप्रदेश में तेलगू हो सकती है. और उत्तर प्रदेश में मलयालम या तमिल, तथा बिहार में बंग्ला या असमिया क़ी शिक्षा आदि आदि का प्रबन्ध होना चाहिए. संस्कृति की शिक्षा भी दी जाना चाहिए. संस्कृत भाषा भारतीय संस्कृति का अक्षय कोश है.संस्कृत की शिक्षा प्राथमिक स्तर तक भी यदि दी जा सके तब भी वह लाभदायक होगी.भाषाओं को ‘अभिरुचि’ के रूप में सीखने की सुविधाएं दी जाना चाहिये, यथा ‘भाषा’ सीखने के लिए ‘दृश्य-श्रव्य’ माध्यमों का उपयोग होना चाहिए, इनके लिए शालाओं में क्लबों की स्थापना की जा सकती है.

उच्चस्तरीय मूल लेखन के लिए, विशेषकर तकनीकी तथा शास्त्रीय विषयों में लेखन पठन तथा अनुसंधान के लिए हिन्दी को विशेष प्रोत्साहन मिलना चाहिए.भारतीय भाषाओं पर यह आरोप लगाया जाता है कि उनमें उच्चस्तरीय अनुसंधान का मूल लेखन नगण्य है .ऐसा नहीं कि उनमें ऐसी क्षमता नहीं है, बस इस तरफ ध्यान अबश्य दिया जाना चाहिए.हिंदी साहित्यिकों के लिए पुरस्कारों की, उनकी संख्या की, राशि की तथा गरिमा की स्थिति संतोषप्रद है. किंतु वैज्ञानिक, औद्योगिक, अर्थशास्त्रीय, समाजशास्त्रीय, भाषा वैज्ञानिक, गणितीय, रक्षाविभागीय, वित्तीय, ऐतिहासिक, भोगोलिक आदि विषयों पर कितने पुरस्कार हैं , कितनी सहायता या प्रोत्साहन मिलता है ! स्थिति दयनीय है. मूल चिन्तन तथा मूल लेखन को भारतीय भाषाओं में बढावा देने के लिए सर्वप्रथम तो भारतीय भाषाओं के माध्यम में शिक्षा की आवश्यकता है.फिर, इन साहित्येतर विषयों पर पुरस्कारों के अतिरिक्त, अन्य सुविधाओं यथा पुस्तकालयों, प्रकाशन आदि को बढावा देने की आवश्यकता भी है.

आज चूँकि आबादी- विस्फोट से हम पीडित हैं और आम आदमी की पहली चिन्ता रोजी -रोटी की हो गई है इसलिए यदि आम आदमी यह सोचता है कि अंग्रेजी से उसे रोटी मिलेगी, हिन्दी से नहीं तो यह त्रुटि हमें अपनी सामाजिक व्यवस्था से दूर करना होगा.हिन्दी को उसका यथा योग्य स्थान देने के बाद किसी भी नौकरी में काम करने की योग्यता मापते समय उसे अंग्रेजी से तभी मापा जाए कि जब उस कार्य के संपादन के लिए अंग्रेजी आवश्यक हो, यथा ब्रिटैन या यूएसए से सम्पर्क, भारत के भीतर संपर्क के लिये नहीं.मोहवश या एक वायवीय संकल्पना के तहत उस कार्य की क्षमता मापने के लिए अंग्रेजी का मापदण्ड नहीं होना चाहिए. कोई भी कार्य करने के लिए यदि अंग्रेजी आवश्यक नही है, तब मात्र पत्राचार के लिए उसे आवश्यक मानना मोह ग्रस्त होना है.अंग्रेजी को बढावा देने में यह हमारा दुर्भाग्य ही है कि हमारी सरकार ही सर्वाधिक दोषी है.सर्वप्रथम हमें अपनी शासन व्यवस्था में से अंग्रेजी हटाकर अपनी भाषाएं लाना जरूरी है. अंतर्राष्ट्रीय बनने का स्वप्न तभी सार्थक होगा कि जब हम अंतर्राष्ट्रीय बनने से पहले राष्ट्रीय तो बनें.और राष्ट्रीय बनने के लिये अंग्रेजी को राजभाषा का दर्जा देने की अपेक्षा हिन्दी न्यायोचित तथा उपयोगी माध्यम है.

आज वैज्ञानिक तथा औद्योगिक आविष्कारों ने कम्पयूटरों को बहुभाषीय बना दिया है.किसी भी भारतीय भाषा में कम्प्यूटर में कार्य करना सुगम हो गया है.जब एक छोटा सा देश जापान या इजराइल अपने समस्त कार्य अपनी भाषाओं में करते हुए विश्व के अग्रणी देशो में आ सकता है, तब हम क्यों नहीं.जापान विश्व में दूसरी बडी अार्थिक शक्ति है, और इजराएल नोबेल पुरस्कार जीतने में. चार भाषाओ वाला ग्रेट ब्रिटैन, अंग्रेजी को सम्पर्क भाषा मानकर तथा अनेक भाषाओ वाला सोवियत संघ (जिसका कि अब मार्क्सवादी सोच की विफलता के कारण विघटन हो चुका है) रूसी भाषा के माध्यम द्वारा विश्व की अग्रिम पंक्ति में रह सकते हैं तब हम क्यों नहीं! इन सभी देशों ने अनुवाद के कार्य में यथेष्ट क्षमता प्राप्तकर, समस्त आवश्यक जानकारी अपनी भाषा में उपलब्ध कराई है. हम अंग्रेजी का उपयोग करें उसकी गुलामी नहीं, भारतीय भाषओं में जीवन जीते हुए ही भारत भारत रहेगा, उन्नति करेगा, सामर्थ्यवान देश बनेगा, विश्व की अग्रिम पंक्ति में सम्मानपूर्वक खडा होगा.

-विश्वमोहन तिवारी, एयर वाइस मार्शल (से. नि.)