धर्म-अध्यात्म

संतों के सामाजिक सरोकार

विजय कुमार

बाबा रामदेव के अनशन से जिनके स्वार्थों पर आंच आ रही थी, ऐसे अनेक नेताओं ने यह टिप्पणी की, कि बाबा यदि संत हैं, तो उन्हें अपना समय ध्यान, भजन और पूजा में लगाना चाहिए। यदि वे योग और आयुर्वेद के आचार्य हैं, तो स्वयं को योग सिखाने और लोगों के इलाज तक सीमित रखें। उन्हें सामाजिक सरोकारों से कोई मतलब नहीं है। यदि वे सड़कों पर आकर आंदोलन करते हैं, तो यह भगवा वेश की मर्यादा का उल्लंघन और राजनीति है।

सबसे पहले तो यह स्पष्ट करना जरूरी है कि संत की पहचान कपड़ों से नहीं होती। आप उस भगवावेशधारी को क्या कहेंगे, जो देशद्रोही नक्सलियों का दलाल है। चर्च के पैसे से जिसके एन.जी.ओ चलते हैं। जो एक ओर अन्ना के पक्ष में दिखाई देता है, तो दूसरी ओर मनमोहन सिंह से मिलकर बाबा रामदेव के अभियान में पलीता लगाता है। अर्थात बाहरी वेशभूषा से संत की पहचान नहीं हो सकती। ऐसे ही काले, हरे या सफेद चोगे पहने लोगों को भी संत या इस जैसा कोई और अच्छा नाम नहीं दिया जा सकता।

संत वस्तुतः एक स्वभाव और मनोवृत्ति का नाम है। इस बारे में ‘संत हृदय नवनीत समाना’ या ‘संतों के मन रहत है, सबके हित की बात’ जैसे उद्धरण प्रसिद्ध हैं। संत के लिए ब्रह्मचारी, गृहस्थ या वानप्रस्थी होना अनिवार्य नहीं है। जो निजी या पारिवारिक हितों से ऊपर उठ चुका है; जिसने अपना तन, मन और धन समाजहित में अर्पित कर दिया है; वह संत और महात्मा है। भले ही उसकी अवस्था, शिक्षा और सामाजिक-आर्थिक स्थिति कुछ भी हो।

भारत में संन्यास की परम्परा बहुत पुरानी है। चार आश्रमों में सबसे अंतिम संन्यास आश्रम है। इसका अर्थ है कि अब व्यक्ति अपने सब घरेलू और सामाजिक दायित्वों से मुक्त होकर पूरी तरह ईश्वर की आराधना करे तथा अपने अगले जन्म के लिए मानसिक रूप से स्वयं को तैयार करे। 75 वर्ष के बाद इस आश्रम में जाने की व्यवस्था हमारे मनीषियों ने की है। इस समय तक व्यक्ति का शरीर भी ऐसा नहीं रहता कि वह कोई जिम्मेदारी लेकर काम कर सके। अतः घरेलू काम बच्चों को तथा सामाजिक काम नई पीढ़ी को सौंपकर प्रभुआश्रित हो जाना ही संन्यास आश्रम है।

इससे पूर्व का वानप्रस्थ आश्रम पूरी तरह समाज को समर्पित है। 50 वर्ष या उसके कुछ समय बाद व्यक्ति इसे स्वीकार करता है। यहां तक आते हुए उसके बच्चे गृहस्थ होकर सब काम संभाल लेते हैं। 50 वर्ष में व्यक्ति जीवन के सब भोगों से प्रायः तृप्त हो जाता है। उसे घर-परिवार से लेकर समाज जीवन के खट्टे-मीठे अनुभव हो जाते हैं। इस प्रकार एक परिपक्व व्यक्ति समाज कार्य में जब उतरता है, तो उससे समाज को लाभ ही होता है।

भारत में जब तक यह व्यवस्था चलती रही, तब तक समाज सेवा के लिए किसी एन.जी.ओ या देशी-विदेशी सहायता की आवश्यकता नहीं थी। ऐसे वानप्रस्थी लोग अपने निजी खर्च से समाज की सेवा करते थे। इसीलिए भारत में हर व्यक्ति शिक्षित, स्वस्थ और संतोषी था। कोई व्यक्ति भूखा नहीं सोता था और ‘अतिथि देवो भव’ की परम्परा हर ओर विद्यमान थी।

भारत में बौद्ध मत के प्रसार तथा विदेशी हमलावरों के आगमन से से इस व्यवस्था में एक निर्णायक मोड़ आया। लोगों ने लाखों साल से चली आ रही सनातन मान्यताओं को छोड़ दिया। इनकी रक्षा एवं पुनप्रर्तिष्ठा के लिए आदि गुरु शंकराचार्य ने दशनाम संन्यासियों की परम्परा प्रारम्भ की। ये संन्यासी ब्रह्मचारी रहकर पूरे देश में घूमते थे। इस प्रकार देश और धर्म की रक्षा का महत्वपूर्ण कार्य इन्होंने किया। इनके योगक्षेम की व्यवस्था समाज करता था। इनमें कुछ संन्यासी शस्त्रधारी नागा भी होते थे, जो विदेशी या विधर्मी आक्रमणों के सामने डट जाते थे। ऐसे संन्यासी विद्रोह की चर्चा बंकिमचंद्र चटर्जी ने अपने उपन्यास ‘आनंद मठ’ में की है।

संन्यासी, वानप्रस्थी, आचार्य या गुरुओं द्वारा देश और धर्म की रक्षा में सक्रिय भूमिका निभाने के हजारों उदाहरण हैं। श्रीराम को किशोरावस्था में वन में ले जाकर गुरु विश्वामित्र ने ही भावी जीवन के लिए तैयार किया था। उन्होंने ही श्रीराम को अहल्या के उद्धार के लिए प्रेरित किया। उन्होंने ही राक्षसों द्वारा मारे गये सज्जनों की अस्थियों का ढेर दिखाया था, जिससे प्रेरित होकर श्रीराम ने ‘निशिचर हीन करऊं मही’…का संकल्प लिया था। वन भेजने में दशरथ के संकोच को देखकर कुलगुरु वशिष्ठ जी ने उन्हें यह समझाया था कि विश्वामित्र जी के साथ जाने से इनका हित ही होगा।

सैल्यूकस को हराने वाले सम्राट चंद्रगुप्त को प्रेरणा और फिर राजकाज में सहयोग देने वाले आचार्य चाणक्य का नाम लेना यहां उचित होगा। छत्रपति शिवाजी के प्रेरणाòोत समर्थ स्वामी रामदास ने देश भर में 1,100 मठ स्थापित किये थे, जिनके महंत शस्त्र और शास्त्र की शिक्षा देकर नवयुवकों को मुगल आक्रमणकारियों के विरुद्ध तैयार करते रहते थे। आगरा से निकलकर शिवाजी इनके सहयोग से ही अपने राज्य तक पहुंच सके थे।

गुरु नानक से लेकर दशम गुरु गोविंद सिंह जी तक सिख गुरुओं की पूरी परम्परा ही देश और धर्म की रक्षा में समर्पित हुई है। गोरक्षा के लिए अपना और अपने शिष्यों का जीवन भेंट चढ़ा देने वाले गुरु रामसिंह कूका को क्या भुलाया जा सकता है ? स्वामी सहजानंद सरस्वती द्वारा संचालित किसान आंदोलन क्या ब्रिटिश शासन के विरुद्ध जनजागरण का एक अभूतपूर्व प्रयास नहीं था ?

1857 के स्वाधीनता संग्राम में रानी झांसी के साथ युद्धस्थल पर बाबा गंगादास उपस्थित थे। रानी की इच्छा थी कि उनके शरीर को अंग्रेज हाथ न लगाएं। अतः उनके वीरगति प्राप्त करते ही बाबा ने एक झोपड़ी में उनका शरीर रखकर उसे आग लगा दी। स्वामी विवेकानंद ने भी अंग्रेजों के विरुद्ध देशी शासकों को एकत्र करने का प्रयास किया था। महर्षि अरविंद तो कई वर्ष सीखचों के पीछे रहे। गायत्री के आराधक आचार्य श्रीराम शर्मा कई बार जेल गये। स्वामी श्रद्धानंद ने अंग्रेज पुलिस की गोलियों के आगे सीना खोल दिया था। क्या इनके प्रयासों को इसलिए ठुकरा दिया जाना चाहिए कि ये योगी, संन्यासी, धर्माचार्य या विरक्त थे ?

कांग्रेस वाले जिन गांधी बाबा को स्वाधीनता प्राप्ति का श्रेय देते हैं, वे भी तो एक संन्यासी जैसे ही थे। उन्हें स्वामी श्रद्धानंद ने ही महात्मा की उपाधि दी थी। हर दो अक्तूबर और 30 जनवरी को ‘साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल’ के गीत कौन गाता है ? 1947 के बाद गांधी जी के शिष्य विनोबा भावे ने भूदान आंदोलन चलाया था, क्या इसका कोई सामाजिक सरोकार नहीं था ? गोरक्षा के लिए भी उन्होंने लम्बा उपवास किया, यद्यपि मुसलमान एवं वामपंथियों से डरकर इंदिरा गांधी कानून नहीं बना सकीं। गोरक्षा के लिए संत प्रभुदत्त ब्रह्मचारी, महात्मा रामचंद्र वीर, आचार्य धर्मेन्द्र आदि ने समय-समय पर अनशन किये हैं।

जयप्रकाश नारायण गृहस्थ होते हुए भी एक बैरागी ही थे। उन्होंने चम्बल के बीहड़ों में जाकर सैकड़ों दुर्दान्त डाकुओं को समर्पण के लिए प्रेरित किया। 1974-75 में इंदिरा गांधी की तानाशाही के विरुद्ध हुए आंदोलन का नेतृत्व जब उन्होंने स्वीकार किया, तभी वह आंदोलन अपनी फलश्रुति की ओर तेजी से बढ़ा।

ऐसे एक नहीं, सैकड़ों उदाहरण हैं। संन्यासी का असली काम ही समाज जागरण है। वह सेवा, साधना, आंदोलन या अन्य कोई भी मार्ग अपनाए, सब प्रशंसनीय हैं। कुछ लोगों ने स्वामी रामदेव की सक्रियता की आलोचना की है; पर सच तो यह है कि भारत की दुर्दशा का कारण वानप्रस्थ व्यवस्था में व्यवधान तथा संन्यासियों द्वारा मठ-मंदिर, भजन-पूजा और प्रवचन तक स्वयं को सीमित कर लेना है। इस संदर्भ में एक उदाहरण देना समीचीन होगा।

मुंबई से प्रकाशित होने वाले मासिक ‘हिन्दू व१यस’ के सम्पादक ने गत लोकसभा चुनाव के बाद देश के 100 प्रमुख संतों तथा समाजसेवियों से पूछा कि क्या उन्होंने मतदान किया ? उन्हें यह जानकर आश्चर्य हुआ कि केवल बाबा रामदेव ने इसका उत्तर हां में दिया। इस पर उन्होंने अपने सम्पादकीय में लिखा कि जो लोग लोकतंत्र के प्रति इतने उदासीन हैं; उन्हें अपने धर्म, आश्रम और मठ-मंदिरों की रक्षा के लिए चिल्लाने या शासन से अपील का कोई अधिकार नहीं है। शासन तो उन्हीं मुल्ला-मौलवियों की चिन्ता करेगा, जिनके वोट से सरकार बनती या बिगड़ती है।

इस दृष्टि से देखें, तो बाबा रामदेव और अन्ना हजारे का आंदोलन भारतीय इतिहास में मील का पत्थर साबित होगा। इससे पूर्व गोरक्षा के लिए 1966-67 में तथा फिर श्रीराम मंदिर के लिए साधु-संत सड़कों पर उतरे थे। इन दोनों अभियानों में संघ और विश्व हिन्दू परिषद की महत्वपूर्ण भूमिका थी। दो वर्ष पूर्व बाबा रामदेव के नेतृत्व में अनेक संन्यासियों ने ‘गंगा रक्षा मंच’ बनाकर अभियान चलाया था। प्रधानमंत्री ने इसमें हस्तक्षेप कर कुछ बातें मानी भी थीं। गत 13 जून को हरिद्वार में संत निगमानंद की अनशन के दौरान हुई मृत्यु ने इस आंदोलन का और ऊर्जा प्रदान की है।

भारत में लाखों साधु और संन्यासी हैं। कुछ का प्रभाव क्षेत्र दो-चार गांवों तक है, तो कुछ की पहचान पूरी दुनिया में है। यदि ये सब देश, धर्म और समाज की रक्षार्थ उठ खड़े हों, तो धूर्त और भ्रष्ट राजनेता कुछ ही दिन में भाग खड़े होंगे। इसलिए आवश्यकता संन्यासियों की निष्क्रियता की नहीं, अत्यधिक सक्रियता की है।