जहां है त्याग, समर्पण, जहां है धैर्य बेहिसाब
यही है रूप-ओ-नारी, जिसे आता है यहां प्यार
कभी मां-बाप, कभी भाई, कभी पति-बेटा
सहे विरोध है सबका, न करती कोई आवाज़
न जाने कब से सह रही थी जुल्मों सितम को
जो लड़े हक की लड़ाई उसे मलाला कहें
कभी सती, कभी पर्दा कभी रिवाजे-ए-दहेज़
ये हैं कुछ मूल आफतें जिन्हें सहती हैं रहे
समझ उपभोग की वस्तु, सभी निगाह रखें
हैं मार देते कोख में, कहां का ये है रिवाज़
अगर है हो गई पैदा, बंदिशें शुरू हुई
न चले गर ये इनपर सितम हर कोई करे
लुटा के सांसें जो अपनी सिखा गई जीना
क्या भूल बैठे हैं उस निर्भया के त्याग को हम
है अनुपात दिन-ब-दिन बस घटने पर
न जाने होगा क्या जब नारी ही नहीं रहेगी?
हैं कई रूप, इन्हें लोग भी माने देवी
फिर भी क्यों न करें आदर, क्यों न सत्कार करें?