समाज

अनुसूचित जनजातियों को मुख्यधारा में लाने का सवाल

-गिरीश पंकज

जिन लोगों को हमारा संविधान ”अनुसूचित जनजाति” कहता है, उन्हें बहुत से लोग ‘आदिवासी’ भी कह देते है. ऐसा कह कर अनजाने में ही हमलोग गैर संवैधानिक काम भी करते हैं, और अपने ही भाइयों से दूरियां बढ़ा लेते है. शहरी लोगों की बातों से अक्सर दंभ भी झलकता है, जब वे मसीहाई अंदाज़ में कहते है कि आदिवासियों को राष्ट्र की मुख्यधारा में शामिल करना है. एक जुमला हम अक्सर ही इस्तेमाल करते है-मुख्यधारा. आखिर ये मुख्यधारा है क्या, जिसमें, हम लोग चाहते है, कि अनुसूचित जनजाति के लोग शामिल हों. कई बार बड़े व्यग्र हो कर बातें की जाती है.

पिछले दिनों रायपुर में अनुसूचित जनजातियों पर दो दिवसीय सेमीनार आयोजित किया गया. इसमे भी घूम-फिरकर इसी मुख्यधारा का सवाल आता रहा. वैसे छत्तीसगढ़ के राज्यपाल शेखर दत्त जी ने अपने उद्घाटन भाषण में इस मुख्यधारा पर खासा प्रहार किया और दो टूक कहा कि अनुसूचित जनजाति क्यों जुड़े मुख्यधारा से, हमें जुड़ना चाहिए उनकी मुख्यधारा से. उद्घाटन के बाद अनेक वक्ताओं ने जनजातियों के विभिन्न पहलुओं पर गम्भीरतापूर्वक विचार किया. दो दिन तक चर्चाएँ होती रही. सेमीनार में एक श्रोता के रूप में उपस्थित हो कर मैंने यह जानने की कोशिश की कि-कुछ लोगों को छोड़ दें तो- आखिर पढ़े -लिखे किस्म के शहरी लोग जनजातियों के बारे में सोचते क्या है. वे बुद्धिजीवी जो अनुसूचित जनजातियों से थे, उन्होंने तो अपने समाज की परम्परा-संस्कृति और उत्थान के विषय में अनेक महत्वपूर्ण बातें पेश की, मगर शहर के बुद्धिजीवी केवल सेमिनारजीवी साबित हुए. इस दो दिवसीय सेमीनार के बाद मैंने यह समझा कि आज शहरी लोग विकास के प्रश्न पर कितने भ्रम में जीते है. दिल्ली में बैठा कर योजना बन जाती है,कि आदिवासियों उर्फ़ अनुसूचित जनजातियों के विकास के लिए समेकित कार्यक्रम बनाये जायेंगे. लेकिन ऐसा बोलकर वे भूल जाते है,कि हर अनुसूचित जनजाति कि अपनी-अपनी परम्पराएँ होती है. अलग-अलग जीवन शैलियाँ होती हैं, झारखंड के ”उरांव” की अपनी अलग संस्कृति है, मिजोरम में रहने वाली जनजाति की बिल्कुल भिन्न है तो छतीसगढ़ के बस्तर में रहने वाले ”हल्बा” की अलग शैली है. रीति-रिवाज़,रहन-सहन सब अलग है. ऐसे में हमें उनके हिसाब से कार्यक्रम बनाने होंगे.

भारत की अनुसूचित जनजातियों के विकास के मामले में हम हडबडी न करें ये फतवे जारी न कियें जाएँ कि उनको राष्ट्र कि मुख्यधारा से जोड़ना. राष्ट्र की मुख्यधारा क्या है? इस वक्त जो समलैंगिकता की वकालत चल राही है वह मुख्यधारा है, क्या रिश्वतखोरी मुख्यधारा है? क्या दहेज़ हत्याएं मुख्यधारा है, क्या अंगरेजी बोलना मुख्यधारा है, या फिर फटे -चिथड़े वाले कपडे पहन कर आधुनिक दिखाने का भ्रम पालना मुख्यधारा है ? अवैध सम्बन्ध बनाना मुख्यधारा है? हत्याएं करना मुख्यधारा है? भीख मांगना मुख्यधारा है? शहरों में जब कहीं प्रसाद बंटता है, या किसी समारोह में लंच-डिनर होता है तो लोग भुख्मर्रों की तरह टूट पड़ते है, क्या यही है मुख्यधारा? आदिवासी क्षेत्रों के बारे में यह सच्चाई है कि जंगल का रहने वाले अगर किसी कि ह्त्या कर देता है तो वह सीधे थाने आ कर आत्मसमर्पण करता है और शहर में रहने वाला क्या करता है,सब जानते हैं. ? हत्या करने के बाद वह यही कोशिश करता है, कि किसी दूसरे को फंसा दे, या फिर खुद फंस गया है तो झूठ बोलने में माहिर किसी वकील को पकड़ कर ”बाइज्ज़त” बरी हो जाये. क्या इन सब प्रवृत्तियों को राष्ट्र की मुख्यधारा मान लें? अगर यही है मुख्यधारा तो विचार करना होगा कि हमारी असली मुख्यधारा कौन-सी बने ? हम उस जनजाति जैसे महान बने जो किसी की हत्या करने के बाद बिना किसी के बोले आत्माकी आवाज़ पर पुलिस थाने पहुच जाता है या फिर वो शैतान बने जो ह्त्या के बाद बचने के लिए तिकड़म-दर-तिकड़म करता रहता है?

मुख्यधारा के सवाल पर मैं कुछ और मुद्दे उठानाचाहता हूँ, हमारे शहरी जीवन में एक गहरा छल नज़र आता है. हम कपड़ों में तो रहते है, मगर चरित्र से पतित रहते है, जबकि अनुसूचित जनजातियों के लोग कम से कम कपड़ों में रहते हैं, मगर चरित्रके मामले में हमसे बहुत आगे रहते है. बस्तर या अन्य वन प्रान्तों में आदिवासी किसी का बलात्कार नहीं करता. जबकि आदिवासी बालाएं ऊपर वस्त्र ही नहीं पहनती. शहर में कोई लड़की ऐसी दिख जाये तो शहरी भेडिये चीर -फाड़ कर दे. सब पिल पड़ेंगे क्यापुलिस,क्या गुंडे और क्या जींस पहनने वाले तथाकथित अंगरेजी दां. जंगल में बलात्कार करने वाले या तो पुलिस वाले होते है, या नक्सली, या सेठ-साहूकार ही होते है. आदिवासी नहीं.इसलिए जब लोग कहते है कि आदिवासियों को मुख्यधारा से जोड़ा जाये तो मै डरने लगता हूँ कि क्या ऐसा करके हम उनको पतित करके अपनी तरह तो नहीं बना देनाचाहते? अगर ऐसी बात नहीं है तो अनुसूचित जनजातियों को मुख्यधारा में जोड़ने की बात न की जाये.

विकास के नाम पर आज वन्प्रान्तों में कारखाने खोलने की बात होती है. ये कारखाने खोले जाने चाहिए, लेकिन इसके लिए न तो अनुसूचित जनजाति के लोगों को बेदखल बिल्कुल नहीं किया जाना चाहिए. कारखाने खोलने वाली कंपनी को इस हेतु बाध्य करनाचाहिये कि वह उस क्षेत्र के बच्चों को गोद ले और उनको समुचित शिक्षा की व्यवस्था करे. अक्सर यह देखा जता है कि चालाकियों के साथ अनुसूचित जनजातियों कि ज़मीने हथिया ली जाती है और उनके परिवार के किसी सदस्य को रोजगार भी नहीं मिलता. धूर्तता के साथ कहा जाता है कि भाई किसी को कोई जानकारी भी तो हो. बात ठीक भी है. इस्पात संयंत्र खोल दिया है, तो बस्तर के आदिवासी युवक को संयंत्र के तकनीकी-कौशल के बारे में क्यापता होगा, लेकिन युवकों को प्रशिक्षित तो किया जा सकताहै. कंपनियों को इस काम के लिए बाध्य करने के बाद ही किसी वनांचल में कोई कारखाना खोलने की इज़ाज़त दी जानी चाहिए.इस ओर तो ध्यान नहीं दिया जाता, उलटे यह कोशिश की जाती है, कि कैसे आदिवासी गाँव खाली करे तो हमारा कारखाना शुरू हो सके. उनसे दबाव में हस्ताक्षर या अंगूठे लगवा लिए जाते हैं.

अनुसूचित जनजाति के लोग कम कपड़ों में दिखते है, या तीर-धनुष चलते है, ताड़ी पीते है, मुर्गालड़ाई में रूचि लेते है, ज्यादा पढ़-लिख नहीं पाते है, इसका मतलब यह नहीं है, के वे मुख्यधारा में नहीं है. हम उनके पास तो पहुचें. हम उनके पास ज्ञानी बन कर पहुंचते है. हम उनको मसीहा बन कर कुछ देने जाते है, जबकि हम उनसे कुछ लेने के लिए जाये. गाँव के लोग या और भीतर रहने वाले लोगो के पास जो कला है, जो शिल्प-ज्ञान है, जो समृद्ध परम्पराएं है, पहले हम उनको सीखे, फिर उनको अपना ज्ञान बाँटें, उत्साह में आकर कह दिया जाता हैकि अनुसूचित जनजाति के लोगो को अंगरेजी सिखाई जाये, गोया अंगरेजी सीख कर वे फटाक से मुख्यधारा से जुड़ जायेंगे. ऐसा कुछ नहीं होगा, अनुसूचित जनजाति को उनकी अपनी भाषा में ही प्रारंभिक शिक्षा देने की व्यवस्था करनी चाहिए.इस दिशामे राज सरकारें सोच राही है. काम चल भी रहा है. अनुसूचित जनजाति को पहले मात्रु भाषा में, फिर राष्ट्रभाषा मे और उसके बाद अंगरेजी में शिक्षा देने की कोशिश ही उनकी धारा में नया प्रवाह ला सकती है

इसमे दो राय नहीं कि अनुसूचित जनजाति शहर में हो रहे बहुत से नए विकास कार्यक्रमों से परिचित नहीं है. इसमे उनका कोई दोष नहीं. मै अपनी ही बात करुँ. कल तक जब घर पर इंटरनेट नहीं लगा था, मै भी बस सुनता ही रहता था. उसके बारे में मेरा ज्ञान शून्य ही था. भय भी लगता था कि कैसे कर पाऊंगा, लेकिन जब नेट लग गया तो धीरे-धीरे उसका उपयोग करने लगा.तो हमारे अनुसूचित जनजाति भाइयों तक हमने बहुत-सी चीज़े पहुँचाई ही नहीं, और सोचने लगे कि उन्हें तो कुछ आता ही नहीं. आदिवासियों को यथास्थिति में बनाये रखने में हमारे नेताओंका भी बड़ा हाथ है. देश आज़ाद हुआ तो हमारे नेता सत्ता का उपभोग करने में इस बुरी कदर भिड गए कि वे भूल ही गए कि भारत देश गाँवों और जंगलों में भी बसता है.अगर शुरू से हमने उस ओर निहारा होता तो आज हमारे गाँव भी समृद्ध और खुशहाल होते और वनवासी भी वैसा नहीं रह जाता, जैसा अभी दीखता है. वनवासियों को हमने शो पीस जैसा कुछ समझ लिया, आज भी वही मानसिकता है. वनांचलों के विकास की बात आती है तो कहा जाता है, कि उनकी संस्कृति नष्ट न हो.संस्कृति कोई बताशा है? अरे हम वनवासियों के बीच ज़रा प्यार से तो जाएँ. उनकी परम्पराओं का आदर करें और उन्हें विकास के नए विकल्पों के बारे में बताकर उनका विश्वास हासिल करें, उनको जबरन -बलपूर्वक बे दखल करने की साजिश न करे, ऐसा करके हम उनको अपने से दूर करते रहे हैं. यही कारण है कि जब शहर के लोग वनवासियों के बीच विकास की परियोजनाएं ले कर जाते है, तो वे संदेह की नज़रों से देखते हैं.

तथाकथित मुख्यधारा वाले लोगो को इस बात का भी बड़ा भ्रम्र रहता है, कि ये जो अनुसूचित जनजाति के लोग होते है, वे जंगल और पहाड़ों की रक्षा नहीं करते. अंगरेजों ने इन पर राज करने के लिए बहुत से क़ानून बना लिए थे और जंगल का अपने हिसाब से दोहन करते रहते रहते थे. देश आज़ाद हुआ तो हम लोग अंगरेजों के भी पिताश्री हो गए. वे तमाम क़ानून जस के तस बने रहे जो दरअसल शोषण करने के लिए ही बनाए गए थे. वनवासी जंगल में रहता है. जंगल उनका देवता है.नदियों का वह सम्मान करता है. पहाड़ उसका आराध्य है. वह इनसबको नष्ट क्यों करेगा? नदी,पहाड़, जंगलों की बर्बादी शहरी लोगों ने ही की है. आज अगर बस्तर या दूसरे वनों के भीतर खुदायी या कटाई हो रही है तो सरकारें करवा रहीं है, या कुछ माफिया कर रहे है. जंगल में रहने वाले बंधुओं से हम रागात्मक रिश्ते नहीं बना सके. हम उनसे दूर होते गए. वनवासियों को भी लगा कि शहर के लोग अलग है, वे माई-बाप है और हम उनकी प्रजा. वे शहर में खुश रहे, हम वन में. ऐसे ही सक्रमण काल में नक्सली जंगल में घुसे और वनवासी भाइयों के हितैषी बन गए. और उन्हें भड़काकर अपनी हिंसक धारा में शमिल कर लिया. अब हमारी ज़िम्मेदारी और बढ़ गयी है. अब हमें उन्हें नक्सलियों से दूर करना है तो उन्हें भौतिक विकास की नयी रौशनी से भी जोड़ना है. वनवासियों के बीच अच्छे धावक है,तीरंदाज़ है, तैराक है. और भी अनेक खिलाड़ी है.इनको समुचित प्रशिक्षण दे कर हम विश्व स्तर के खिलाड़ी तैयार कर सकते है. लेकिन इस दिशामे अभी गंभीर पहल नहीं दीखती.

आज वनवासी अंचल में बाहर के अधिकारी,कर्मचारी पदस्थ है और वे एक तरह से राज कर रहे है. शोषण कर रहे है. बस्तर को देखें तो वहां कौन लोग काबिज है. सेठ-मारवाड़ी और सरकारी कर्मचारी और पुलिस वाले. सब लूट-खसोट में लगे है. आज भी वनवासी बेचारा कीमती वनोपज लाताहाई और वहां का व्यापारी नमक देकर चिरौंजी या अन्य कीमती खरीद लेता है. वर्षों से यही खेल चल रहा है. कोई नहीं चाहता था,कि आदिवासी पढ़े-लिखे. नतीज़ा यहहुआ कि जब नक्सली जंगलोंमे घुसे तो उन्होंने वनवासियों कादिमाग का फेर दिया. और वे सफल भी हो गए. आदिवासियों की कुशलता बढ़ाने कि कोशिश करने की बजाय हमारी कोशिश यह रहती है कि वे जैसे है, वैसे ही रहने दें, आरक्षण के कारण बहुत से वनवासी भाई आज पढ़-लिख कर अफसर भी बन गए है, इसलिए हमारी कोशिश यही होनी चाहिए कि जितने आदिवासी अफसर, कर्मचारी है, उन्हें आदिवासी क्षेत्रों में ही पदस्थ करना चाहिए. ऐसा होने पर वे वनवासियों की भावनाओं को अच्छे से समझ सकेंगे. अभी शहरी लोग जाते हहै, तो उनकी मानसिकता रहती है लूटो-खाओ और चल दो. बस्तर में काम करने वाले अफसर, कर्मचारी, व्यापारी लाल हो जाते है. आज अगर अनुसूचित जनजाति के भाइयों को सचमुच विकास से जोड़ना चाहते है तो उनके अनुकूल ही शिक्षा पद्धति विकसित करनी होगी. वहां के बच्चो को उनकी ही बोली- भाषा में शिक्षा के साथ धीरे-धीरे तकनीकी शिक्षा भी दी जाये. वे अपनी परम्परा-संस्कृति आदि की रक्षा खुद कर लेंगे. उसकी चिंता में हम दुबले न हों हम ईमानदारी के साथ विकास की बात करे. छल न करें. बार-बार मुख्यधारा-मुख्यधारा न करे, क्योंकि कई बार मुख्यधारा काजल बेहद गंदा होता है,नाले जैसा. और छोटी धारा का जल निर्मल होता है. हरिद्वार में गंगा साफ़-सुथरी है, मगर बनारस-कानपुर या कलकत्ता में पीने योग्य भी नहीं रही.

आंकड़े बताते हैं कि आज भारत में आठ करोड़ से ज्यादा जनजातियाँ हैं. सचमुच किसी ने ठीक ही खा है कि ये सब एक तरह से हॉट केक है. हर कोई इनका दोहन कर लेता है. अधिकारी, व्यापारी से लेकर नेताओं तक. अब तो एक नयी प्रजाति भी आ गयी है-”एनजीओ” की. इनका खेल अलग चलता है. ये लोग विकास-विकास खेलते है. लेकिन विकास होताही नहीं. हाँ,इनको लाखो रुपयों का अनुदान ज़रूर मिलता रहता है. जाकर लोगो को पता होगा कि जब देश आज़ाद होने वाला था तब गांधी जी ने आदिवासियों से वादा किया था, कि ‘देश आज़ाद होने के बाद जल, जंगल और ज़मीन के मालिक तुम्ही रहोगे’,लेकिन हुआ क्या, अंगरेजों के कानून बरकरार रहे और आदिवासी अपनी ही धरती पर पराये हो गए. छत्तीसगढ़ सरकार ने आदिवासियों के वनाधिकार पत्ते ज़रूर बाँट दिए है, लेकिन सही मायने में अभी उनको पूरा हक़ नहीं मिल सका है.सन १८९४ का भू अधीग्रहण कानून अभी तक चल रहा है, क्यों? एक नहीं अनेक अंगरेजी कानून अब तक चल रहे है, क्या हमारे सत्ताधीशों को शर्म नहीं आती? मंशा साफ़ है कि वे भी अंगरेजों की तरह्ही राज करना चाहते है लोकतंत्र की आड़ है, बस.पञ्चवर्षीय योजनाओं को देख ले. आदिवासी उप योजनाओं के लिए जो राशि तय की जाती है वह ऊँट के मुंह में जीरा की तरह होती है. बलवंत मेहता कमेटी और भूरिया कमेटी आदि ने अनुसूचित जनजातियों के विकास विषयक जो रिपोर्टें पेश की, उनको अब तक लागू नहीं किया गया. अगर वे लागू हो जाती तो वनवासियों की तकदीर और तस्वीर दोनों बदल जाती.

आज पूरी दुनिया में तापमान बढ़ रहा है, जंगल कट रहे है, नदियाँ प्रदूषित हो राही है, लेकिन सुदूर जंगलों में जा कर देखें तो जनजाति के लोग वनों को बचा कर रखना चाहते है, प्रकृति के वे पुजारी है, उसकी पूजा करते है. वे हमारी तरह कर्म कांडी नहीं है. उनका अपना सनातन धर्म है,जहाँ पाखंड नहीं है. निश्छलता है. वे आज भी घुलमिलकर रहते है. उनकी बहुत-सी जातिया नहीं है, बहुत से देवता भी नहीं है. उनके सीमित रीति-रिवाज़ है, जिसको मना कर वे खुश रहते है. अनुसूचित जनजातियों के गीत, उनकी रीत, उनकी प्रीत, सब वन्दनीय है. मै यह मानता हूँ कि कुछ मामलों में उनको नयी दृष्टि देने की ज़रुरत है, लेकिन अधिकाँश मामलों में वनवासी समाज हमसे काफी आगे है. इसलिए उनको मुख्यधारा में लेन की बात बंद कर देने चाहिए और फिलहाल हमको उनकी मुख्यधारा की ओर मुड़ने कि कोशिश करनी चाहिए.पहले हम उनके पास जाये, उनका दिल जीते, फिर अपनी बात कहे. देखिये, धीरे-धीरे नगर और वनांचल एक होते जायेंगे.