राजनीति

आत्मघाती राजनीति का यह दौर : संदर्भ जेएनयू

rahul-Gandhi-jnu-3उमेश चतुर्वेदी

क्या देश के किसी और विश्वविद्यालय में देश विरोधी नारा लगता तो वहां की स्थानीय पुलिस नारा लगाने वालों पर कार्रवाई के लिए सरकारी आदेश का इंतजार करती..क्या वहां का जिला मजिस्ट्रेट इन नारों की जानकारी पाते ही चुप बैठ जाता…क्या वहां देश विरोधी आवाज उठाने वाले लोगों के पक्ष में राजनीतिक दल सड़कों पर उतरते.. क्या उस विश्वविद्यालय में -भारत तेरे टुकड़े होंगे, इंशा अल्लाह-इंशा अल्लाह- का नारा लगता और स्थानीय छात्र चुप बैठते? ये कुछ सवाल हैं, जिन्हे जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में इस नारे लगने के बाद हुई पुलिस कार्रवाई और उसके बाद शुरू हुई आत्मघाती राजनीति के बाद पूछे जा रहे हैं। जिस तरह आरोपी छात्रों के समर्थन में प्रमुख विपक्षी दल कांग्रेस और वामपंथी दलों ने सरकार के खिलाफ मोर्चा खोल दिया है, उससे ये सवाल कुछ ज्यादा ही संजीदा हो गए हैं। वैसे भी वामपंथी दलों से ऐसे मसलों पर मौजूदा रूख से इतर की उम्मीद कभी रही ही नहीं है। जिन वामपंथी दलों ने 1962 में चीन के हमले को सांस्कृतिक क्रांति बताया था, जिन्होंने 1975 में आपातकाल का साथ दिया था, इतिहास के इतने बड़े मोड़ पर वे राष्ट्र की बजाय बाहरी ताकतों और लोकप्रिय सोच के खिलाफ खड़े थे, उनसे तो उम्मीद की भी नहीं जा सकती। लेकिन डॉक्टर राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण की अनुयाई बनने का दावा करने वाले जनता दल यूनाइटेड ने जिस तरह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई पुलिस कार्रवाई को लेकर सरकार पर हमला बोला है, वह उन वोटरों के भी समझ के परे है, जिन्होंने इन दलों को संसद या विधानसभाओं तक पहुंचाया है, बिहार की सरकार बनाने का मौका दिया है। तो क्या यह मान लिया जाय कि आपातकाल के दौरान जनता दल यूनाइटेड के नेताओं ने लोकतंत्र बहाली के लिए कांग्रेस की तत्कालीन सरकार के खिलाफ मोर्चा खोला था, वह उनका गलत कदम था और चूंकि उस समय वे पोलिटिकली इनकरेक्ट थे, लिहाजा उसे पोलिटिकली करेक्ट कर रहे हैं..

भारतीय जनमानस को इन दिनों ऐसे कई सवाल मथ रहे हैं। जनमानस यह पूछ रहा है कि आखिर देश के करदाताओं के दिए पैसे पर चल रहा देश का एक संभ्रांत माना जाने वाला विश्वविद्यालय क्या सिर्फ इसलिए चल रहा है कि वह अपने कर दाताओं की ही भावना का अनादर करे और उसकी मंशा के अनुरूप उसके ही नाश की पटकथाओं को अपने मनोरंजन के लिए चुने। याद कीजिए 2010 की जून की घटना को। छत्तीसगढ़ में नक्सलियों ने घात लगाकर केंद्रीय रिजर्व पुलिस बल के 76 जवानों को मौत के घाट उतार दिया था। तब जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में शौर्य दिवस मनाया गया था। याद कीजिए 2012 को, जब यहां महिषासुर दिवस मनाया जाना शुरू हुआ। भारतीय परंपरा में शिक्षा को लेकर दो अवधारणाएं रही हैं। पहली तो यह कि बिना बुद्धि जरो विद्या यानी बिना बुद्धि के शिक्षा का कोई मोल नहीं। दूसरी मान्यता रही है कि विद्या ददाति विनयं…यानी विद्या विनयशीलता को बढ़ावा देती है। इसी की अगली कड़ी है कि विद्या विवाद के लिए नहीं होती। लेकिन वह जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय ही क्या, जो पारंपरिक खांचों को स्वीकार करे। उसके लिए इन मान्यताओं का कोई मोल नहीं है। दिलचस्प यह है कि यहां लाखों की पगार लेने वाले प्रोफेसरों को भी ऐसी ही शिक्षा देना गवारा है। लेकिन सबसे बड़ी बात यह है कि क्या इस शिक्षा से समाज को कुछ फायदा भी मिल रहा है। निश्चित तौर पर इस शिक्षा का नतीजा वितंडावाद फैलाने के तौर पर सामने आ रहा है। समाज के पैसे से चलने वाला तंत्र अगर समाज के खिलाफ हथियार की तरह ही इस्तेमाल हो तो इस तंत्र के औचित्य पर सवाल उठेंगे ही।

ब्रिटेन की राजधानी लंदन के हाइड पार्क को लोकतंत्र का सबसे बेहतरीन जगह माना जाता है। क्योंकि वहां कोई भी ब्रिटिश सरकार को गाली दे सकता है, वहां की सर्वपूज्य महारानी के खिलाफ अपशब्द कह सकता है। कई बार लोकतंत्र की पैरोकारी में जेएनयू की भी हाइड पार्क से तुलना की जाती है। लेकिन यह तर्क नकार दिया जाता है कि हाइड पार्क में सरकार को गालियां देने वाले सरकारी रहमोकरम पर जिंदा नहीं रहते। सरकारी फेलोशिप हासिल करना उनके लिए गारंटी नहीं है। लेकिन जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में आज के दौर में भी अगर किसी छात्र को कोई फेलोशिप हासिल नहीं हो पा रही हो, तब भी विश्वविद्यालय का उस पर सालाना करीब दो लाख नौ हजार रूपए खर्च हो रहा है और जाहिर है कि यह रकम भारतीय टैक्सदाता के ही जेब से आती है। वैसे इस विश्वविद्यालय में ऐसे भी छात्र हैं, जिन्हें जूनियर रिसर्च फेलोशिप के तहत 28 से 32 हजार तक छात्रवृत्ति मिल रही है। अगर वे इसे हासिल करने में नाकाम रहे तो उन्हें कम से कम आठ हजार रूपए की रकम तो मिल ही रही है। दिलचस्प यह है कि इस विश्वविद्यालय के प्रतिबद्ध छात्रों की विचारधारा, कारपोरेट के खिलाफ आंदोलन और राष्ट्र विरोध को लेकर सारी प्रतिबद्धता सिर्फ और सिर्फ विश्वविद्यालय की चारदीवारी में ही होती है। चारदीवारी से बाहर इन छात्रों में से ज्यादातर परले दर्जे के चापलूस, भौतिकतावादी और तिकड़मबाज होते हैं। विश्वविद्यालय में उन्हें नेस्कैफे का सेंटर नागवार गुजरता है, क्योंकि वह पूंजीवाद का प्रतीक है। लेकिन बाहर निकलते वक्त उन्हें बेनेटन की जींस और बगल के प्रिया सिनेमा कॉंप्लेक्स पर महंगा डिनर, महंगी शराब और महंगी कॉफी पसंद है। यहां के छात्रों की प्रतिबद्धता का आलम यह है कि वे विश्वविद्यालय में लगातार अमेरिकी साम्राज्यवाद, कारपोरेट और उसकी व्यवस्था को गाली देते रहते हैं। लेकिन उनका असल मकसद उसी अमेरिकी धरती पर नौकरियां हासिल करना है। इसीलिए जेएनयू में एक कहावत जोरशोर से सुनाई जाती है- या तो अमेरिका या मुनिरका। यानी जो अमेरिका नहीं पहुंच पाए, उनके लिए जेएनयू के सामने स्थित शहरीकृत गांव मुनिरका में ठिकाना तलाश लेते हैं। पनीर खाकर पूंजीवाद को गाली देने वाले शैक्षिक तंत्र से देशविरोधी बयानों और देश के टुकड़े करने की उम्मीद के अलावा और कुछ की भी कैसे जा सकती है।

13 दिसंबर 2001 को संसद पर हुए आतंकी हमले में षडयंत्रकारी के तौर पर दिल्ली विश्वविद्यालय के जाकिर हुसैन कॉलेज के प्रोफेसर एसआर गिलानी को सुप्रीम कोर्ट ने बरी कर दिया तो उन्हें जैसे एक आधार मिल गया- भारत को गालियां देने का और भारत के टुकड़े करने की मंशा के सार्वजनिक इजहार का। मजे की बात यह है कि उन्हें भारत सरकार की तरफ से सुरक्षा भी हासिल है। अगस्त 2008 में तो जंतर मंतर पर उनकी अगुआई में उनके समर्थक खुलेआम नारे लगा रहे थे- वी वांट आजादी…यानी उन्हें आजादी चाहिए। तब दिल्ली पुलिस के एक सिपाही की टिप्पणी थी…क्या हमारी मजबूरी है..देशद्रोहियों को हमें सुरक्षा देनी पड़ रही है। जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय में हुई मौजूदा घटना के लिए असल जिम्मेदार यह गिलानी जी हैं। ऐसे में अब भारत सरकार को यह भी सोचना होगा कि क्या उसके ही सुरक्षा के दायरे में रह रहे व्यक्ति को भारत के टुकड़े करने की आजादी देनी चाहिए।

लेकिन इस सबके बीच सबसे ज्यादा निराश राहुल गांधी ने किया है। यह ऐतिहासिक तथ्य है कि कांग्रेस का वामपंथी दलों के साथ ऐतिहासिक रिश्ता रहा है। कांग्रेस की शह पर ही वामपंथी दलों और बुद्धिजीवियों ने जवाहर लाल नेहरू विश्वविद्यालय को दिल्ली के बीचोंबीच एक ऐसे लालगढ़ के तौर पर विकसित किया, जिसे संभ्रांत दर्जा मिला…जहां के छात्र मुक्त यौन संबंधों के लिए स्वच्छंद माने जाते रहे..भारत विरोधी विचारधारा के प्रसार करते रहे …चूंकि अतीत में कथित सांप्रदायिक राजनीति के बरक्स इस विचारधारा और लाल गढ़ का कांग्रेस इस्तेमाल करती रही, इसलिए अतीत में यहां पुलिस कार्रवाईयां नहीं हुईं। लेकिन कांग्रेस के दुर्भाग्य से कथित सांप्रदायिक राजनीति अब देश की प्रमुख शासक पार्टी है। इसलिए अब कांग्रेस को भी देशद्रोह के नारों से आपत्ति नहीं रही। राहुल गांधी का पुलिस कार्रवाई के खिलाफ विश्वविद्यालय में उतरना दरअसल आत्मघाती राजनीति की निर्णायक शुरूआत मानी जा सकती है। भविष्य में जिसका खामियाजा कांग्रेस को भुगतना पड़े तो हैरत नहीं होगी।

उमेश चतुर्वेदी