राजनीति

गैर जरूरी अभिव्यक्ति के खतरे

गत 10 एवं 11 जुलाई, 2009 को रायपुर (छत्तीसगढ़) में प्रमोद वर्मा स्मृति संस्थान द्वारा दो दिवसीय आलोचना संगोष्ठी आयोजित की गई. छत्तीसगढ़ के पुलिस महानिदेशक इस संस्थान के प्रमुख हैं.इस कार्यक्रम की रपट परसों ‘प्रवक्ता’ पर प्रकाशित हुई थी. छत्तीसगढ़ के सुप्रसिद्ध पत्रकार-लेखक श्री जयराम दास ने इस पर अपनी प्रतिक्रिया भेजी है. श्री दास के अनुसार, निश्चय ही यह एक बड़ा साहित्यिक कार्यक्रम था, लेकिन जब प्रदेश आतंक से ग्रस्त हो तब क्या कोई पुलिस कप्तान अपना ध्यान ऐसे कार्यक्रम में बंटाए? हम यहाँ श्री जयराम दास के विचार प्रस्तुत कर रहे हैं:सम्पादक

हमारे एक हमारे एक स्तंभकार मित्र मज़ाक में कहते हैं कि “उनके लिये वही सम्पादक योग्य और वही अखबार क्रांतिकारी जो उनके लेख छापते रहे” वास्तव में वो अपने इसी मानदंड के अनुसार अपनी ” स्तम्भन शक्ति” बनाए रखते हैं। छत्तीसगढ़ में हाल में हुए नक्सल हमले के बाद साहित्य और पोलिसिंग पर उठे एक अनावश्यक विवाद में भी बुद्धिजीवियों ने यही परिचय दिया है। प्रदेश के पुलिस महानिदेशक विश्वरंजन द्वारा कवि स्व. प्रमोद वर्मा की स्मृति में आयोजित एक साहित्यिक कार्यक्रम में जिन्होंने आतिथ्य सुख प्राप्त किया उनके लिये यह कार्यक्रम अद्भुत और अनोखा था और विश्वरंजन जी के पक्ष में उन्होंने कलम तोड़ दी। लेकिन जो इससे वंचित रहे उनके लिये किसी पुलिस वाले का कविता करना गुनाह का काम। लेकिन सवाल पक्ष विपक्ष के परे एक संतुलित नजरिया रखने का है। सवाल यह है कि क्या वास्तव में किसी का कविता लिखना या साहित्यिक अभिरुचि आलोचना का कारण हो सकता है? बिलकुल नहीं, लेकिन उससे भी बड़ा सवाल समय एवं प्राथमिकताओं का है और उस कसौटी पर निश्चय ही पुलिस महानिदेशक का कदम आलोचना के काबिल नजर आता है। यदि वास्तव में आप एक ऐसे राज्य के पुलिस के मुखिया हो जहां पर गंभीर आतंक फैला हुआ है तो आपसे सीधे तौर पर कलम के बदले तलवार भांजने की अपेक्षा की जाती है। कम से कम आप ऐसा दिखे यह तो आवश्यक है ही। राज्य का कोई अधिकारी बहुमुखी प्रतिभा से संपन्न हो तो यह उपलब्धि की बात है। मगर ऐसा दिखने लगे कि आपका कोई शौक या प्रतिभा आपकी जिम्मेदारियों पर भरी पड़ता हो तो थोडा सा उस पर विराम की ज़रुरत तो है ही।

हालाकि यह बहस कोई नया नहीं है। इससे पहले इस कलमकार ने भी नक्सलियों की सर्वोच्च कमिटी के कथित प्रवक्ता गुडसा उसेंडी और महानिदेशक के अखबारी बहस पर आपत्ति दर्ज की थी। मुद्दों को समझने के लिहाज से इस लेखक ने नीरो तथा कृष्ण का उद्धरण देते हुए कहा था कि कृष्ण इसलिये वंसीधर के रूप मे भी पुज्य हुए क्यूंकि जब ज़रुरत पडी तो पाञ्चजन्य फूकने से भी वे नहीं चूके और नीरो इस लिये बदनाम वंसीवाला हो गया क्युकि जब रोम जल रहा था तब भी वो बंसी ही बजाते रह गया। इसका एक विपरीत उद्धरण भी कृष्ण का ही है । जब युद्ध का बिगुल बज चुका था तब भी गीता वांचने में कृष्ण इसलिए सफल हो पाये थे क्योंकि कौरवों ने भी तब तक के लिए युद्धविराम कर लिया था। लेकिन एक पत्रकार के शब्द को उधार लेकर कहूँ तो यहाँ तो आप अपने साहित्यिक कार्यक्रमों की थकान उतार भी नहीं पाए होते हैं और प्रदेश अपने जाबाज जवानों को खो बैठता है।

सवाल कलम चलाने की आलोचना का नहीं है। यहाँ भी बात वही है कि जब आपको मोर्चे पर दिखना चाहिये तब साहित्यकारों का अभिनन्दन करते हुए ना दिखे। इस आयोजन के पक्ष में कलम तोड़ते हुए एक लेखक ने लिखा कि अटलजी भी कवि थे और नेहरू जी की लेखकीय प्रतिभा से तो आज भी देश लाभान्वित हो रहा है। लेकिन वो जान बूझकर या अनजाने एक तथ्य को भूल गये कि अटल जी प्रधानमंत्री रहते हुए शायद ही कभी कविता कर पाए हों। इस बात की कसक तो अटल जी को अभी तक है की ”राजनीति की रपटीली राहों ” ने उनसे उनका कवि छीन लिया। या नेहरू जी की बात करें तो शायद लेखक इस बात को भूल गये कि उनका भी अधिकाँश लेखन आजादी के आंदोलनों मे भाग लेते हुए नहीं अपितु उस आन्दोलन के दौरान जेल में रहने के कारण ही हो पाया। प्रधानमंत्री बन जाने के बाद का तो नेहरूजी का लिखा कोई किताब शायद ही उपलब्ध हो। इसी तरह कुतर्कों की श्रृखंला में यह भी कहा गया कि अगर कोई पायलट है तो क्या वह कभी जहाज से उतरे ही नहीं। तो भाई साहब कोई पायलट साहित्य पढे इसमे किसीको क्या आपत्ति क्या हो सकती है,लेकिन इतना ध्यान ज़रूर रखना होगा के जहाज भले ही ”ऑटो पायलट मोड” में हो लेकिन यदि वहाँ चालक ने अपना साहित्य शौक पूरा करना शुरू कर दिया और यात्रियों की जान पर बन आयी तो पायलट को दोषी ठहराया ही जाएगा। सवाल ऐसे तर्क-वितर्क-कुतर्को का नहीं है। सीधी सी बात यह है कि प्रयास ना केवल होना चाहिये बल्कि दिखना भी चाहिए और साहित्यिक आयोजनों में अपना समय खपाकर आप बिलकुल यह सन्देश देने में सफल नहीं होंगे कि आप पुलिस को बेहतर नेतृत्व प्रदान कर रहे हैं।

इस बात को साबित करने की कोई ज़रूरत नहीं है कि पुलिसवाले भी बहुमुखी प्रतिभा के धनी हो सकते हैं। उनका लेखन समाज के लिये उपयोगी हो सकता है। सीबीआई के प्रधान रहे जोगिन्दर सिंह इस बात के उदाहरण हैं कि अपनी सेवानिवृति के बाद कोई अपनी प्रतिभा से समाज को कितना कुछ दे सकता है। विभिन्न समाचार माध्यमों में अपनी उपस्थिति के अलावा ढेर सारा प्रासंगिक आलेख लिखते हुए वे अपने सेवानिवृति से अभी तक इन बारह वर्षो में 29 किताब लिख चुके हैं। या साहित्य ही क्यूँ अन्य सामाजिक कार्यों मे भी फुर्सत मे बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेकर कई पुलिस अधिकारी समाज के लिये थाती बन चुके हैं। जिस माटी से महानिदेशक आते हैं वही के पुलिस निदेशक रहे अभयानंद को वे ज़रूर जानते होंगे, जिन्होंने बिहार के सैकडों गरीब बच्चो को आइआइटी तक पंहुचा कर अपना जीवन धन्य किया है। या वही के एक और अधिकारी आज दिल्ली पुलिस की सेवा के बावजूद अपने ”प्रयास” से कई सामजिक कार्यों को अंजाम दे चुके हैं। तो आशय यह नहीं है कि आप अपनी प्रतिभा का गला घोट दें। मतलब ये है कि जब समय युद्धस्थल में नेतृत्व प्रदान करने का हो तो अपने ”पोथी” को थोड़े दिनों के लिये अलग रखना चाहिए।

इस गैरज़रूरी बहस में जो सबसे आपत्तिजनक बात हुई वो ये कि लोकतंत्रीय मर्यादाओं को गंभीर नुकसान पहुचाने का प्रयास किया गया। अपने ”मेजबान” की वकालत करने के अति उत्साह में एक साहित्यकार तो कूदकर इस नतीजे पर पहुंच गये कि राजनेता और नक्सली लामबंद हो गये हैं। सीधी सी बात यह है कि कोई कितने भी बड़े अधिकारी हो, लोकतंत्र में चुने गये प्रतिनिधि के मातहत ही उनको काम करना होता है। लेकिन किसी जन-प्रतिनिधि को उसके आपत्ति या आलोचना के कारण नक्सलियों के बरक्स खडा कर देने से बड़ा दुस्साहस कोई नहीं हो सकता। अभिव्यक्ति के इतने बड़े खतरे उठाने की इजाजत किसी को भी नहीं दी जानी चाहिए। लेखक की राजनेताओं पर इस तरह कि टिप्पणी गैरजिम्मेदाराना ही कही जायेगी। इसी तरह अगर विश्वरंजन जी के ही पूर्व के लेखों की बात करें तो आपको भले लग रहा हो कि डीजीपी साहब ने गुडसा उसेंडी को अपने लेखो द्वारा सलाम पंहुचा कर कोई क्रांति कर दी हो,लेकिन सचाई तो ये है के एक प्रतिबंधित संगठन के किसी छद्म प्रवक्ता की बातों का जबाब दे कर और सम्बंधित अखबार के सम्पादक द्वारा उसके परिचय को प्रमाणित कर असंवैधानिक कार्य ही किया गया था। डीजीपी के लेखों द्वारा भले ही बहुत सी चीजों का पता लोगों को चला। निस्संदेह उनके आलेख गज़ब के थे। लेकिन उसकी कीमत ज्यादा ही चुकानी पड़ी। कही ना कही आतंकियों को मान्यता ही मिली उससे। आप ध्यान दें,उस बहस मे क्या हो रहा था। इसी बात की बहस चल रही थी ना कि नक्सलवाद सही है या ग़लत। क्या ये ऐसा नहीं हुआ जैसे आप एक बहस चलाये कि बलात्कार सही है या ग़लत, बजाय इसके बहस तो ये होनी चाहिए ना कि बलात्कारियों को मृत्युदंड दिया जाय या उम्र कैद।

तो जैसे आज समलैंगिकता पर बढ़-चढ़ कर बातें हो रही है और 377 को राष्ट्रीय आपदा घोषित किया जा रहा है या इसके विपरीत विचार वाले कुछ लोग हाय-तौबा मचा रहे हैं। कुछ इस तरह के अनावश्यक बहसों से भला किसी का नहीं होता। सबसे बड़ी बात तो यह कि व्यक्ति की तारीफ या आलोचना आधारित बहस में समय खपाना कहीं से बुद्धिमत्ता नहीं है। बात जब महानायकों के शहादत की होनी चाहिए, देशद्रोहियों से बदला लेकर राज्य को बचाने की होनी चाहिए वहाँ कोई पुलिसवाला कविता लिखे या नहीं, ऐसा बहस कर हम कोई परिपक्वता का परिचय थोड़े दे रहे हैं। आपमें अगर मुक्तिबोध है तो बेशक मठ तोडिय़े,मनुष्य हैं तो कहिये भी,लेकिन अभिव्यक्ति के ऐसे अनावश्यक खतरे उठाकर आप किसका भला कर लेंगे? ना अपना, ना अपने पसंदीदा मेजबान कवि का और ना ही नक्सल आतंक से पीडि़त जनता का ही।

-जयराम दास.