समाज

ये हंगामा है क्यों बरपा … – आशीष कुमार ‘अंशु’

mangalore_attackआज से छह महीने पहले लोग जिस श्रीराम सेना को जानते भी नहीं थे, आज मीडिया की मेहरबानी से एक जाना पहचाना नाम बन गया है। जरा सोचिए श्रीराम सेना के दर्जन भर कार्यकर्ताओं ने अमनेसिया पब, मंगलौर (कर्नाटक) पर हमला करके अखबरों में जितनी खबर पाई और इलैक्ट्रानिक चैनलों की जितनी फूटेज खाई। इतना नाम कमाने के लिए ‘विज्ञापन’ कर उन्हें कितना खर्च करना पड़ता। पहली नजर में यही लगता है कि श्रीराम सेना वाले प्रमोद मुतालिक ने मीडिया को इस्तेमाल कर लिया।
इस मामले का एक दूसरा पहलू भी है। जिसकी वजह से मीडिया की रूचि लंबे समय तक इस विषय में बनी रही। वह है मामले का हाई प्रोफाईल होना। यदि इस तरह का हमला किसी झुग्गी झोपड़ी वाले इलाके में हुआ होता तो निश्चित मानिए मीडिया इतनी सक्रिय नहीं होती।
श्रीराम सेना ने जो किया उसके पक्ष में कोई खड़ा नहीं हो सकता चूंकि उनका विरोध प्रदर्शन का तरिका लोकतांत्रिक नहीं था। लेकिन इस सबके बावजूद आप इस पूरे कथानक में जो ‘नैनिकता के सवाल’ उठे हैं, उसे कम करके नहीं देख सकते। जिस भारतीय संस्कृति और परंपरा की बात की जा रही थी, वह श्रीराम सेना की अनैतिकता की वजह से दब सी गई। जबकि इस विषय में भी बात होनी ही चाहिए। क्या आप इसे ठीक मानेंगे कि इस बात की उपेक्षा सिर्फ इसलिए कर दी जाए क्योंकि श्रीराम सेना के कुछ उत्साहित नौजवानों ने गलत तरिके से इस विषय को उठाया है?
भले ही इस देश के दशमलव शून्य-शून्य-शून्य कुछ प्रतिशत लोग लाख उत्तार आधुनिकता का ढोल पीट लें, लेकिन आज भी भारतीय समाज में वह संस्कार कायम हैं, जिसे ‘भारतीयता’ कहते हैं। तमाम टीवी चैनलों पर लोग चिख-चिल्ला रहे थे, लेकिन हमले के बाद पीड़ित लड़कियां कहां गायब हो गई? कितने प्रतिशत अभिभावक देश में इस बात की इजाजत अपने लड़के-लड़कियों को देंगे कि वे पब में जाएं और शराब-सिगरेट पीएं। रेव पार्टियों में अपने पुरूष मित्रों के साथ कोकिन, स्मैक और हेरोईन के साथ कृत्रिम बारिस का आनन्द उठाएं।
दर्जनों ऐसे मामले हैं, जब रातों-रात झुग्गी-बस्तियों को तोड़कर वहां रहने वालों को बेघर कर दिया गया। यह मामला श्रीराम सेना के कर्म से कहीं बढ़कर भयावह और शर्मनाक है। लेकिन किसी चैनल वाले की आंख नहीं खुलती। अन्याय के खिलाफ आवाज बुलन्द करने का दावा करने वाली मीडिया ना जाने उस वक्त कहां सो जाती है। वजह साफ है कि चूंकि वह मामले ‘लो प्रोफाइल’ होते हैं। इसलिए दब जाते हैं। खबरिया चैनलों का उद्देश्य खबर देना बिल्कुल नहीं है। उनका उद्देश्य है, दर्शकों का मनोरंजन करना और पूंजीपतियों के हितों की रक्षा करना। अब श्रीराम सेना वाली खबर में मामला हाई प्रोफाइल है और मामले से सबंधित विजुअल्स चैनल वालों के पास हैं, और इस खबर के साथ में ड्रामा है और मनोरंजन भी भरपूर है। और क्या चाहिए ‘खबर’ के लिए?
साप्ताहिक पत्रिका आउटलुक (अंग्रेजी) ने अपना 9 फरवरी 2009 के अंक को श्रीराम सेना के कारनामे को समर्पित किया है। इसी अंक के पृष्ठ 37 पर पीड़ित लड़कियों की तस्वीर प्रकाशीत की गई है। लेकिन इस तस्वीर में पीड़ितों के चेहरे को ढंक दिया गया है, आखिर ऐसा क्यों?
यदि पब में जाना बच्चों की आजादी से जुड़ा मसला है, तो उनकी आजादी की रक्षा के लिए उन बच्चों के मां-बाप को सामने आकर कहना चाहिए था- ‘हमारे बच्चे यदि पब-बीयर बार- नाइट क्लब में जाते हैं तो किसी को क्यों आपत्ताी है?’
अब सोचने वाली बात यह कि कौन है जो इस खबर को हवा दे रहा है। वही जो इस देश में पब-नाइट क्लब-बीयर बार की पश्चिमी संस्कृति को बढ़ाना चाहते हैं। जिसने भारत जैसे देश में ‘वेलेन्टाइन’ का इतना बड़ा बाजार खड़ा कर दिया। आज कोई इसके विरोध में बोले तो उसे ‘आउट डेटेड’ ही समझा जाएगा।
अच्छी बात यह है कि बाजार के तमाम हथकंडों के बाद भी भारतीय आम समाज के बीच ना वेलेन्टाइन कल्चर को स्वीकृति मिली है ना ही नाइट क्लब कल्चर को। बहरहाल मीडिया ने जिस हल्केपन के साथ इस संवेदनशील मामले को जनता के सामने रखा है, उससे पूरी बात स्पष्ट होकर सामने नहीं आई है। वहां से इए तरफा बात की गई है, जिसकी वजह से दूसरा भारतीय पक्ष लगभग अनसुना रह गया।

—- आशीष कुमार ‘अंशु’
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