जैन दर्शन भगवान महावीर और समाजवाद

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सृष्टि व्यवस्था में ‘धर्म’ को प्राकृतिक सत्ता माना गया है। जैन धर्म का न तो कोई आदि है और न ही अंत इसलिए यह निरग्रंथ है और प्राकृतिक धर्म है। वेदों में भी जैन धर्म को वेदों से पूर्व का स्वीकर किया गया है और जैन दर्शन की सृष्टि संबंधी व्याख्या आधुनिक वैज्ञानिक खोजों से मेल खाती है। उसके अनुसार सृष्टि की उत्पत्ति का कारण छोटे-छोटे पुद्गलों को माना है। ये पुद्गल परस्पर मिलकर अणु बनाते हैं। अण्ंाुंओं के संयोग से संसार की विभिन्न वस्तुओं, जड़-चेतनादि की उत्पत्ति होती है। जड़-चेतन में पुद्गलों की उपस्थिति उसे जीवनमय बनाती है। पुद्गल की तुलना हम परमाणुवाद के साथ के आधुनिक सिद्धांत से भी कर सकते हैं। यह भी विज्ञान-
प्रमाणित है कि दो परमाणु परस्पर मिलकर एक अणु की अंतर्निहित रचना करते हैं, जो सृष्टि के समस्त पदार्थों की उत्पत्ति का कारण है लेकिन पुद्गल परमाणु नहीं है। परमाणु में जीवन है, वैज्ञानिक ऐसा कोई दावा नहीं करते। वे परमाणु की गति का आंकलन कर सकते हैं। परमाणु में आतनिर्हित ऊर्जा की खोज भी की जा चुकी है।
वैज्ञानिक अवधारणा के अनुसार परमाणु जड़-चेतन से परे लघुत्तम कण है, जो संसार की प्रत्येक वस्तु, जड़ और चेतन दोनों की उत्पत्ति का कारण है। इससे भिन्न पुद्गल चेतनामय इकाई, जीवन का लघुत्तम रूप है। तदनुसार यह समस्त संसार छोटे-छोटे पुद्गलों से मिलकर बना है। अतएव जैन दर्शन के अनुसार दृश्यमान जगत के कण-कण में जीवन है। उनका सम्मान करना जीवन का सम्मान करना है। भगवान महावीर ने जैन दर्शन को और अधिक व्यापक दृष्टिकोण देकर, जीवन जीने के तरीकों को सरल बनाकर मोक्ष प्राप्ति का मार्ग बतलाया।
भगवान महावीर, ‘त्रिशला-सिद्धार्थ’ के लाडले ‘वर्धमान’ का जन्म ईसा से लगभग 600 वर्ष पूर्व वैशाली क्षेत्रा में हुआ। बाल्यकाल से ही उनका पालन-पोषण राजकुमारों की तरह राजसी वातावरण में हुआ किंतु बचपन से ही वे समाज में बढ़ते कर्मकांड व खंडित आचरण से क्षुब्ध थे। बचपन में ‘वर्धमान’ शांत स्वभाव के थे परंतु काफी बहादुर थे। उनमें महानता के लक्षण दृष्टिगत होने लगे थे। 30 साल की उम्र में उन्होंने सांसारिक जीवन का त्याग कर दिया और आध्यात्मिक जागरूकता पाने की चाह में उन्होंने घर छोड़ दिया और उन्हें यह महसूस हुआ कि यह केवल आंतरिक अनुशासन के माध्यम से संभव हो सकता है जिससे आगे चलकर उन्होंने न केवल सुधार किया बल्कि उस खंडित विचारधारा को अपने विचारों और क्रियाओं की तरफ मोड़कर समाज व राष्ट्र निर्माण में अविश्वसनीय योगदान दिया। वैसे तो ‘वर्धमान’ नाम उनके गर्भ में रहते हुए राजकोष में हुई वृद्धि के कारण पड़ा परंतु उनका एक ‘वीर’ नाम बाल्यकाल में उनके कृतियों/कृतों के द्वारा पड़ा जैसे उत्तेजित हाथी की सूंड़ पकड़कर उस पर सवारी करना। विषैले नाग को पूंछ से पकड़कर एक तरफ फेंक देना आदि। आगे चलकर यही ‘वीर’ स्वभाव में उदारता लिए हुए निडरता और शक्ति के साथ 28 वर्ष की आयु में ही घर-बार छोड़ जंगलों में तपस्या करने का निर्णय लिया परंतु 2 वर्ष तक पारिवारिक हस्तक्षेप के कारण वे रुके और 30 वर्ष की आयु में जंगलों की तरफ मुंह कर लिया। वहीं फिर तप किया और तपस्या भी की। उन्होंने दुनिया को जैन धर्म के पंचशील सिद्धांत दिये और उन पर अपने आप से तप और तपस्या में लीन हुए इसलिए उन्होंने गंभीर तपस्या और भौतिक तपत्व का जीवन जीना शुरू किया। अगले साढ़े बारह वर्ष तक जम्बक में एक विशाल वृक्ष के नीचे गहन ध्यान और कड़ी तपस्या करने के बाद उन्हें कैवल्याज्ञान की प्राप्ति हुई। कैवल्याज्ञान प्राप्ति के बाद उन्होंने अहिंसा, सत्य, असत्य (चोरी न करना), ब्रह्मचर्य (शुद्ध आचरण) और अपरिग्रह (गैर लगाव) की सीख दी जो कि आध्यात्मिक प्राप्ति के लिए आवश्यक है। एक साल तक उन्होंने एक ही वस्त्रा पहना और उसके पश्चात उन कपड़ों का भी त्याग कर निर्वस्त्रा रहने लगे। उन्होंने ठान लिया था कि वे कोई भी संपत्ति साथ में नहीं रखेंगे फिर चाहे वो पानी पीने के लिए कटोरा ही क्यों ना हो? वे अपने हाथों के खोकलों में ही दान लिया करते थे। अहिंसा पर सर्वोच्च अधिकार के नाते महावीर का सभी आदर करते हैं। सभी परिस्थितियों में उन्होंने अहिंसा का ही समर्थन किया और उनकी इसी शिक्षा का महात्मा गांधी और रवींद्रनाथ टैगोर जैसे महान व्यक्तियों पर भी काफी प्रभाव रहा है। इन्हीं ‘वीर’ ने जब अपनी इंद्रियों को वश में कर अपने अंतरंग में प्रवेश किया तभी से वे ‘वीर’ से ‘महावीर’ कहलाये। आत्मिक और शाश्वत सुख की प्राप्ति हेतु यही पंचशील के पांच सिद्धांत सत्य, अहिंसा, अपरिग्रह, अचौर्य और ब्रह्मचर्य हुए।

अहिंसा: पहला मूलभूत सिद्धांत देते हुए भगवान महावीर ने कहा है ‘अहिंसा परमो धर्म’। इस अहिंसा में समस्त जीवन का सार समाया है। इसे हम अपनी सामान्य दिनचर्या में निम्नलिखित नीतियों को अपनाकर अहिंसा धर्म का पालन कर सकते हैं।
थ् कायिक अहिंसा (कष्ट न देना)ः यह अहिंसा का सबसे स्थूल रूप है जिसमें हम किसी भी प्राणी को जाने - अनजाने अपनी काया द्वारा हानि नहीं पहुंचाते।
थ् मानसिक अहिंसा (अनिष्ट नहीं सोचना)ः अहिंसा का सूक्ष्म स्तर है। किसी भी प्राणी के लिए अनिष्ट, बुरा, हानिकारक नहीं सोचना।
थ् बौद्धिक अहिंसा (घृणा न करना)ः अहिंसा के सूक्ष्म स्तर पर ऐसा बौद्धिक विकास होता है कि जीवन में आने वाली किसी भी वस्तु, व्यक्ति, परिस्थिति के प्रति घृणा के भाव का त्याग हो जाता है।
थ् सत्य से अभिप्राय है कि ‘सही का चुनाव’

सत्य सिद्धांत का अर्थ है-
थ् उचित व अनुचित में से उचित का चुनाव करना
थ् शाश्वत व क्षणभंगुर में से शाश्वत का चुनाव करना
थ् अचौर्य का आध्यात्मिक अर्थ है –  शरीर-मन-बुद्धि को ‘मैं’ नहीं मानना। ‘मैं’ शुद्ध चैतन्य स्वरूप हूँ तथा शरीर-मन-बुद्धि इस मानव जीवन का यापन करने हेतु मात्रा साधन रूप हैं जिनके द्वारा हम अपने यथार्थ स्वरूप तक पहुँच सकें। जैसे जल से भरी मटकी का कार्य केवल जल को अपने भीतर संभालना है, मटकी जल नहीं है। प्यास जल से बुझती है, मटकी से नहीं। इसी प्रकार चेतना इस शरीर-मन-बुद्धि में व्यापक है परंतु वह ‘मैं’ अर्थात स्वरूप नहीं है। अपनी अज्ञान अवस्था से बाहर आकर जब हम अपने शुद्ध आत्मिक स्वरूप को ही ‘मैं व मेरा’ मानते हैं तभी भगवान द्वारा प्रदत्त अचौर्य के सिद्धांत का पालन होता है।
थ् ब्रह्मचर्य- यह सिद्धांत उपरोक्त तीन सिद्धांतों -अहिंसा, सत्य, अचौर्य के परिणामस्वरूप फलीभूत होता है। इसका शाब्दिक अर्थ है ‘ब्रह्म$चर्य‘ अर्थात ब्रह्म (चेतना) में स्थिर रहना।
थ् अपरिग्रह- जो स्व स्वरूप के प्रति जागृत हो जाता है और शरीर-मन-बुद्धि को अपना न मानते हुए जीवन व्यतीत करता है उसकी बाह्य दिनचर्या संयमित दिखती है, जीवन की हर अवस्था में अपरिग्रह का भाव दृष्टिगोचर होता है।
अपरिग्रह के निम्नलिखित
तीन आयाम हैं –
थ् वस्तुओं का अपरिग्रह
थ् व्यक्तिओं का अपरिग्रह
थ् विचारों का अपरिग्रह
भगवान महावीर ने यह संदेश दिया कि दुनिया की सभी आत्मा एक सी है और हर व्यक्ति दूसरों के प्रति वही विचार, आचरण और व्यवहार रखे जो हमें स्वयं के लिए पसंद हो इसी से महावीर स्वामी
द्वारा दिया गया संदेश ‘जियो और जीने दो’ की उत्पत्ति हुई। भगवान महावीर ने संपूर्ण भारत भर में प्रवास किया और अपने दर्शन की शिक्षा दी जो तीन आध्यात्मिक सम्यक आचरण, समयक कर्तव्य, सम्यक बोध पर और पांच नैतिक तत्वों ‘‘अहिंसा’’ यानी हिंसा न करना, ‘‘सत्य’’ यानी सच बोलना, ‘‘असत्य’’ यानी चोरी न करना, ‘‘ब्रह्मचर्य’’ यानी शुद्ध आचरण और ‘‘अपरिग्रह’’ यानी सम्पत्ति जमा न करने पर आधारित थी।
भगवान महावीर के 30 वर्ष बाद समकालीन काल में महात्मा बुद्ध का जन्म हुआ और भगवान महावीर के विचार, आचार और उपदेशों से प्रभावित होकर उन्होंने भी त्याग-तपस्या का मार्ग अपनाकर भगवान महावीर द्वारा बताई गयी क्रियाओं व उपदेशों को, जो अत्यंत कठिन और कठोर थे, कुछ सरल कर अंतरग में उतारा और उनका अनुशरण कर अहिंसा और शांति का विश्व को उपदेश दिया।
भगवान महावीर पहले पुरुष रहे जिन्होंने सामाजिक शक्ति के महत्व को समझने एवं समाजवादी अर्थव्यवस्था ( आज का समाजवादी विचार) का विचारों में सूत्रा पात कर परिग्रह की मर्यादा को समझाया। भगवान महावीर के अनुसार व्यक्ति अपनी सम्पत्ति का परिसीमन खुद कर अतिरिक्त धन को लोक कल्याण में लगाये। परिग्रह की मर्यादा और महत्व का संदेश दिया जिसका प्रयोजन व्यक्ति संयम से लेकर समाज में सम वितरण में करे। जैन गृहस्थ अपनी आय में से आहार, औषध, अभय और ज्ञान दान के निमित्त राशि निकालना अपना परम कर्त्तव्य समझता है। इस प्रकार के दानों से समाज में सन्तुलन रहता है जो समाजवादी विचारधारा का महत्त्वपूर्ण बिन्दु है। समाज के सभी लोकोपकारी कार्यों में अपने अर्जित धन में से वितरण समाज की अर्थव्यवस्था को सन्तुलन देता है। जैनधर्म की यह समाजवादी अर्थव्यवस्था परिग्रहपरिमाण व्रत से पुष्ट होती है जो व्यक्तिगत और समाजगत दोनों के लिए सुखी व्यवस्था का प्रमुख आधार है इसीलिए महावीर स्वामी ने अपने समय में जिस अहिंसा के सिद्धांत का भी जो प्रचार किया, वह निर्बलता और कायरता उत्पन्न करने के बजाय राष्ट्र का निर्माण और संगठन करके उसे सब प्रकार से सशक्त और विकसित बनाने वाली थी। उसका उद्देश्य मनुष्य मात्रा के बीच शांति और प्रेम का व्यवहार स्थापित करना था, जिसके बिना समाज कल्याण और प्रगति की कोई आशा नहीं की जा सकती।
भगवान महावीर के संपत्ति-संबंधी सिद्धांत और समाजवाद में महज इतना अंतर है कि समाजवाद राजनीतिक-संवैधानिक व्यवस्था है, जबकि जैन दर्शन नैतिक आचरण है। वह त्याग और सर्वकल्याण की भावना पर टिका है। यह आत्मानुशासन के बिना संभव नहीं। समाजवाद में अनुशासन के लिए राजनीति की मदद ली जाती है जो कि बाहरी और खर्चीला उपक्रम है। उसकी अपेक्षा अपरिग्रह नैतिकता की जमीन पर खड़ा होता है। जाहिर है कि यह उच्च मानव आदर्श है। भगवान महावीर द्वारा अहिंसा और अपरिग्रह जैसे सिद्धांतांे को अपनाकर और अनुसरण करते रहने से ही आज विश्व में जिस प्रकार अशंाति, आतंक, भ्रष्टाचार और हिंसा का वातावरण बना हुआ है और इतना बढ़ गया है कि यह स्थिति कभी भी विस्फोटक हो सकती है, सृष्टि के अस्तित्व का विनाश हो सकता है। ऐसे में समाधान निकाला जा सकता है। ‘जियो और जीने दो’ जैसे संदेश में हिंसक वातावरण को शांत किया जा सकता है। साथ-साथ इसके पंचशील के सर्वोदय सिद्धांतों को अधिक से अधिक प्रचार-प्रसार कर हम विश्व में शांति, पर्यावरण शुद्धि, पारस्परिक सौहार्द, विश्व मैत्राी भाव को दुनिया के कोने-कोने में पहुंचाकर सफल हो सकेंगे।
भगवान महावीर की अमूल्य
कल्याणकारी शिक्षाएं विश्व का कायाकल्प कर सभी के जीवन में सुख, चैन, शांति की वृद्धि करें यह हम सब की मंगल कामना है।

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