राजनीति

तृणमूल कांग्रेस ने अधिक वोट हस्‍तगत किए, वामपंथ पराजित नहीं हुआ

वीरेन्द्र जैन

प्रवक्ता की यह परिचर्चा अच्छी और जरूरी है बशर्ते कि पूर्वाग्रह से मुक्त हो और ऐसी कतर ब्योंत न की जाये जिससे कि मंतव्य ही बदल जाये ।

पहली बात तो यह कि परिचर्चा के जो आधार दिये गये हैं वे अधूरे हैं और सत्य का एक पक्ष देखते हुए लगते हैं। सबसे पहली बात तो यह कि वामपंथी दलों और उनकी सरकारों को उन्हीं पैमानों से नहीं तौला जा सकता है जिनसे कि गैर वामपंथी दलों व सरकारों को उनके कार्य परिणामों से तौला जा सकता है क्योंकि वामपंथी दल व्यवस्था परिवर्तन के लिए गठित दल हैं जबकि गैर वामपंथी दल इसी व्यवस्था में केवल सरकारें बदलने के लिए काम करते हुए चुनावी दल होकर रह गये हैं। गैरवामपंथी दल चुनाव लड़ने, सरकारों में घुसने और उन से दलीय या व्यक्तिगत लाभ कमाने के लिए कार्यरत होते हैं जबकि वामपंथी दलों में से दो तीन दल ही घोषित नीति के अंतर्गत चुनाव लड़ते हैं ताकि अपने जनसमर्थन से इस लोकतंत्रातिक व्यवस्था में भी हस्तक्षेप कर उसकी सीमाओं को सामने ला सकें और सत्ताओं के दमनकारी दस्तों से होने वाले हमलों को किसी हद तक कम कर सकें।

• वामपंथी दलों के केन्द्र में ही नहीं, अपितु कुल स्थान का एक बड़ा हिस्सा सीपीएम का है इसलिए उसको केन्द्र में रखकर ही बात करें तो वे एक कैडर आधारित दल हैं। उनमें कभी भी कहीं से भी आने वाले किसी भी व्यक्ति को सदस्यता नहीं दे दी जाती अपितु उम्मीदवार सदस्य बनाने के बाद, निरीक्षण, परीक्षण और प्रशिक्षण के बाद ही सदस्यता दी जाती है। उनके प्रत्येक सदस्य को अपनी आय के अनुसार तयशुदा दर से पार्टी को लेवी देना होती है।

• चुनाव जीतने के लिए वे कोई सैद्धांतिक समझौते नहीं करते न ही कहीं से भी आये दलबदलू या अन्य कारणों से लोकप्रिय व्यक्तियों को टिकिट देकर अपनी सीटें बढाने में भरोसा करते हैं। उनके उम्मीदवारों में पूर्व राजा रानी, फिल्मी और टीवी के सितारे, खिलाड़ी, धार्मिक वेशभूषाधारी या अन्य किसी कारण से लोकप्रिय व्यक्ति नहीं होते बशर्ते कि वे पूर्व से विधिवत किसी भी अन्य सदस्य की तरह पार्टी के अनुशासित और जन प्रतिनिधित्व के योग्य सदस्य नहीं होते।

• उनके चुने गये सदस्यों ने न तो स्वार्थ प्रेरित होकर कभी दलबदल किया, न पार्टी की नीति के खिलाफ मतदान ही किया। अपनी नीतियों के व्यापक हित में जब भी उन्हें किसी जनवादी मोर्चे में सम्म्लित होना पड़ा या किसी गठबन्धन को समर्थन देना पड़ा तो उन्होंने सबसे पहले न्यूनतम साझा कार्यक्रम बनाया और समर्थन देकर भी ऐसी किसी भी सरकार में सम्मिलित नहीं हुये जहाँ पर उनके कार्यक्रम को पूरी तरह से लागू कराने लायक उनका बहुमत न हो।

• गैरवामपंथी दलों की तरह उनके यहाँ टिकिट पाने के लिए जूतम पैजार नहीं होती, क्योंकि वहाँ व्यक्ति चुनाव नहीं लड़ता अपितु पार्टी लड़ती है व पार्टी ही प्रतिनिधित्व करती है। किसी भी जनप्रतिनिधि को मिलने वाले वेतन भत्ते समेत अन्य सुविधाएं भी पार्टी के विवेकानुसार ही उपयोग की जाती हैं। वामपंथी दलों का कोई भी जनप्रतिनिधि न तो सवाल पूछने के लिए धन लेने, सांसद निधि बेचने या कबूतरबाजी के लिए जाना गया है जबकि गैर वामपंथी दलों में से कोई भी दल इन बीमारियों से अछूता नहीं है। यह एक निर्विवाद अनुभव है कि दूसरे सारे राजनीतिक दलों की तुलना में वामपंथी दल के सदस्य और जनप्रतिनिधि ईमानदार, और सादगी से रहने वाले लोग हैं, जबकि उनकी औसत प्रतिभा गैरवामपंथी दलों से कई गुना अधिक होती है। देश में जितने भी समाज हितैषी फैसले हुये हैं उनके मूल में वामपंथी दल ही रहे हैं।

ये कुछ बहुत ही संक्षिप्त उदाहरण हैं जो वामपंथी दलों को दूसरे दलों से अलग करते हैं। यदि वामपंथी भी वही सब कुछ करते जो भाजपा, कांग्रेस, डीएमके, एआईडीएमके, समाजवादी, राजद, बसपा, आदि आदि करते हैं तो क्या आज उनकी संसदीय आँकड़ागत स्तिथि कुछ भिन्न न रही होती! क्या वे कम से कम केन्द्र की पाँच सरकारों में सम्मलित नहीं रहे होते या ज्योति बसु को प्रधानमंत्री बनवाकर कम से कम साल छह महीने केन्द्र में शासन करने का सुख नहीं उठाया होता। अगर वे भाजपा की तरह होते तो उत्तर प्रदेश, बिहार, झारखण्ड, उड़ीसा, तामिलनाडु. महाराष्ट्र की सरकारों को समर्थन देते हुए उन सरकारों में सम्मलित हो गये होते। यदि उनकी सिद्धांत वादिता और कुशल नीतिगत फैसले नहीं हुये होते तो भाजपा वीपीसिंह की सरकार में सम्मलित होकर पूरे कांग्रेस विरोध को हजम कर गयी होती। यदि न्यूक्लियर समझौते पर लोकसभा में हुयी बहस के दौरान एन मौके पर मुलायम-अमर जोड़ी ने धोखा न दिया होता, या सोमनाथ चटर्जी ने लोकसभा अध्यक्ष के पद से त्यागपत्र दे दिया होता तो परमाणु विधेयक गिरने के बाद यूपीए सरकार कहाँ होती! कुल मिला कर ये समझना जरूरी है कि वामपंथी दलों को उसी चाबुक से नहीं हाँका जा सकता। वामपंथी दल समता मूलक समाज की स्थापना और शोषण की व्यवस्था को निर्मूल करने के लिए गठित हुये हैं और तब तक प्रासंगिक बने रहेंगे जब तक कि ये लक्ष्य समाज को प्राप्त नहीं हो जाते। बंगाल और केरल जैसे राज्यों की जनता इन्हीं लक्ष्यों को पाने के लिए वोट करती है भले ही प्रचार से प्रभावित हो वह किसी भी पार्टी के पक्ष में वोट करे। जब तक ऐसा होता रहेगा जीत वामपंथ की ही मानी जायेगी। इस बार वामपंथ का मुखौटा लगाये नक्सलियों को साथ लेकर ममता बनर्जी यह भ्रम पैदा करने में सफल रही हैं।

और आँकड़े………….बड़े जोर शोर से यह प्रचारित किया जा रहा है बंगाल में वामपंथी किला ढह गया और वामपंथियों को धूल चटा दी गयी उनका सूफड़ा साफ कर दिया गया। असल में यह रिपोर्टिंग, पत्रकारिता और विश्लेषण का हिस्सा नहीं है अपितु मीडिया व्यापारियों के चापलूस पत्रकारों की लालच प्रेरित नफरत बोल रही है जबकि सच यह है वामपंथियों को-

• इन विधानसभा चुनावों में 2009 के लोकसभा चुनाव में मिले वोटों से ग्यारह लाख वोट ज्यादा मिले, ये ज्यादा वोट मिलना क्या समर्थन घटने की निशानी है या समर्थन बढने की निशानी है? उन्हें पिछले 42% वोटों की तुलना में 41% वोट मिले जब कि कुल वोटिंग का प्रतिशत काफी बढ गया। यह भी सही है मोर्चा बना के लड़ने के कारण तृणमूल कांग्रेस और कांग्रेस के गठबन्धन को 34 लाख वोट अधिक मिले।

• 2006 के विधानसभा चुनावों में वामपथियों को एक करोड़ अनठानवे लाख वोट मिले थे और उन्हें 234 सीटें मिल गयी थीं पर इस बार एक करोड़ छियानवे लाख वोट पाकर भी उन्हें कुल 61 सीटें मिलीं। कल्पना करें कि यदि हमारे यहाँ आनुपातिक प्रणाली होती तो सीटों का अनुपात क्या होता। क्या तब भी ये पत्रकार ऐसी ही टिप्पणी कर रहे होते? बहरहाल एक करोड़ छियानवे लाख किसी भी दूसरे राज्य में पराजित होने वाले गठबन्धन की झोली में नहीं हैं, जबकि वामपंथ को मिलने वाला वोट सारे लालचों को ठुकरा और सारे भ्रमों को नकार के दिया हुआ वोट होने के कारण अधिक आदर्श वोट होता है, क्योंकि वामपंथियों पर उनके बड़े से बड़े विरोधी ने भी कभी यह आरोप नहीं लगाया कि वे वोट के लिए नोट या दूसरी वस्तुएं बाँटते हैं। वे कभी पेड न्यूज छपवाने के दोषी नहीं रहे जबकि उन्हें अपने विरोधियों द्वारा अपनायी गयी समस्त चुनावी चालबाजियों का नुकसान उठाना पड़ता है।

• केरल का आँकड़ागत सच तो बड़े से बड़ा झूठा मीडिया भी छुपा नहीं पा रहा जहाँ वामपंथ की साठ सीटों के मुकाबले कांग्रेस ने 38 व बीस सीटें मुस्लिम लीग और दस सीटें ईसाइयों के केरल कांग्रेस ने जीती हैं, किंतु तामिलनाडु की 19 सीटों पर वामपंथियों को मिली विजय को वामपंथ की पराजय लिखने वाले गोल किये जा रहे हैं।

यद्यपि यह सच है कि दो राज्यों में गैरवामपंथी दलों के गठबन्धनों ने अधिक सीटें जीत कर वामपंथियों को सरकार से बाहर कर दिया है किंतु जिस विकल्प ने उनका स्थान लिया है वह सैद्धांतिक रूप से घोषणा पत्रों और कार्यक्रमों सहित अपने वचनों को ईमानदारी से पालन करने में वामपंथियों से बेहतर नहीं हैं। जिस तरह किसी वकील के लुट पिट जाने से उसकी प्रोफेशनल क्षमताओं पर सन्देह नहीं किया जा सकता, उसी तरह चुनाव में विरोधियों द्वारा अधिक वोट हस्तगत कर लिए जाने से वामपंथ का विचार और संगठन पराजित नहीं हो जाता। वामपंथ का विचार पराजित नहीं हुआ है, बदली परिस्तिथियों में उन्हें नई रणनीति बनानी होगी। उनके स्वर में न तो पराजय का भाव है न चिंता का क्योंकि चुनावों का महत्व उनके लिए सीमित है।

• परिचर्चा के बिन्दुओं में कहा गया है कि ‘वामपंथियों ने पश्चिम बंगाल में कृषि सुधार, भूमि सुधार, सांप्रदायिक दंगा मुक्‍त राज्‍य के बूते 34 साल तक राज किया। लेकिन उनके शासन में राज्‍य में उद्योग व्‍यवस्‍था चौपट हो गई, कानून व्‍यवस्‍था ध्‍वस्‍त हो गया, राजनीतिक हिंसा और गुंडागर्दी चरम पर रही।‘ तो क्या नन्दीग्राम और सिंगूर उद्योग व्यवस्था को पुनर्स्थापित करने के प्रयास नहीं थे? यदि राजनीतिक हिंसा और गुंडागर्दी चरम पर रही तो किसके द्वारा रही और सबसे अधिक कार्यकर्ता किसके मारे गये? अभी भी सबसे अधिक गम्भीर आरोपी उम्मीदवार और विधायक किस के पास हैं [एडीआर की रिपोर्ट देखें]

• ममता ने जो करिश्मा कर दिखाया वह कांग्रेस द्वारा समर्पण कर देने और गठबन्धन कर लेने के कारण हुआ। ममता को छोड़ कर दलीय स्तर पर कौन सा गठबन्धन सादगी पूर्ण है? सबसे अधिक करोड़पति किस गठबन्धन के पास हैं? [एडीआर की रिपोर्ट देखें]

• सिंगूर और नन्दीग्राम वामपंथी सरकार द्वारा संवाद की कमी को दर्शाता है जिसकी उन्हें भूल से ज्यादा सजा मिली है।

मैं समझता हूं कि वामपंथियों की गलतियां निम्नांकित रहीं-

• केरल में वामपंथी सरकार के रहते मुस्लिम और ईसाइयों के दल अधिक मजबूत कैसे हो गये? साम्प्रदायिक सद्भाव की चिंता और अल्पसंख्यकों की रक्षा में उन्होंने इनके तत्ववादियों को मजबूत हो जाने दिया। साथ ही वहाँ संघ भी कमजोर नहीं हुआ।

• जब उन्होंने न्यूक्लियर समझौते के विरोध में यूपीए की सरकार से समर्थन वापिस ले लिया था तो यह मानकर ही चलना चाहिए था कि अमरीका अपना खेल खेलेगा। मल्टी नैशनल कम्पनियों के मँहगे विज्ञापन कुछ खास अखबारों को खास शर्तों पर मिलते हैं जो परोक्ष में पेड न्यूज की भूमिका निभाते हैं, उसकी काट की कोई तैयारी नहीं की। अभी भी उनके पास मीडिया की कोई खास नीति नहीं है और उनकी प्रैस कांफ्रेंस के बाद सम्वाददाता के पास केवल बयान भर रहता है जबकि…………।

• पश्चिमी देशों की मन्दी के दौर में सबसे अधिक बिकने वाली पुस्तकों में मार्क्स की दास कैपिटल भी सम्मलित थी। मार्क्सवाद के बारे में इतनी टिप्पणी काफी है वैसे एक वैज्ञानिक विचारधारा होने के नाते उसे पसन्द करने वालों को उचित परिवर्तन और संशोधनों में कोई आपत्ति नहीं होगी बशर्ते वे विरोध की जगह विमर्श की तरह दिये गये हों और उन पर पूरी बहस हो।