राजनीति

परदेशी विश्व विद्यालय में राम संस्कृति विषयक प्रस्तुति

डॉ. मधुसूदन 
सूचना:
भारतीयों के लिए, मूल आलेख को अनुवादित और परिमार्जित कर, कुछ सुधारों के साथ प्रस्तुत किया है.)

सार बिन्दू.
ॐ==>भारतीय संस्कृति कैसे टिक सकी?
ॐ==>राम का कर्तव्य प्रेरित आदर्श:
ॐ==> अधिकार केंद्रित संघर्षवादी परदेशी विचारधाराएँ 
ॐ==> राम प्रेरित समग्र भारत 
ॐ==> राम के आदर्श की प्रखरता 
ॐ==>अलग अलग मन्वन्तरों की रामायण.
(एक) 
भारतीय संस्कृति कैसे टिक पाई?
उपरोक्त प्रश्न पूछा था, एक अमरिकन ने. मॅरीलॅन्ड युनिवर्सीटी के रॉकविल कॅम्पस की सभा में. 
अनगिनत समस्याओं के बीच भारतीय संस्कृति कैसे टिक पाई ? परदेशियों को यह प्रश्न सताता है; पर मेरा अनुभव है, कि हम अधिकतर अपनी संस्कृति के दोष ही देखते रहते हैं. 
क्या उत्तर दूँ? कठिनाई अनुभव कर रहा था. क्यों कि श्रोताओ में प्रवासी भारतीय और अन्य अमरिकन भी बैठे थे. और दोनों की मानसिकता कुछ अलग ही होती है. उत्तर देना तो आवश्यक था. कुछ सोच के पश्चात मेरा उत्तर था: ( प्रवासी भारतीयों के लिए, इस आलेख को परिमार्जित कर, कुछ सुधारों के साथ प्रस्तुत किया है.)

(दो)
राम का कर्तव्य प्रेरित आदर्श:

मेरे मत में भारत राम के कर्तव्य के आदर्श पर आज भी टिका हुआ है. बडे नगरों में शायद कुछ सडन प्रारंभ हो चुकी है. शहरी युवा परदेशी संस्कृति से प्रभावित है. पर प्रौढ माता पिता अब भी अपने कर्तव्य का निर्वहन कर परम्परा टिकाने में पराकोटि का प्रयास करते देखता हूँ. स्थूल रूप से ग्रामीण प्रजा ने राम के कर्तव्य संस्कार का अनुसरण किया है. अतः संस्कृति एक ओर चरमराती दिखती है, पर छोटे गांवों में अभी भी राम की संस्कृति जीवित है. 

भारतीय संस्कृति पर किसी एक अवतार का इतना प्रभाव नहीं जानता, जितना रामावतार का है. अकेले राम ने भारत को टिकाया है; अपना कर्तव्य पूर्ति का अत्युच्च आदर्श प्रस्तुत कर. आज भी कुम्भ मेलो में आधुनिक भारत की ७ से ८ प्रतिशत जन संख्या का सभी कठिनाइयाँ झेलकर आना, यही निश्कर्ष निकलवाता है. लेखक ने भी एक बार अर्ध-कुम्भ का प्रत्यक्ष अनुभव लिया है. इतनी भारी जनसंख्या एक पवित्र उद्देश्य से किसी और संस्कृति द्वारा प्रोत्साहित होते नहीं सुनी, न पढी, न देखी है.

(तीन)
अधिकार केंद्रित संघर्षवादी परदेशी विचारधाराएँ: 

एक ओर, अधिकार केंद्रित संघर्षवादी परदेशी विचारधाराएँ, लोगों की स्वार्थ-पूर्ति को उकसा कर, और पुष्ट कर, सस्ता और आसान तात्कालिक संगठन खडा करने में सफल दीखती हैं. अपने स्वार्थ प्रेरित अधिकार के लिए लडाकर द्वेष फैलाकर समाज को कुछ खोखला भी करती है. जिससे बंधुभाव का अंत और द्वेष को प्रोत्साहन मिलता दिखाई देता है. 

पर समाज का मूलाधार कर्तव्य अभी भी, बचा हुआ है. यह मैं राम के गहराई में, पहुँचे हुए, आदर्श की धरोहर मानता हूँ. ऐसी स्वार्थी अधिकार केन्द्रित, संघर्ष प्रेरक विचार-धाराओं के बीच राम अपनी लाक्षणिक शालीनता ले कर समाज की मानसिकता में घुसकर, जन जन के मन में, अटल जगह बनाए हुए हैं. जिसको आज भी वहाँ से हटाना सम्भव नहीं है. 

अधिकार केन्द्रित समाज और कर्तव्य केंद्रित समाज ऐसे दो अलग छोरों से यदि तुलना की जाए, तो कर्तव्य केन्द्रित समाज दीर्घजीवी और श्रेयस्कर प्रमाणित होता है. जो दिखाना इस लेखक का उद्देश्य है.
कहीं, आज भी इस भारतीय संस्कृति की सनातनता का प्रबलातिप्रबल घटक यह सौम्य प्रभाव रखने वाला, शबरी के बेर खानेवाला, वनवासियों का श्रद्धास्थान, राम तो नही? ऐसा विचार मन में उठता हुआ देखता हूँ. 

(चार) राम प्रेरित समग्र भारत: 

राम की प्रेरणा समग्र भारत में ही क्या बृहत्तर भारत में भी फैली हुयी दिखती है. सारे भारत की अग्नि दिशा की ओर आप देखें तो, वहाँ के सारे एशियायी देश, पश्चिम के देश, जैसे, वेस्ट-इंडिज के त्रिनिदाद, गयाना, सुरीनाम इत्यादि देश, रामचरित मानस से प्रभावित हैं. यह एक अलग आलेख का विषय हो सकता है.
पर आज केवल भारतीय पहलु पर ही विचार केन्द्रित करते हैं.

मेरा एक मित्र बंगलूर होकर आया, तो अपना वृत्तान्त सुना रहा था.
यह रामानन्द सागर की रामायण श्रेणी का समय था. जिस मित्र के घर वह बंगलूर में रुका था, उसने खिडकी में दूर दर्शन ऐसे लगा रखा था कि आँगन के, बाहर खडे दर्शक और अंदर बैठे दर्शक दोनो रामायण देख सकें. (ऐसा भी भारत में ही होता है.) उस दिन दूर दर्शन पर रामायण में दशरथ की मृत्यु का प्रसंग दिखाया जा रहा था. उस ने सुनाया कि, आंगन के और अंदर के दोनो दर्शक दशरथ की मृत्यु देख कर रो रहे थे. कहने को परदे पर कृत्रिम प्रसंग था. पर दर्शकों में कृत्रिम नहीं, सच्चा भाव जगा रहा था. 

इस अनुभव प्रसंग से दो पहलु स्पष्ट हैं. 

(क) उन सभी दर्शकों की रामायण के प्रति गहरी आस्था स्पष्ट थी, 
(ख) और साथ इस रामायण वाली हिन्दी की कुछ पकड भी अवश्य दिखाई दे रही थी.
पूछने पर उसे आश्चर्य हुआ कि कर्नाटक-वासियों को रामायण की यह भाषा हिन्दी थी, इसका भी ज्ञान नहीं था. रामायण की भाषा संस्कृत-निष्ठ होने से उनकी समझमे भी आ रही थी. इतना ही काफी था. और महाराज, यह था बंगलूर कर्नाटक का अनुभव. 

मेरे, उत्तर भारतीय हिन्दी प्रेमी बंधु जो हिन्दी को राष्ट्र भाषा के रूप में देखना चाहते हैं, उन्हें, इस तथ्य को सही अर्थ में समझना आवश्यक है.
संस्कृत प्रचुर हिन्दी ही आसेतु हिमाचल सारे भारत में चल पाएगी. 
विषयान्तर छोडकर मूल विषय पर आगे बढते हैं. 
(ग) वैसे गुजरात में भी संत मुरारी बापु तुलसीकृत राम चरित मानस की चौपाइयाँ सुनाकर ही हिन्दी मिश्रित गुजराती में प्रवचन करते हैं; और लाखों श्रोताओं को आकृष्ट कर सकते हैं; यह राम के साथ साथ तुलसी कृत (अवधी) हिन्दी का भी फल है. यह राम का आदर्श आज भी भारत की एकता को सक्षमता से, पुष्ट कर सकता है. विघटनकारी शक्तियों के बीच राम की यह एकता प्रोत्साहक प्रतिमा, हमें आज के इस विनाशकारी रावण से तार सकता है. 

(पाँच) राम के आदर्श की प्रखरता: 
राम स्वयं तो सामान्य कर्तव्य से भी बढकर सारा जीवन दाँव पर लगा देता है.वो भी पिता के वचनों को सत्य करने. उसका जीवन आदर्श कर्तव्य के लिए कठोर, तप्त और तीखे त्याग से ही ओत प्रोत था.
राम स्वयं शत प्रतिशत समर्पण का आदर्श जीवन जी कर दिखाते हैं. 
चौदह वर्षॊं का वनवास? सुनते ही आज का युवा काँप उठेगा. पर राम ने अपना अधिकार माँगा नहीं, न चिह्नित ही किया. पूछा तक नहीं कि, बिना पूछे पिता श्री आपने कैसे मुझे १४ वर्ष वनवास भेजने का निर्णय कर लिया? मेरी वैयक्तिक स्वतंत्रता आप के ध्यान में नहीं आई? {आज के युवा को इस बिन्दू पर कम से कम सोचना चाहिए.}
शायद आज का आगे बढा हुआ, युवा राम बनकर नहीं दिखा सकता. माना कि, राम जैसा कर्तव्य समर्पित नहीं भी हो, पर कर्तव्य केन्द्रित जीवन तो जी ही सकता है. 

वैसे काँवर में उठाकर माता पिता को तीर्थ यात्रा करवाने वाले युवा आज भी दिखते हैं. कुम्भ में काफी निर्धन वृद्धजन सर पर पोटली में अपनी न्यूनतम वस्तुएं बाँधकर मीलों पैदल यात्रा करनेवाले यात्री मैंने स्वयं आँखो से देखें हैं. वाहन चालक भी पदयात्रियों का ध्यान रख कर गाडियाँ चलाते थे. भारी वर्षा के बाद, गाडियाँ कभी कीचड में फँसती थी, तो ये पैदल यात्री उसे सामूहिक धक्का देने बिना मूल्य आगे बढ जाते थे. पैसा देने पर स्वीकार भी नहीं करते थे.
संसार में और कहाँ ऐसा समाज बसता है? ये मुझे देखना है. कोई दिखाए. 
इस राम के आदर्श ने भारत को सनातन बना दिया है. 

राम के नाम के साथ जुडी हुयी कितनी सारी कहावते भाषा में घुल मिल गई हैं.
राम के नाम का उपयोग कर कितने सारे नगरों और ग्रामों के नाम बनते हैं. 
पढा है कि कुल १६मन्वन्तरों में रामायण की कथा बताई गयी है.

कवि कहता है.
जब तक राम हमारे साथ है॥
हम चिरंतन हैं. सनातन हैं॥
वैसे हम अक्षय वट पुरातन है॥
जब राम हमारे साथ है॥
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(छः) बडा अचरज :
बडा अचरज हुआ, जब जाना कि रामायण अनेक मन्वंतरों के विभिन्न युगों में भी थी. शायद आज उनका पूरा पाठ होना भी संभव नहीं होगा? संदर्भ ’हिन्दू संस्कृति के प्रमुख ग्रंथ’ 

रामायण अलग अलग मन्वन्तरों में भी मिलती है.
इन का केवल उल्लेख ही किया जा सकता है.
(१) स्वायम्भुव रामायण-समय-> (श्लोक १८ हजार) स्वायम्भुव मन्वन्तर का ३२ वाँ त्रेता युग.
(२) श्रवण रामायण -समय ->(श्लोक एक लाख २५ हजार) स्वायम्भुव मन्वन्तर का ४०वाँ सतयुग.
(३) लोमश रामायण-समय–>( श्लोक ३२ हजार) स्वायम्भुव मन्वंतर का ६२ वाँ त्रेता युग.
(४) अगस्त रामायण-समय–>(श्लोक १६ हजार) स्वारोचिष मन्वन्तर का २ रा सत युग. 
(५) मंजुल रामायण-समय–>(श्लोक एक लाख २० हजार) स्वारोचिष मन्वन्तर का १४ वा त्रेता युग.
(६) देव रामायण- समय–>(श्लोक १ लाख) तामस मन्वन्तर के ६ वा त्रेता युग.
(७) संवृत रामायण-समय–>(श्लोक २४ हजार) रैवत मन्वन्तर के ५ वा सत युग. 
(८) सौपद्य रामायण-समय–>(श्लोक ६२ हजार) रैवत मन्वन्तर का १६ वा त्रेता युग. 
(९) मैंद रामायण-समय–>(श्लोक ५२ हजार) रैवत मन्वन्तर का २१ वा त्रेता युग. 
(१०) चांद्र रामायण-समय–>(श्लोक ७५ हजार) रैवत मन्वन्तर का ३२ वा त्रेता युग. 
(११) सौहार्द रामायण-समय–>(श्लोक ४० हजार) वैवस्वत मन्वन्तर का ९ वा त्रेता युग.
(१२) सुब्रहम-रामायण-समय–>(श्लोक ३२ हजार) वैवस्वत मन्वन्तर का १३ वा त्रेता युग. 
(१३) सुवर्चस रामायण-समय–>(श्लोक १५ हजार) वैवस्वत मन्वन्तर का १८ वा त्रेता युग. 
(१४) सौर्य रामायण-समय–>(श्लोक ६२ हजार) वैवस्वत मन्वन्तर का २० वा त्रेता युग 
(१५) दुरंत रामायण-समय–>(श्लोक ६१ हजार) वैवस्वत मन्वन्तर का २५ वा त्रेता युग 
(१६) रामायण चम्पू-समय–>(श्लोक १५ हजार) श्राद्धदेव मन्वन्तर का १ ला त्रेता युग.

ढूँढते ढूँढते बडी चकरवे में डालने वाली जानकारी मिली है. श्री रामदास गौड नामक विद्वान ने ऐसी रामायणों का उल्लेख उनकी हिन्दुत्व नामक पुस्तक में निम्न रूप में किया है. 
निश्चित इन अत्यन्त पुरानी रामायणों का मिलना आज असंभव ही होगा. पर जानकारी मुझे संशोधन करते समय जैसी मिली वैसी मैंने आपके सामने प्रामाणिकता से रखी है. 
वैसे पश्चिमी विद्वान,( केवल) एच जी वेल्स की वर्ल्ड हिस्ट्री भाग १ के ११ वें पृष्ठ पर पढा हुआ याद है; कि— 
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’भारत के सिवा और कोई संस्कृति को इस सृष्टि की उत्पत्ति के बाद, कितना समय (काल) गुजरा है? इसका पता नहीं था.’ —एच जी वेल्स. (बडी तगडी दो पुस्तकें थी.) World History -by H. G. Wells.
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वाल्मीकि रामायण से उद्धृत 
यावत स्थास्यन्ति गिरयः सरितश्च महीतले।
तावत रामायणी कथा लोकेषु प्रचरिष्यति ॥
वाल्मीकि रामायण से उद्धृत 
अर्थात:
जब तक पृथ्वी पर पर्बत रहेंगे, और नदियाँ बहती रहेगी.
तब तक रामायणी कथा पृथ्वी पर प्रचारित होती रहेगी.
सूचना: सोचा नहीं था, कि, हमारी रामायण इतने मन्वंतरों और युगों में भी पचलित होगी.