गजल

पेड़ गिरा तो उसने दिवार ढहा दी

पेड़ गिरा तो उसने दिवार ढहा दी

फिर एक मुश्किल और बढ़ा दी।

पहले ही मसअले क्या कम थे

उन्होंने एक नई कहानी सुना दी।

फूल कहीं थे सेज कहीं बिछी थी

मिलन की कैसी यह रात सजा दी।

क्या खूब है जमाने का दस्तूर भी

जितना क़द बढ़ा बातें उतनी बढ़ा दी।

चीखते फिर रहे हैं अब साये धूप में

क्यों सूरज को सारी हकीकत बता दी।

तन्हाई पर मेरी हँसता है बहुत शोर

किसने उसे मेरे घर की राह दिखा दी।

तुम्हे पता था बिजली अभी न आएगी

जलती शमां फिर भी यकदम बुझा दी।

जख्म बिछ गये हैं जिस्म पर मेरे

जाने तुमने मुझे यह कैसी दुआ दी।

मैंने तो बात तुमको ही बताई थी

तुमने अपनी हथेली सबको दिखा दी।

वो ज़हर उगल रहे थे मुंह से अपने

तुमने उनकी बातें मखमली बता दी।

नींद जब आँखों से ही दूर हो गई

तुमने भी जागते रहने की दवा दी।

 

गुज़रे हुए जमाने की याद दिला दी

मेरे ही अफ़साने की याद दिला दी।

मेरे दिल पे कब्जा था तुम्हारा कभी

मुझे उस ठिकाने की याद दिला दी।

प्यार के चंद मोती बंद जिसमे थे

उस छिपे खजाने की याद दिला दी।

सुरमई शामों में झील के किनारे

नगमें गुनगुनाने की याद दिला दी।

गम ग़लत करते थे बैठकर के जहां

हमें उस मयखाने की याद दिला दी।

हम तपते सहरा में घर से निकल जाते हैं

वो मोम के बने हैं झट से पिघल जाते हैं।

हम सोचते रहते हैं वो काम कर जाते हैं

सबको टोपी उढ़ाकर आगे निकल जाते हैं।

तमाम मोजों के हमले जब रवां होते हैं

चलते चलते वो सफीने बदल जाते हैं।

मिलना जुलना रखते हैं सारी दुनिया से

बस हमें देखते ही तेवर बदल जाते हैं।

यह भी आदत में ही शुमार है उनकी

अपने वायदे से जल्दी फिसल जाते हैं।

उनकी नादानियों का ज़िक्र क्या करें

खिलौना मिलते ही वो बहल जाते हैं।