अमेरिकी संरक्षणवाद बनाम भारत में रोजगार

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-सतीश सिंह

वैश्विक मंदी ने अमेरिका की कमर तोड़ दी है। आर्थिक संकट के परिणामों के कारण आज वहां बेरोजगारी दर का आंकड़ा 10 फीसदी तक पहुँच गया है। दूसरे विश्व युद्ध के बाद से बेरोजगारी दर में यह सबसे बड़ी गिरावट है। गौरतलब है कि दिसम्बर 2007 से लेकर आज तक तकरीबन 84 लाख अमेरिकी अपने नौकरियों से हाथ धो चुके हैं।

यूरोपीय कर्ज संकट के बाद लग रहा था कि आउटसोर्सिंग में सुधार आएगा, पर वैश्विक स्तर पर अभी तक मंदी के बादल कम नहीं हुए हैं। अमेरिका में मंदी के परिणाम हाल के महीनों में और भी बढ़े हैं। यहां चालू वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में 3.7 फीसदी की आर्थिक वृद्धि दर दर्ज की गई थी, वह आश्चर्यजनक रुप से घटकर दूसरी तिमाही में 1.6 फीसदी रह गई। तीसरी तिमाही में भी आर्थिक वृद्धि दर के सुधरने के आसार कम हैं।

सैन फ्रांसिस्को के फेडरल रिजर्व बैंक ने अपने हालिया बयान में कहा है कि बेरोजगारी दर को 8 फीसदी से कम करने के लिए हर महीने कम से कम 2,94000 नये रोजगार सृजित करने होंगे, जोकि वर्तमान स्थिति में असंभव है। ऐसे प्रतिकूल हालत में बढ़ती बेरोजगारी को लेकर अमेरिका के युवाओं के बीच असंतोष पनपना स्वाभविक है। अमेरिकी प्रांतों में नवंबर में चुनाव होने वाले हैं। इसलिए युवाओं को खुश करने के लिए अमेरिकी नीति नियंता प्रांत संरक्षणवाद को बढ़ावा देने वाली नीतियां अपना रहे हैं।

फिलवक्त भारत में अमेरिकी कंपनियों की बदौलत लगभग 50 अरब डॉलर का आउटसोर्सिंग उद्योग चल रहा है। आउटसोर्सिंग के जरिये भारत के लाखों नौजवानों को रोजगार मिला हुआ है। उल्लेखनीय है कि भारतीय आईटी कंपनियों की आय का एक बहुत बड़ा हिस्सा आउटसोर्सिंग से ही आता है। इसमें दोराय नहीं है कि भारतीय कामगारों की आउटसोर्सिंग अमेरिकी कंपनियों के लिए हमेशा ही फायदेमंद रही है। अब अमेरिकी कंपनियां नेताओं की नाराजगी से बचने के लिए आउटसोर्सिंग के विदेशी अनुबंधों से परहेज करने लगी हैं।

इंफोसिस के सीईओ गोपालकृष्णन का इस मुद्दे पर कहना है कि अब ग्राहक छोटी अवधि के लिए अनुबंध कर रहे हैं, साथ ही करार रद्द करने का अधिकार भी वे अपने पास सुरक्षित रख रहे हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो सभी अमेरिकी कंपनियां आज की तारीख में छोटी अवधि का खेल खेलना चाहती हैं। अमेरिकी कंपनी फॉरेस्टर रिसर्च के वाइस प्रेसिडेंट और प्रधान विष्लेशक जानॅ सी मैकार्थी का मानना है कि मंदी के झंझावत और नवंबर में होने वाले चुनाव की वजह से कंपनियां पुराने और नये अनुबंधों को लेकर उत्साहित नहीं हैं।

उल्लेखनीय है कि हाल ही में भारत के तीन नामचीन आईटी कंपनियों-इंफोसिस , विप्रो और टाटा कंसल्टेंसी सर्विसेज (टीसीएस) के छह ग्राहकों ने नये अनुबंधों को फिलहाल ठंडे बस्ते में डालने का फैसला किया है। अमेरिकी कंपनियों के इस रवैये के कारण ये तीनों कंपनियां 2011 में आईटी आउटसोर्सिंग में होने वाले निवेश को लेकर बेहद चिंतित हैं। दरअसल अमेरिकी कंपनियां बड़े आईटी निवेश टाल रही हैं। जानकारों का कहना है कि इस अनिश्चितता के माहौल में अमेरिका के आईटी बजट में महज 2 फीसदी इजाफा होने का अनुमान है।

भारत में अमेरिकी कंपनियों के बदले रुख से बेचैनी और चिंता का माहौल है, क्योंकि यदि अमेरिकी कंपनियां भारतीय कामगारों से आउटसोर्सिंग का काम करवाना बंद करती हैं तो भारत में बेरोजगारी का गंभीर संकट उत्पन्न हो सकता है। इस संकट के मद्देनजर संरक्षणवाद की अमेरिकी नीति के बरक्स वित्त मंत्री प्रणव मुखर्जी ने विकसित और विकासशील देशों के समूह से आपसी व्यापार बढ़ाने और वित्तीय स्थिरता सुनिश्चित करने के लिए अनुरोध किया है।

साथ ही उन्होंने यह भी कहा है कि विश्व गांव की संकल्पना के तहत अंतरराष्ट्रीय व्यापार में लचीलापन लाने और संरक्षणवाद जैसी अवधारणाओं से बचने की जरुरत है। उन्होंने कहा कि जी-20 के सदस्य देशों को नीतिगत मामलों में ताल-मेल बैठाना चाहिए, ताकि विश्व में ठोस, सतत और संतुलित विकास हो सके।

ध्यातव्य है कि सितम्बर महीने के शुरु में अमेरिका के ओहायो प्रांत ने अमेरिकी सरकारी कंपनियों को भारतीय आईटी कंपनियों के साथ आउटसोर्सिंग के अनुबंध करने से मना कर दिया है। इसके पहले भी भारतीयों के अमेरिका में प्रवेश को कम करने के लिए अमेरिका ने एच-1 बी और एल-1 श्रेणी के लिए वीजा की फीस बढ़ा दी थी। लब्बोलुबाव ये है कि वैश्विक मंदी के कारण विश्व के हर देश में आर्थिक संकट का दौर जारी है और इसी की परिणति है, बेरोजगारी में अद्भुत इजाफा।

मौजूदा संकट से कोई भी देश अछूता नहीं है। बावजूद इसके भारत और चीन में तेजी से आर्थिक स्थिति में सुधार आया है। विडम्बना ही है कि एक तरफ अमेरिका दूसरे देशों को अपनी चौधराहट के बलबूते मुक्त व्यापार करने के लिए विवश करता है और खुद संरक्षणवाद की नीति को अपना रहा है। अमेरिका की इस दोमुंही नीति का कोई भी स्वाभिमानी देश समर्थन नहीं कर सकता है। अस्तु भारत ही नहीं, अपितु अन्यान्य विकसित और विकासशील देशों को भी अमेरिका के इस दोगलेपन नीति का पुरजोर विरोध करना चाहिए।

2 COMMENTS

  1. अमेरिका की दुर्दशा इस बात का प्रमाण है की उसकी नीतियाँ उसके अपने विनाश की जिम्मेवार हैं. केवल उसी की नहीं, उसके प्रभाव वाले ( अमेरिका के साथ चाहे सहमती से हों या मजबूरी में ) देशों की दुरदशा व बर्बादी का कारण भी अमेरिकी नीतियाँ है. जो देश स्वयं अपने देश की आर्थिक सुरक्षा सुनिश्चित नहीं कर सकता, वह किसी और को उपदेश देने का अधिकारी कहाँ रह जाता है? और उसकी यह बरबादी तब है जब वह संसार के अधिकाँश संसाधनों पर अपनी दादागिरी व कुटिल चालों से कब्जा जमाये हुए है. करोड़ों लोग आज अमेरिका के कारण भुखमरी का शिकार हैं.
    ### इन हालात में, ऐसे नालायक अमेरिका के कहने पर अपने देश की नीतियाँ निर्धारित करने का काम कोई महामूर्ख या फिर अमेरिका का बिका एजेंट ही करेगा. अब आप स्वयं समझ लें की भारत सरकार इन में से क्या है ???????????????????????????????

  2. इस आलेख का सार संच्क्षेप है -नो टू बंगलुरु ,नो टू बीजिंग .
    संरक्षणवाद के सूत्रधार -श्री बराक ओबामा उबाच …

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