प्रमोद भार्गव

कोरोना आपदा के बीच देश को पृथ्वी विज्ञान मंत्रालय के सचिव एम राजीवन ने सुखद व सकारात्मक खबर दी है। उन्होंने बताया कि देश में इस साल दक्षिण-पश्चिम मानसून सामान्य रहने का अनुमान है। यह खबर खेती-किसानी, कृषि मजदूर और उससे जुड़े व्यापारियों के लिए सूकुन देने वाली है। यही खेती हमारी अर्थव्यवस्था की रीढ़ है। इसी बूते कृषि मंत्रालय ने फसल वर्ष 2020-21 में खाद्यान्न उत्पादन का लक्ष्य 63.5 लाख टन बढ़ाकर 29.83 करोड़ टन कर दिया है। देश में 2019-20 में खाद्यान्न उत्पादन रिकाॅर्ड 29.19 करोड़ टन रह सकता है। दक्षिण-पश्चिम मानसून आमतौर से एक जून को दक्षिणी इलाकों से देश में दस्तक देता है और 30 सितंबर तक इसकी राजस्थान से वापसी हो जाती है। इसबार मौसम विभाग ने मानसून के आने और वापसी से जुड़े, पिछली एक शताब्दी के आंकड़ों के विश्लेषण के आधार पर नया कैलेंडर बनाया है, इसमें क्षेत्रीय आधार पर मानसून के आने और वापसी की तारीखें तय की गई हैं। यह एक तरह से भारतीय पंचाग का अनुकरण है। इस कैलेंडर में 1961 से 2019 तक मानसून के आने की तरीखों के विश्लेषण के आधार पर देश के विभिन्न क्षेत्रों के मानसून के शुरू होने की अनुमानित तारीखें बताई गई है। इसी प्रकार मानसून की वापसी की तारीख 1971 से 2019 तक के आंकड़ों के विश्लेषण पर आधारित है।हमारी खेती-किसानी और 70 फीसदी आबादी मानसून की बरसात से ही रोजी-रोटी चलाती है और देश की अर्थव्यवस्था का मुख्य आधार भी खेती है। देश के ज्यादातर व्यवसाय कृषि आधारित हैं। देश की जीडीपी में कृषि का योगदान लगभग 15 फीसदी है। अप्रैल-मई में मानसून की अटकलों का दौर शुरू हो जाता है। यदि औसत मानसून आये तो देश में हरियाली और समृद्धि की संभावना बढ़ती है और औसत से कम आये तो पपड़ाई धरती और अकाल की क्रूर परछाईयां देखने में आती है। मौसम मापक यंत्रों की गणना के अनुसार यदि 90 प्रतिशत से कम बारिश होती है तो उसे कमजोर मानसून कहा जाता है। 90-96 फीसदी बारिश इस दायरे में आती है। 96-104 फीसदी बारिश को सामान्य मानसून कहा जाता है। यदि बारिश 104-110 फीसदी होती है तो इसे सामान्य से अच्छा मानसून कहा जाता है। 110 प्रतिशत से ज्यादा बारिश होती है तो इसे अधिकतम मानसून कहा जाता है।मौसम वैज्ञानिकों की बात मानें तो जब उत्तर-पश्चिमी भारत में मई-जून तपता है और भीषण गर्मी पड़ती है तब कम दाव का क्षेत्र बनता है। इस कम दाव वाले क्षेत्र की ओर दक्षिणी गोलार्ध से भूमध्य रेखा के निकट से हवाएं दौड़ती हैं। दूसरी तरफ धरती की परिक्रमा सूरज के इर्द-गिर्द अपनी धुरी पर जारी रहती है। निरंतर चक्कर लगाने की इस प्रक्रिया से हवाओं में मंथन होता है और उन्हें नई दिशा मिलती है। इस तरह दक्षिणी गोलार्ध से आ रही दक्षिणी-पूर्वी हवाएं भूमध्य रेखा को पार करते ही पलटकर कम दबाव वाले क्षेत्र की ओर गतिमान हो जाती हैं। ये हवाएं भारत में प्रवेश करने के बाद हिमालय से टकराकर दो हिस्सों में विभाजित होती हैं। इनमें से एक हिस्सा अरब सागर की ओर से केरल के तट में प्रवेश करता है और दूसरा बंगाल की खाड़ी की ओर से प्रवेश कर उड़ीसा, पश्चिम-बंगाल, बिहार, झारखंड, पूर्वी उत्तर-प्रदेश, उत्तराखण्ड, हिमाचल-प्रदेश हरियाणा और पंजाब तक बरसती हैं। अरब सागर से दक्षिण भारत में प्रवेश करने वाली हवाएं आन्ध्र-प्रदेश, कर्नाटक, महाराष्ट्र, छत्तीसगढ़, मध्य-प्रदेश और राजस्थान में बरसती हैं। इन मानसूनी हवाओं पर भूमध्य और कश्यप सागर के ऊपर बहने वाली हवाओं के मिजाज का प्रभाव भी पड़ता है। प्रशांत महासागर के ऊपर प्रवाहमान हवाएं भी हमारे मानसून पर असर डालती हैं। वायुमण्डल के इन क्षेत्रों में जब विपरीत परिस्थिति निर्मित होती है तो मानसून के रुख में परिवर्तन होता है और वह कम या ज्यादा बरसात के रूप में धरती पर गिरता है।महासागरों की सतह पर प्रवाहित वायुमण्डल की हरेक हलचल पर मौसम विज्ञानियों को इनके भिन्न-भिन्न ऊंचाईयों पर निर्मित तापमान और हवा के दबाव, गति और दिशा पर निगाह रखनी होती है। इसके लिये कम्प्यूटरों, गुब्बारों, वायुयानों, समुद्री जहाजों और रडारों से लेकर उपग्रहों तक की सहायता ली जाती है। इनसे जो आंकड़े इकट्ठे होते हैं, उनका विश्लेषण कर मौसम का पूर्वानुमान लगाया जाता है। हमारे देश में 1875 में मौसम विभाग की बुनियाद रखी गई थी। आजादी के बाद से मौसम विभाग में आधुनिक संसाधनों का निरंतर विस्तार होता चला आ रहा है। विभाग के पास 550 भू-वेधशालाएं, 63 गुब्बारा केन्द्र, 32 रेडियो, पवन वेधशालायें, 11 तूफान संवेदी, 8 तूफान सचेतक रडार और 8 उपग्रह चित्र प्रेषण एवं ग्राही केन्द्र हैं। इसके अलावा वर्षा दर्ज करने वाले 5 हजार पानी के भाप बनकर हवा होने पर निगाह रखने वाले केन्द्र, 214 पेड़-पौधों की पत्तियों से होने वाले वाष्पीकरण को मापने वाले, 38 विकिरणमापी एवं 48 भूकंपमापी वेधशालाए हैं। लक्षद्वीप, केरल व बैंगलुरू में 14 मौसम केंद्रों के डेटा पर सतत निगरानी रखते हुए मौसम की भविष्यवाणियां की जाती हैं। अंतरिक्ष में छोड़े गए उपग्रहों से भी सीधे मौसम की जानकारियां सुपर कम्प्यूटरों में दर्ज होती रहती हैं।मौसम विभाग की 50 वर्षों के अध्ययन पर केंद्रित रिपोर्ट के अनुसार, मौसम में जो बादल पानी बरसाते हैं, उनकी सघनता धीरे-धीरे घट रही है। इस नाते या तो कमजोर मानसून की अटकल बनी रहती है या फिर पूरे साल ठहर-ठहर कर पानी बरसता रहता है, जैसा कि बीते मानसून वर्ष में हुआ है। इससे आशय यह निकलता है कि देश में मानसून में बारिश का प्रतिशत लगातार घट रहा है। दरअसल जो बादल पानी बरसाते हैं, वे आसमान में छह से साढ़े छह हजार फीट की ऊंचाई पर होते हैं। 50 साल पहले ये बादल घने भी होते थे और मोटे भी होते थे। परंतु अब साल दर साल इनकी मोटाई और सघनता कम होती जा रही है। दरअसल महाकवि कालिदास द्वारा रचति महाकाव्य ‘मेघदूत‘ दो खंडों में विभाजित प्रणय काव्य है। पूर्वमेघ और उत्तरमेघ, जो संस्कृत में लिखे गए हैं। इनमें सांसारिक प्रेम का अद्भुत वर्णन है। किंतु इनमें महाकवि ने अपनी भावनाओं को अभिव्यक्ति जिन प्रतीकों से दी है, वे मेघ यानी बादल और बारिश से जुड़े हैं। इनका आशय है कि धरती पर जितने घने वन होंगे, आसमान में उतने ही घने और काले बादल छा-कर बरसेंगे। कालिदास वैज्ञानिक नहीं बल्कि प्रण्य कवि थे, लेकिन इस तथ्य का खंडन कोई वैज्ञानिक नहीं करता। अपितु मौसम विभाग का उक्त अध्ययन कालिदास की मान्यता की पुष्टि ही करता है।कोरोना वायरस के प्रकोप ने देश की अर्थव्यवस्था को तो बहुत क्षति पहुंचाई ही है। साथ ही यह संकेत भी दिया है कि शहरीकरण और औद्योगिकीकरण से मुक्ति के उपाय ग्रामीण अर्थव्यवस्था में ढूंढने होंगे, जिससे एकाएक किए गए लाॅकडाउन में महानगरों से ग्रामीणों का अपने गांवों की वापसी का जो हुजूम सड़कों पर उमड़ा उसकी पुनरावृत्ति न हो, इस मकसद से कृषि क्षेत्र और फसलों के प्रसंस्करण से सह-उत्पादों के उपाय तलाशने होंगे। युवा ऊर्जा गावों में रहकर कृषि और उत्पादन से जुड़ी रहेगी तो देखते-देखते ग्रामों में लघु उद्योगों की श्रृंखलाएं देखने में आने लगेंगी। ग्रामीण युवाओं को स्वावलंबी बनाए जाने के ऐसे उपाय होते हैं तो देश को कोरोना जैसी प्राकृतिक आपदाओं से निपटने में आसानी होगी। जलवायु परिवर्तन के इस दौर में कोरोना जैसी आपदाएं बिन बुलाए मेहमान की तरह कभी भी टपक सकती है।