जमीन की सियासी जंग

क्षेत्रपाल शर्मा

सर्वोच्च न्यायालय ने आखिरकार हस्तक्षेप करते हुए यह आदेश पारित कर ही दिया कि जमीन , उ. प्र. के किसानों को वापस कर दी जाए.भूमि राज्य का विषय है . सरकार भी सार्वभौम है ,लेकिन लोकहित का नाम देकर धूल को लम्बे समय तक दरी के नीचे नहीं दबाया जा सकता है. इससे जो संभावित मुनाफ़ा बिल्डरों को होना था, वह नहीं होगा. हम एक प्रान्त में देख ही चुके हैं कि किस तरह सिन्गुर लाल हो गया और अंतत: दरांती हथौड़े से अलग हो ही गई . इस प्रांत में भी साम्यवाद होने के बावजूद घाटे का बजट पेश किया जाता रहा, और वे इसके समर्थन में अपने तर्क देते रहे.

इस तरह भट्टा के आसपास राजनीति गरमा गई है.चुनाव अगले साल होने वाले हैं और हर राजनीतिक दल , पूरी की पूरी इस फ़सल को काटने को लालायित ,और इस तरह मौके का लाभ उठाने के फेर में हैं .

असल आंसू पौंछने की बात जब होगी तो वह भी किसानों को महसूस जरूर होगी.

सच तो यह है कि जिस तरह के किसान आष्ट्रेलिआ और ब्राज़ील में हैं वह हमारे किसानों के लिए परी कथा के समान हैं. न जिनको बीमा है .अभी भी आधी जमीन के लिए सिंचाई की कोई व्यवस्था नहीं हैं, सरकारी गोदामों में अनाज सड़ जाएगा लेकिन गरीबों के मुंह सूखे रह जाएंगे.बताते हैं कि एसे ही प्रक्रिया है ,तो यह प्रक्रिया किस के हित में हैं.

अभी तक हमारे देश के किसान खेमे में ही बंटे रहे चाहे वह शरद जोशी का शेतकरी संगठन हो या कोई अन्य संगठन . न ही कोई इनके पास कोई कद्दावर नेता है . बताया यह जाता है कि एक भाषा के अभाव के कारण एकजुट नहीं हो पाते .अब चौधरी चरण सिंह जी जैसे नेता नहीं रहे.लाल बहादुर शास्त्रीजी जैसे ईमानदार नहीं रहे. आजएक किसान जिसकी जोत तीन एकड़ है उसका लगान तो मांफ़ है, लेकिन किसान जब खतौनी की नकल लेने जाता है तो वह पंद्रह रुपए में मिलती है.यह तर्कसंगत प्रतीत नहीं होती.

जब कि आरटीआई के तहत एक नकल की कीमत प्रति पेज दो रुपए

होती है.ट्रांसफ़ार्मर फ़ुंक जाए तो बिना लेन देन के कोई कर्मी उसे ठीक करने नहीं जाता तो किस मुंह से हम विकाशशील होने का दम भरते हैं. सच तो यह है कि छ्द्म किसान अपनी आय छिपाने के लिए अपने को किसान घोषित किए बैठे हैं.

हालांकि छिट्पुट मामले लाभ पहुंचाने के जैसे वी.पी. सिंह जी द्वारा किसानों की कर्ज़ मांफ़ी और हरियाणा सरकार द्वारा गृह कर चूल्हा टैक्स माफ़ करना.

वास्तव में इन्हें बिचौलियों और मुनाफ़ाखोरों के जाल से उबारकर कुटीर उद्योग में खपा देने से बात कुछ हद तक बन भी सकती है जब गांवों के लोग ही आसपास एक विश्वास भरा माहौल पैदा करें कि कोई चोरी ,छिनताई आदि असुरक्षा की घटना न हो.तब ही उद्योग पनप सकते हैं .

हमारे सूबे में कितने किसान एसे हैं जो अपनी धन की जरूरत ब्याही बेटी के जेवर बिना गिरवी रखे चला लेते हैं. जिनके काम थोड़ा बिगड़ भी जाएं तो ब्याज पर कर्ज नहीं उठाते.

आज जो किसानी है वह मशीनी रह गई है ,रेडीमेड माल की तरह , गांवों में अब हल बैल नहीं हैं करने को बस टुच्ची हरकतें, आपस की काट्फांस और दबंगई के ओछे दाव पेंच रह गए हैं.

एक सधे हुए विद्वान व्यक्ति ने उर्दू की एक शेर मुझे सुनाई थी ,जिसका पहला मिसरा अब याद नहीं , लेकिन दूसरा इस तरह है

” जर्रा ………कीमिया है तो काश्तकारी है.” अर्थात सोना धरती से पैदा किया है जिसने, वह काश्तकार है.

किसानी को एक मुकम्मल मुकाम तक पहुंचाने की इस देश में सार्थक पहल हुई ही नहीं है.

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  1. २००७ में बसपा के पूर्ण बहुमत से सत्ता में आने के बाद से ही सबसे बड़ा काम मायावती की सरकार द्वारा जमीनों की तिजारत का किया गया है.किसानों की जमीन सस्ते में जबरन अभिग्राहित करके महंगे दामों पर बिल्डरों को देने के साथ खरबों रुपये बटोरने का खेल किया गया है. जिस किसी ने विरोध किया उसे रास्ते से हटा दिया गया. २७ जनवरी २०१० की रात को एक प्रमुख सचिव के बेटे की शादी के जश्न में मौज मस्ती कर रहे नगर विकास के प्रमुख सचिव हरमिंदर राज की थोड़ी देर बाद अपनी कोठी में लाश मिलती है, रात के अँधेरे में ही पोस्ट मार्टम हो जाता है. आनन् फानन में बोडी दिल्ली भेज दी जाती है और दिन निकलने से पहले उनका अंतिम संस्कार कर दिया जाता है.बाद में इसे आत्महत्या घोषित कर दिया जाता है. किसी ने कोई आवाज नहीं उठाई. ऐसा आतंक है यू पी में. भट्टा पारसोल के किसानों ने आवाज उठाई तो गोलियों से भून दिया गया. गाँव के केवल ८-९ लोग ही मारे गए लेकिन बिहार व उड़ीसा के पचास से अधिक लोग जो वहां आजीविका के लिए आये हुए थे उनका कुछ पा नहीं.लोगों का कहना है की बिटोदों की आग में उन बदनसीबों को ही जलाया गया था. जिस जमीन का सरकारी रेट ८०००/- प्रति वर्ग मीटर है उस पर ऊपर से २५०००/ प्रति वर्ग मीटर लिए जाते हैं जो नोयडा में रह रहे मेडम के अनुज को पहुंचाए बिना आबंटन संभव ही नहीं है.क्या माननीय सर्वोच्च न्यायालय इसकी जांच के लिए भी एस आयी टी का गठन करेंगे.

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