- डॉ. पवन सिंह मलिक

किसी ने सच ही कहा है कि कुछ लोग सिर्फ समाज बदलने के लिए जन्म लेते हैं और समाज का भला करते हुए ही खुशी से मौत को गले लगा लेते हैं. उन्हीं में से एक हैं दीनदयाल उपाध्याय, जिन्होंने अपनी पूरी जिन्दगी समाज के लोगों को ही समर्पित कर दी. पंडित दीनदयाल उपाध्याय को साहित्य से एक अलग ही लगाव था शायद इसलिए दीनदयाल उपाध्याय अपनी तमाम जिन्दगी साहित्य से जुड़े रहे. उनके हिंदी और अंग्रेजी के लेख विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित होते रहते थे. केवल एक बैठक में ही उन्होंने ‘चंद्रगुप्त नाटक’ लिख डाला था. दीनदयाल ने लखनऊ में राष्ट्र धर्म प्रकाशन नामक प्रकाशन संस्थान की स्थापना की और अपने विचारों को प्रस्तुत करने के लिए एक मासिक पत्रिका राष्ट्र धर्म शुरू की. बाद में उन्होंने ‘पांचजन्य’ (साप्ताहिक) तथा ‘स्वदेश’ (दैनिक) की शुरुआत की.
दीनदयाल उपाध्याय एक विचारक, प्रचारक, विस्तारक, राष्ट्रषि, संपादक, पत्रकार अर्थशास्त्री,समाजसेवी, एक प्रखर वक्ता, शिक्षाविद तथा अपूर्व संगठनकर्ता थे। उन्होंने अहोरात्र भारत माता की सेवा करते-करते अपने जीवन को होम कर दिया। दीनदयाल जी ने लेखन तथा संपादन की शिक्षा, आज के महाविद्यालयों-विश्वविद्यालयों से नहीं लिया था। उन्होंने ‘आर्गेनाइजर में ‘पॉलिटिकल डायरी तथा ‘पांचजन्य में ‘विचार- विथि नाम से नियमित स्तंभों का लेखन किया। उन्होंने भारतीय सभ्यता-संस्कृति पर होने वाले प्रहारों से व्यथित होकर लेखनी को चुना। वे लेखकों के लेखक तथा संपादकों के संपादक थे। जिनके मार्गदर्शन में मा. अटलबिहारी वाजपेयी, राजीव लोचन अग्निहोत्री, देवेन्द्र स्वरूप तथा भानुप्रताप शुक्ल ने पत्रकारिता के क ख और ग को सीखा।
आज जहां पत्रकारिता मिशन, प्रोफेशन से चलकर कमीशन में बदल गयी है। ऐसे समय में दीनदयाल उपाध्याय और पत्रकारिता के प्रति उनकी विहंगम सामाजिक दृष्टि का महत्व और बढ़ जाता है। आज जहां ‘पेड न्यूजों की चारों तरफ भरमार हैं समाचार-विचार पर विज्ञापन तथा कमीशन रूपी बाजार का बोलबाला है ऐसे समय मूल्यपरक पत्रकारिता हेतु दीनदयाल जी की प्रासंगिक और बढ़ जाती है।
समग्र अथवा एकात्म दृष्टि से मानव जीवन के सभी आयामों को देखने ,समझने और जीने की अदभुत क्षमता के धनी थे पंडित दीनदयाल उपाध्याय . पत्रकारिता को भी उन्होंने इसी दृष्टि से एक दिशा दीA वे स्वयं कभी संपादक या औपचारिक संवादाता नहीं रहे A उन्होंने संपादकों एवं संवादाताओं को सजीव सान्निध्य एवं सहचर्य प्रदान किया A तभी संपादक व पत्रकार उन्हें सहज ही अपना मित्र एवं मार्गदर्शक मानते थे .
पत्रकार के नाते आदरणीय पंडित जी का योगदान अनुकरणीय था A वे पत्रकार थे किंतु कार्ल मार्क्स ने जिस श्रेणी को जर्नलिस्टिक थिंकर कहा है,उस श्रेणी में आप नहीं थे .. उनकी पत्रकारिता केवल समकालीन परिस्थितियों में ही उपयुक्त हो ,ऐसी नहीं थी A उनकी पत्रकारिता तो सुदूर भविष्य तक उपयोगी रहने वाली पत्रकारिता थी .
पत्रकारिता और लेखक समाचार व लेख के बीच बड़ी बारीक रेखा है। यदि किसी ने कुछ लिख दिया और उस पर टिप्पणी हो गई तथा कुछ जनता के लिए संदेष हो गया, वह समाचार बन जाता है और सिर्फ अपने ही विचारों को व्यक्त करता लेख व्यक्तित्व लेख बन जाता है, जैसे लेख, लेखक, पत्रकारिता, समाचार के बीच बहुत बारीक रेखा है, ठीक उसी प्रकार की बारीक रेखा दीनदयालजी के चरित्र में थी। पंडितजी आज की परिभाषा में पत्रकार नहीं थे। क्योंकि आज पत्रकार कौन है, जिसने किसी काॅलेज, यूनिवर्सिटी से पत्रकारिता की परीक्षा पास की हो, उसके बिना कोई अपने समाचार-पत्र में पत्रकार भरती करेगा ही नहीं। लेकिन इससे पहले समय था कि प्रभाकर जैसे और बड़े-बड़े पत्रकार हो गए, जिन्होंने कोई डिग्री नहीं ली, चेलापतिराय जैसे। उस श्रेणी में दीनदयालजी परोक्ष रूप से पत्रकार माने जा सकते हैं।
उनकी गणना उस समय के प्रतिष्ठित पत्रकारों में भी होती थी। उनके पत्रकारीय व्यक्तित्व को समझने के लिए सर्वप्रथम यह बात ध्यान में रखनी होगी कि दीनदयाल जी उस युग की पत्रकारिता का प्रतिनिधित्व करते थे जब पत्रकारिता एक मिशन होने के कारण आदर्श थी, व्यवसाय नहीं।
स्वाधीनता आंदोलन के दौरान अनेक नेताओं ने पत्रकारिता के प्रभावों का उपयोग अपने देश को स्वतंत्रता दिलाकर राष्ट्र के पुनर्निमाण के लिए किया। विशेषकर हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषायी पत्रकारों में खोजने पर भी ऐसा सम्पादक शायद ही मिले जिसने अर्थोपार्जन के लिए पत्रकारिता का अवलम्बन किया हो।
किसी भी प्रकार के लेखन के प्रति उनकी दूरदृष्टि रहती थी, अपने एक लेख के माध्यम से दीनदयाल जी कहते हैं- चुगलखोर और संवाददाता में अंतर है। चुगली जनरुचि का विषय हो सकती है, किन्तु सही मायने में वह संवाद नहीं है। संवाद को सत्यम्, शिवम् और सुंदरम् तीनों आदर्शों को चरितार्थ करना चाहिए। केवल सत्यम् और सुंदरम् से ही काम नहीं चलेगा। सत्यम् और सुंदरम् के साथ संवाददाता शिवम् अर्थात कल्याणकारी का भी बराबर ध्यान रखता है। वह केवल उपदेशक की भूमिका लेकर नहीं चलता । वह यथार्थ के सहारे वाचक को शिवम् की ओर इस प्रकार ले जाता है की शिवम् यथार्थ बन जाता है। संवाददाता न तो शून्य में विचरता है और न कल्पना जगत की बात करता है। वह तो जीवन की ठोस घटनाओं को लेकर चलता है और उसमें से शिव का सृजन करता है।”
पिछले लगभग 200 वर्षों की पत्रकारिता के इतिहास पर यदि हम गौर करें तो स्पष्ट हो जाता है कि इस इतिहास पर विभाजन रेखा खींच दी जाती है, स्वतन्त्रता के पहले की पत्रकारिता और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता। स्वतंत्रता के पहले की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक व्रत था और स्वतंत्रता के बाद की पत्रकारिता को कहा जाता है कि वह एक वृत्ति है। यानी व्रत समाप्त हो गया है और वृत्ति आरम्भ हो गई। जो दोष आज हम पत्रकारिता में देखते हैं, उनकी तरफ दीनदयाल जी अपने बौद्धिक और लेखों के माध्यम से ईशारा किया करते थे।
वर्तमान पत्रकारिता का जब हम अवलोकन करते हैं तो उपरोक्त कथन ठीक मालूम पड़ता है कि पत्रकारिता वृत्ति बन गई है। दीनदयाल जी आजादी के बाद के पत्रकारों में भी थे। लेकिन आजादी के बाद भी दीनदयाल जी पत्रकारों के पत्रकार और सम्पादकों के सम्पादक थे। उनकी पत्रकारिता में उन वृत्तियों का कहीं पता नहीं चलता है। यहां तक कि कोई लक्षण भी देखने को नहीं मिलता है जिनसे आज की पत्रकारिता ग्रसित है।
पंडित दीनदयालजी निःसंदेह एक महान पत्रकार थे। वे पेटू पत्रकार नहीं थे। वे चाटुकार नहीं थे। वे लकीर के फकीर नहीं थे। वे आत्मसाक्षात्कारी थे। अपनी पैनी लेखनी द्वारा आत्मा की आवाज ही प्रस्फुटित करते थे। इसलिए उनकी लिखी बातें पाठकों के हृदय को छू जाती थीं। उनका लेखन कभी उथला या छिछला नहीं रहा। हर छोटी बड़ी घटना में वे चिरंतन मूल्य खोजते थे और उन्हें शब्दांकित करते थे। लिखते समय मानो उनकी समाधि लग जाती थी। जनकल्याण व देषहित उनकी लेखनी में हमेषा सर्वोपरि रहता था।
उनकी जीवनी का मंत्र चरैवेति रहा। दीनदयाल जी ने पत्रकारिता द्वारा अपने लेखन के रूप में भारत को भारत से परिचय कराया A ऐसे विलक्षण ,मनीषी और पत्रकार थे दीनदयालA स्वतंत्र भारत में मिशनरी पत्रकारिता के अग्रणी पुरुष दीनदयाल जी ने जो नींव डाली थी, उसी पर आगे बढ़ते हुए अक्षरशः हजारों पत्रकार भारत के अगले दौर की यात्रा का पथ निर्माण कर रहे हैं A सही अर्थों में दीनदयाल जी संपादकों के संपादक थे, भारतीय पत्रकारिता के लिए वे आज भी प्रेरणा पुंज हैं और उनकी पत्रकारिता रूपी दृष्टि आज भी वर्तमान समय के हिसाब से शत – प्रतिशत प्रासांगिक सिद्ध होती है A