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देश की नहीं, वोट की चिंता है राजनेताओं को ?

शादाब जफर ‘‘शादाब’’ 

download (1)देश में फैले दंगाग्रस्त क्षेत्रों में जिन राजनीतिज्ञों से आम जनता को यह उम्मीद रहती है कि वे लोगों को हिंसा से बचाने, बिगड़े हुए माहौल को शांत करने, सदभाव कायम करने तथा हिंसक वातावरण को अहिंसापूर्ण माहौल में बदलने की कोशिश करेंगे। वही ठीक इसके विपरीत आज सांप्रदायिकता फैलाने नफरत के बीज बोने, एक समुदाय के लोगों को दूसरे समुदाय के लोगों के खिलाफ उकसाने तथा हिंसा का तांडव खेलने में देश में सक्रिय दिखाई दे रहे हैं। और हमारे देश की राजनीतिक पार्टियों के द्वारा ऐसे लोगों को लोकसभा और विधानसभा का टिकट देने के साथ ही सियासी मंचो पर किसी बहादुर सिपाही की तरह वोटों की राजनीति और जाति के आधार पर वोट बैंक के लालच में सम्मान किया जाता है।

पिछले दिनों उत्तर प्रदेश के मुज़फ्फरनगर ज़िले में कुछ ऐसा ही नज़ारा देखा गया। पिछ्ले छह दशकों से परस्पर प्रेम, सदभावना व भाईचारे के वातावरण में रहने वाले जाट व मुस्लिम समुदाय एक साधारण सी घटना को लेकर आमने-सामने आ गए। एक हत्या ने हिंसा का रूप ले लिया. राजनीतिज्ञों की दिलचस्पी इस घटना में बढ़ी और पंचायत बुला ली गई। उसके बाद हिंसा का तांडव शुरू हो गया। और इस घटना के बाद पश्चिमी उत्तर प्रदेश के कई और क्षेत्रों में तनाव फैल गया है। कुछ सियासी राजनेताओ और पार्टियों ने निर्दोश लोगों की लाशों पर अपनी राजनीतिक रोटियां सेंक लीं। आज उत्तर प्रदेश के जो हालात है अगर यूं कहा जाए कि प्रदेश में सांप्रदायिकता फैलाने वाली राजनीतिक शक्तियों द्वारा बोए गए नफरत के बीज अब उनको लहलहाती हुई वोटो की फसलों की शक्ल में नज़र आने लगे हैं तो कुछ बुरा नही होगा।

जब से देश के विभिन्न राज्यो में विधानसभाओं के चुनाव की घोषणा हुई है इन चुनावों में बढ़त हासिल करने की गरज़ से राजनीतिक दलों ने जाति धर्म के आधार पर अपनी अपनी वोटों की फसलें बोनी शुरू कर दी थीं। कुछ समय पहले तक चुनावी वर्ष को घोषणा वर्ष के रूप में जाना जाता था. यानी 4 साल तक मंहगाई, भ्रष्टाचार तथा लूट-खसोट मचाने के बाद जब सत्तारुढ़ दल जनता के बीच फिर से वोट मांगने जाता था तो उससे पहले पूर्व कई लोकलुभावनी घोषणाएं की जाती थीं। हालांकि सत्तासीन दलों द्वारा अब भी यह हथकंडे अपनाए जा रहे हैं मगर जो राजनीतिक दल विपक्ष में हैं उन्होंने सत्ता में आने का एक नया और खतरनाक रास्ता तलाश कर लिया है वह है देश में सांप्रदायिकता का ज़हर घोलना तथा सांप्रदायिक दंगे-फसाद करवा कर धर्म के आधार पर मतों का ध्रुवीकरण करना और नफरत, विद्वेष तथा सांप्रदायिक हिंसा की फसल काटकर सत्ता के सिंहासन पर बैठना। देश में यह प्रयोग पहले भी किये जा चुके हैं ध्रुवीकरण की सफल प्रयोगशाला’’ संचालित करने वाली ताकतें अब देश में बहुसंख्यकों व अल्पसंख्यकों के मध्य धर्म आधारित ध्रुवीकरण करना चाह रही हैं ठीक वैसा ही ध्रुवीकरण जैसा भारत विभाजन के समय 1947 में देखने को मिला था। आज महज कुर्सी के लालच ने देश के राजनेताओ को अंधा कर दिया है सत्ता सुख पाने के लिये आज ये लोग निर्दोष लोगों के खून से होली खेलने में भी नही हिचकिचा रहे है। आज देश के तमाम भागों में सामाजिक सदभाव खराब हो रहा है चारों ओर सांप्रदायिकता के काले बादल मंडरा रहे है।

साम्प्रदायिकता को बढावा देने की की बात की जाये तो आज देश का मीडिया भी कटघरे में खडा दिखाई देता क्योंकी खबर को चटपटा बनाने के चक्कर में वो ये बिल्कुल भूल रहा है कि उस के द्वारा पेश की गई खबर से हमारे समाज और देश की एकता अखंडता पर क्या असर पडा या पडेगा। उदाहरण के तौर पर इन दिनों देश में बलात्कार की खबरें सुखियों में है। इनमें यदि कन्या दलित या मुस्लिम समुदाय से होती है, तो मीडिया एक सनसनीखेज़ शीर्षक यह जानकर बनाता है कि वह इस शीर्षक के माध्यम से ठहरे हुए पानी में पत्थर फेंककर लहरें पैदा करने का काम कर देगा. यह खबर इस शीर्षक के साथ लिखी जाती है-‘दलित लडक़ी के साथ दबंगों ने किया बलात्कार’ अथवा ‘मुस्लिम लडक़ी बलात्कार की शिकार.’। सवाल यह है कि आज हमारे देश में किस धर्म व किस संप्रदाय अथवा जाति की लडक़ी सुरक्षित है. बलात्कारी किसी का धर्म अथवा जाति देखकर तो बलात्कार करते नहीं. विभाजनकारी राजनीतिज्ञों के लिए अंतर्जातीय या अंतर्धामिक विवाह अथवा इन रिश्तों के मध्य होने वाली कोई अनहोनी घटना उनके लिए राजनीतिक ऊर्जा हासिल करने का माध्यम बन जाती है. अपनी प्राचीन संस्कृति, सभ्यता तथा जातीय अस्तित्व को ज़िंदा रखने अथवा बचाने जैसे खोखले दावों के साथ यह ताकतें अपने समाज के रखवाले के रूप में सामने आ खड़ी होती है। इस प्रकार नफरत और विद्वेष की हांडी उबलने लगती है तथा सांप्रदायिकता व जातिवाद का ज़हर फिज़ा में घुलने लगता है. चुनाव आने पर होने वाली विषैली रक्तरंजित बारिश से इन्हें मनचाही फसल काटने का मौका मिल जाता है. अनपढ़, शरीफ व सीधा-साधी आम जनता इन राजनीतिक हथकंडों से नावाकिफ रहती है और इनके बहकावे में आकर इनके मनमुताबिक चलने लगती है। नतीजतन देश के सदभावनापूर्ण वातावरण पर गहरा आघात लगता है और समाज में धर्म व जाति के आधार पर नफरत का ज़हर घुल जाता है. जैसा कि पिछले दिनो मुज़फ्फरनगर व उसके आसपास के क्षेत्रों में दिखाई दे रहा है. जिस पश्चिमी उत्तर प्रदेश के जाट व मुस्लिम समुदाय के लोग स्वतंत्रता से लेकर अब तक कभी भी आपस में नहीं लड़े, बल्कि एक-दूसरे के सहयोगी व सहायक बनकर रहे, एक-दूसरे के सुख-दुरूख व खुशियों में शरीक नज़र आते रहे, मुट्ठीभर राजनीतिज्ञों की ‘कृपा दृष्टि’ से आज आमने-सामने खड़े हैं।

देश के हालात को बिगाडऩे की साज़िश में बड़े ही नियोजित ढंग से अफवाहें फैलाने का भी काम किया जा रहा है। सोशल मीडिया विशेषकर सोशल नेट्वर्किंग साइट्स पर ऐसी भडक़ाऊ सामग्री डाली जा रही है। जो विभिन्न समुदायों के बीच हिंसा बढ़ाने में सहायक हो। आज हमारे देश में चंद हितकारी कार्यों, उपलब्धियों, विशेषताओं तथा लाभकारी योजनाओं के दम पर वोट मांगने की क्षमता खो चुकने वाले राजनीतिज्ञ अब सांप्रदायिकता व जातिवाद के ज़हरीले बीज बोकर सत्ता की फसल काटने में लग गए हैं. निश्चित ही यह रास्ता देश की एकता अखंडता और भाई चारे के लिये बेहद खतरनाक तथा विघटनकारी है…जो आने वाले समय में देश में गृह युद्व को दस्तक दे सकता है।

ऐसे में सवाल है कि क्या एक बार फिर हमारे देश के कुछ भ्रष्ट राजनेता देश को सांप्रदायिकता व जातिवाद की आग में झोकने का प्रयास कर रहे है? सांप्रदायिक ताकतें अपनी पूरी शक्ति के साथ इन प्रयासों में लगी हुई हैं कि किसी भी तरह देश का सामाजिक सदभाव खराब हो तथा उसका राजनीतिक लाभ उठाया जाए. तरह-तरह की छोटी, छोटी व्यक्तिगत एवं पारिवारिक स्तर की बातों का बतंगड़ बनाकर देश के सामाजिक सदभाव के वातावरण को बिगाडऩे की कोशिश की जा रही है. जहां-जहां ऐसे विभाजनकारी प्रयास किए जा रहे हैं वहां-वहां विभिन्न राजनीतिक दलों के नेताओं की सक्रियता साफतौर पर देखी जा रही है। वही देश की वोटो की राजनीति के तहत जो कुछ हो रहा है उसे देखकर आज ये कहना गलत भी नही होगा कि आज देश की नही वोट की चिंता है राजनेताओ को?