पुरुषार्थ और प्रारब्ध

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मनमोहन कुमार आर्य

हमारा जीवन प्रारब्ध की नींव पर बना है और जीवन को सार्थक करने के लिए हमें पुरुषार्थ करना है। हम वेद मार्ग पर चलते हुए ज्ञान प्राप्ति, उपासना व समाजोत्थान के लिए जितने कार्य करेंगे उससे हमारा वर्तमान और भावी जीवन यशस्वी व सुखमय होगा। प्रश्न है कि पुरुषार्थ और प्रारब्ध हैं क्या? इस संबंध में ऋषि दयानन्द जी ‘स्वमन्तव्यामन्तव्य प्रकाश’ में कहते हैं कि पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा इसलिये है कि जिस से संचित प्रारब्ध बनते हैं, जिसके सुधरने से सब सुधरते हैं और जिसके बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं। इसी से प्रारब्ध की अपेक्षा पुरुषार्थ बड़ा है। ऋषि दयानन्द ने पहली बात यह कही है कि पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा है। पुरुषार्थ से संचित प्रारब्ध बनते हैं अर्थात् प्रारब्ध वृद्धि को प्राप्त होते हैं। पुरुषार्थ के सुधरने से सब सुधरते हैं अर्थात् इससे हमारा प्रारब्ध भी सुधरता है। ऋषि ने यह भी कहा है कि पुरुषार्थ के बिगड़ने से सब बिगड़ते हैं अर्थात् प्रारब्ध भी बिगड़ता है। इन्हीं कारणों से पुरुषार्थ प्रारब्ध से बड़ा है। पुरुषार्थ है क्या? पुरुषार्थ सद्कर्मों को कहते हैं। वेदानुकूल सद्कर्मों को पुरुषार्थ कहते हैं। वेदविरुद्ध कार्य भी पुरुषार्थ हो सकता है परन्तु इन अशुभ कर्मो। का परिणाम सुखमय न होकर दुःखरूप ही होगा। मत-मतान्तरों की मिथ्या मान्यताओं के आचरण में पुरुषार्थ तो होता है परन्तु इससे हमारा प्रारब्ध सुख रूप न होकर दुःख रूप ही होता है। इसी लिए सभी मनुष्यों को वैदिक धर्म की शरण में आकर श्रेष्ठाचार कर सुख रूप प्रारब्ध में वृद्धि करनी चाहिये। अधिक सद्कर्मों के करने के लिए अधिक पुरुषार्थ अर्थात् श्रम करना होगा जिससे हमारे संचित पुरुषार्थ में भी वृद्धि होगी। इसके लिए यह जानना भी आवश्यक है कि मनुष्य जो कर्म करता है वह क्रियमाण व संचित कर्म होते हैं। क्रियमाण कर्म वह होते हैं जिसका फल करने के साथ व कुछ समय में ही मिल जाता है। दूसरे कर्म संचित कर्म होते हैं जो हमारे प्रारब्ध में जुड़ कर उसमें वृद्धि करते हैं। संचित कर्म व संचित प्रारब्ध से भावी समय अर्थात् परजन्म में हमें उसके अनुरूप जाति, आयु और भोग प्राप्त होते हैं। सद्कर्मों व पुरुषार्थ से बना प्रारब्ध ही हमें मोक्ष तक ले जाता है। यदि हम अपने प्रारब्ध में सद्कर्म रूपी पुरुषार्थ की वृद्धि नहीं करते तो यह हमें दुःख व निम्न योनियों की यात्रा करा सकता है। यह भी जान लें कि प्रारब्ध को ही लोग भाग्य के नाम से भी कहते हैं।

 

प्रारब्ध व पुरुषार्थ को हम उदाहरण से भी समझ सकते हैं। प्रारब्ध हमारे संचित कर्मों की पूंजी है जिसके अनुरूप सुख व दुःख का भोग हमने कुछ कर लिया और शेष जीवन में भी करेंगे। प्रारब्ध के अनुसार ही हमें यह मानव जन्म मिला है। प्रारब्ध से ही हमारी जाति, आयु व भोग को परमात्मा हमारे जन्म से पूर्व निर्धारित करते हैं। हमारे इस जन्म से पूर्व परमात्मा ने हमारे प्रारब्ध के अनुसार इस मनुष्य जन्म, इसकी आयु व इसमें मिलने वाले सुख व दुःखों का निर्धारण किया है। इसी के अनुसार हमारा जीवन चल रहा है। प्रारब्ध को यदि कर्मों की पूंजी मान लें तो हम जो शुभ व अशुभ कर्म इस मानव जीवन में करते हैं वह उस प्रारब्ध के शुभ व अशुभ कर्मों में संग्रहित होते जाते हैं। प्रारब्ध में यदि सद्कर्मों का अधिकता होती है तो हमें मृत्योपरान्त मनुष्य जन्म मिलता है और यदि हमारे अशुभ कर्मों अधिक होते हैं तो हमें पशु व इससे भी निकृष्ट योनियों में जाना पड़ता है जहां सुख कम व दुःख अधिक होते हैं। अनादि काल से यह क्रम चला आ रहा है। इसी सिद्धान्त के अनुसार ही हम अब तक अनन्त बार जन्म ले चुके हैं। संसार में हम जितनी भी योनियां देखते हैं, प्रायः उन सभी योनियों में हमारा अनेकानेक बार जन्म हो चुका है। अनेक बार हम मोक्ष में भी रह चुके हैं। परमात्मा हमारे सभी जन्मों व मोक्ष का साथी रहा है और आगे भी रहेगा। हम जितने अधिक शुभ कर्म करते हैं उतना अधिक परमात्मा के निकट होते हैं और बुरे कर्म करने से परमात्मा से हमारी दूरी हो जाती है। यह दूरी देश व काल की नहीं होती। यह ऐसा होता है कि जैसे हमारे किसी बुरे आचरण से हमारे माता, पिता या मित्र नाराज हों तो सामने होकर भी वह हमसे बातें नहीं करते और उपेक्षा का व्यवहार करते हैं। कुछ इसी प्रकार की दूरी परमात्मा से बुरे कर्म करने पर होती है जिससे हमें लाभ नहीं अपितु दुःख की प्राप्ति रूप हानि होती है। अतः हमें सोच विचार कर अपने जीवन में केवल अच्छे कर्मों का ही आचरण करना चाहिये जिससे हमारा प्रारब्ध शुभ कर्मों से भरा हुआ हो और हम वर्तमान व भावी जन्मों में अधिक से अधिक सुखों को प्राप्त हो सकें और ईश्वर की कृपा से मोक्ष की स्थिति में पहुंच कर मोक्ष को भी प्राप्त कर सकें।

 

प्रारब्ध शुभ और अशुभ कर्मों से बनता है। हम पहले लिख चुके हैं कि मृत्यु के समय यदि मनुष्य के शुभ कर्म आधे से अधिक होते हैं तो मनुष्य जन्म मिलता है। जीवात्मा के शुभ कर्म जितने अधिक होंगे उसी के अनुसार उसका मनुष्य जन्म श्रेष्ठ माता-पिता व परिवेश में होगा ऐसा अनुमान होता है। हम यदि इस जन्म में एक अशिक्षित एवं निर्धन माता-पिता के यहां जन्में हैं तो इसका कारण भी हमारा प्रारब्ध ही है। यदि प्रारब्ध इससे अधिक अच्छा होता तो सम्भव था कि हमें ऐसे माता-पिता मिलते जो वेद ज्ञान से युक्त व साधन सम्पन्न हो सकते हैं। माता-पिता यद्यपि निर्धन व अशिक्षित थे परन्तु थे दोनों ही धर्मात्मा। उनसे हमें वैसे ही संस्कार मिले। उन्होंने अभावों में रहते हुए भी हमारी शिक्षा व अच्छे संस्कारों का अपनी क्षमाता से कहीं अधिक उत्तम प्रबन्ध किया जिसका लाभ हमें यह मिला कि हम कुछ शिक्षित हो गये और आर्यसमाज की शरण में जा पहुंचे जहां हमें आर्यसमाज के विद्वान मित्रों की संगति मिली, हमारा मन प्रवचन व उपदेश सुनने में लगता था, हम आर्यसमाज के बड़े उत्सवों में जाते थे, स्वाध्याय में भी हमारी रूचि थी, हम अन्य वस्तुओं पर धन का व्यय न कर पुस्तकें व पत्र-पत्रिकाओं के क्रयण में वा उरके सदस्य बन कर उनका अध्ययन वा स्वाध्याय करते थे आदि। हमें ज्ञात नहीं कि हमारा पूर्व जन्म व प्रारब्ध एवं संस्कार कैसे थे परन्तु इस जन्म में हम ऋषि दयानन्द, आर्य विद्वानों व आर्यसमाज से जुड़ कर पूर्ण सन्तुष्ट हैं। अन्यों के बारे में भी हमारी ऐसी ही राय है। यह हमने प्रारब्ध व पुरुषार्थ के विषय में कुछ बताने का प्रयत्न किया है।

 

ऋषि दयानन्द के ग्रन्थों एवं इतर वैदिक साहित्य का अध्ययन करने पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचे हैं कि मनुष्यों को वैदिक साहित्य के अध्ययन में रूचि लेनी चाहिये। उसके अनुरूप आचरण करना चाहिये, ईश्वरोपासना एवं यज्ञ आदि यथाशक्ति करने चाहिये और अपने मन को स्वाध्याय व ईश्वर चिन्तन में लगाना चाहिये जिससे अनावश्यक विचार मन में न आयें। इसके अतिरिक्त परोपकार व दान आदि भी यथाशक्ति करते रहना चाहिये। अच्छे मित्र बनाने चाहिये जो वेद के विद्वान हां, सच्चरित्र हों, सामिष भोजन न करते हों, जिनमें चारित्रिक दोष न हों। ऐसा करने पर हमारा जीवन व कर्म अच्छे हो सकते हैं। यह पुरुषार्थ हमारे प्रारब्ध में गुणात्मक वृद्धि कर हमारे लिए शुभ होगा।

 

यदि मनुष्य को अपने जीवन का उत्थान व कल्याण करना हो तो उसे वेदों के सर्वोपरि विद्वान महर्षि दयानन्द जी का जीवन चरित्र पढ़ना चाहिये और उनकी चारित्रिक विशेषताओं को अपने जीवन में धारण करना चाहिये। स्वामी श्रद्धानन्द, पं. गुरुदत्त विद्यार्थी, पं. लेखराम, स्वामी विद्यानन्द सरस्वती, डा. आचार्य रामनाथ वेदालंकार आदि आर्य पुरुषों के जीवन चरित्र व साहित्य को पढ़ना चाहिये। इससे पुरुषार्थ की प्रेरणा तो मिलेगी ही, इससे प्रारब्ध भी सुधरेगा व वृद्धि को प्राप्त होगा और हमारा यह जीवन व परलोक निश्चय ही सुधरेगा। इसी के साथ चर्चा को विस्तार न देकर विराम देते हैं। ओ३म् शम्।

 

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