समाज

वैधव्य

bengali widows in mathura

अभी कुछ दिनो पहले नृत्याँगना, अभिनेत्री और भाजपा की मथुरा से सांसद, स्वप्नसुंदरी हेमा मालिनी का वृंदावन मे बसी विधवाओं के बारे मे एक बयान आया था।उन्होने बताया था कि वहाँ 40,000 विधवायें रह रही है, और इससे ज्यादा को रखने की वहाँ जगह नहीं हैं। उन्होने कहा था कि ये विधवायें मौत के इंतज़ार मे जी रहीं है। अधिकतर विधवायें बंगाल और बिहार से आती है, अब उन्हें वहीं बसाने का प्रबंध करना चाहिये। उनके इस बयान को बहुत असंवेदनशील मानकर उसकी निंदा हो रही है। हेमा जी ने कुछ शब्दों के चयन मे ग़लती भले ही करली हो, पर उन्होने कुछ ग़लत भी नहीं कहा था ।पूरे देश से परित्यक्त विधवाओं को क्या एक ही स्थान पर बसाया जा सकता है? पति के जाने के बाद जिन महिलाओं के सभी अधिकार छीन कर उनके मायके और ससुराल के परिवारों ने उन्हे दूसरों की दया पर जीवनयापन करने के लियें वृन्दावन मे छोड़ दिया हो, वो मौत के इंतज़ार के अलावा और क्या करेंगी!

हम आजकल अपनी हिन्दू परम्पराओं और पूर्वी संसकृति की तारीफ़े करते नहीं थकते हैं, पर बहुत सी अच्छी बातों के साथ परम्पराओं की आड़ मे यहाँ बहुत सी कुरीतियां भी पनपी है ,उन्ही मे से एक है विधवाओं के साथ दुर्व्यवहार होना और उसे सामाजिक स्वीकृति मिलना।दुर्व्यवहार की चरम सीमा हो जाती है, जब परिवार किसी विधवा को त्याग कर उसे तीर्थ स्थान पर निराश्रय छोड़ देता है, आने जाने वालों की दया पर उनका  जीवन यापन होता है।

पहले लड़कियां को ज्यादा पढ़ाया लिखाया नहीं जाता था, उनकी हर ख़ुशी पति से जुड़ी होती थी, सच तो ये है, कि उनका अस्तित्व ही पति से था, पति और उसके परिवार के लियें ही था।पति कैसा भी हो, परमेश्वर था! पति के जाने के बाद विधवाओं का जीवन समाज नर्क से भी बत्तर बना देता था। कहीं कहीं पर उनके बाल मुढवा दिये जाते थे, उनसे अच्छे कपड़े पहनने, सजने धजने और मनोरंजन के सारे हक़ छीन लिये जाते थे ।एक दुखी इंसान को दुख से उबारने के बदले किसी अकेली कोठरी मे जीने के लियें छोड़ दिया जाता था। ख़ुद पकाये और खाये, चटाई पर सोये, भगवान का ध्यान करे, यही उसका जीवन था। परिवार की ख़ुशी मे, किसी उत्सव मे,शादियों मे उसको दूर रखा जाता था, अपशगुनी माना जाता था। घर से बाहर निकलते समय उसका चेहरा दिख जाये तो कुछ बुरा होगा ऐसा माना जाता था। ऐसे मे उसके पुनर्विवाह की बात तो सोचना बड़ी दूर की बात है। पत्नि मर जाये तो उसकी राख ठंडी होने से पहले ही पुरुष के लियें रिश्ते आने लगते थे।

कभी कभी नारकीय जीवन जी रही इन विधवाओं को परिवार के ही पुरुषों द्वारा यौन शोषण का शिकार होना पड़ता था। बेचारी विधवा किसी के सामने क्या आवाज़ उठायेगी, उसकी ज़बान तो पहले ही काट दी जाती थी, ऐसे मे अगर कोई विधवा गर्भवती होई तो उसे बदचलन कहकर और अधिक सताने या घर से निकाल देने के मामले भी सामने आये हैं।

हमारे यहाँ हर विवाहित महिला को एक आशीर्वाद देने की परम्परा है ‘सौभाग्वती रहो’ , ज़रा सोचें इसका अर्थ क्या है- ‘तुम अपने पति से पहले मर जाओ’, ये दीर्घायु का आशीर्वाद पुरुष के लियें है, महिला के लियें नहीं, क्योंकि पति की मृत्यु के बाद महिला का जीवन इतना नर्क बना दिया जाता था, कि सौभाग्यवती मरना महिला के लिये आशीर्वाद हो गया!

महिलाओं को करवा चौथ तथा अन्य बहुत से कठिन व्रत पति की दीर्घायु के लियें करवाने की प्रथा है, जिसका कारण भी विधवा जीवन का डर है। इन त्योहारों पर हर साल सुनाई जाने वाली कहानियां इन डरों को और पक्का करती हैं।पति से प्रेम दर्शाने के और भी तरीक़े हो सकते हैं फिर व्रत ही क्यों? डरी हुई पत्नी को भले ही डायबटीज़ या कोई और बीमारी हो , वो गर्भवती हो, चाहें वृद्धा हो, ये व्रत वो ज़रूर करती है… बहुत ज़रूरी हुआ तो डरते डरते उन्हे पानी या थोड़ा फलों का रस पीने की इजाज़त घर के बुज़ुर्ग दे देते हैं।इन सभी व्रतों के पीछे की मानसिकता वैधव्य का डर है, और कुछ नहीं!

भारत मे बाल विवाह की कुरीति भी बहुत थी, अभी भी है। छोटी छोटी बच्चियों की शादी हो जाती थी, दुर्भाग्यवश यदि वो विधवा हो गई तो उसको भी नहीं छोड़ा जाता था। उस बालिका ने पति को देखा भी नहीं होता था, शादी क्या होती है यह भी नहीं पता होता था, तब भी उसे विधवा का नारकीय जीवन बिताने के लियें उसके घरवाले ही मजबूर करते थे।

मैने कोई सर्वेक्षण तो नहीं किया है ना ही मेरे पास कोई आंकड़े हैं, पर जो देखा सुना है और माना जाता है, उसके अनुसार बंगाल बिहार और राजस्थान मे सबसे अधिक विधवाओं की दुर्दशा होती थी।

धीरे धीरे समाज मे परिवर्तन हो रहे हैं, लड़कियों को शिक्षा मिल रही है, वह आत्मनिर्भर हो रहीं हैं, जिससे आम तौर पर महिलाओं के साथ दुर्व्यवहार मे कमी आई है, पर आज भी बहुत से दकियानूसी परिवार शुभ काम मे उनकी उपस्थिति पसन्द नहीं करते, उनको संपत्ति मे हिस्सा नहीं देते।आज शहरों मे तो कम से कम विधवा महिलाओं को अपनी आयु और अवसर के अनुरूप कपड़े पहनने और श्रंगार करने की आज़ादी है, फिर भी अक्सर शादी जैसे आयोजनो मे वो सब रस्मे दूर से खड़े होकर देखती नज़र आती हैं, सक्रिय भूमिका मे नहीं। इसके दो कारण हो सकते हैं पहला कि उनके मन मे डर हो कि कहीं कोई कुछ कह न दे, दूसरा कारण यह हो सकता है कि स्वयं ही उन्हे ऐसा लगने लगा हो कि वो वाकई मे अशुभ हैं। उन्हे इस मानसिकता से बाहर लाना उनके आत्मविश्वास को बढ़ाने के लियें ज़रूरी है।

सभी विधवाओं पर अत्याचार होने बन्द हो गये हों, ऐसा तो नहीं कहा जा सकता, यदि ऐसा होता तो अब तक तीर्थ स्थानो पर विधवाओं की संख्या कम होने लगती। दूर दराज़ इलाकों से आज भी लोग अपने घर की विधवा मां या बहू बेटियों को वहाँ छोड़ जाते हैं।

पढी लिखी विधवाओं को कानून की जानकारी भी होती, वो अपने पति और परिवार की संपत्ति से अपना हक़ ऐसे ही नहीं खोने देंगी।यदि उनकी संपत्ति कोई छीनना चाहता है तो वो कानून और पोलिस की मदद ले सकती हैं। अच्छा तो यही होगा कि ऐसा करने की नौबत ही न आये।वो मायके या ससुराल मे कहीं भी रह सकती हैं।परिवार के लोग उन्हे शारीरिक या मानसिक आघात पंहुचाये तो ये जुर्म है। सबसे बडा अधर्म तो उनको मथुरा काशी छोड़ देना है, जिसके लियें ऐसा करने वालों को कड़ी से कड़ी सज़ा मिलनी चाहिये।

जो बुज़ुर्ग विधवायें तीर्थ स्थानों पर भटक रही हैं, उनको वृद्धाश्रमो मे भेजकर उनके पुनर्वास की व्यवस्था करनी चाहिये अथवा वृन्दावन मे ही उनकी देख भाल का , रहने के स्थान का प्रबन्ध सरकार को और स्वयं सेवी संस्थाओं को करना चाहिये। युवा विधवाओं को कोई हुनर सिखाकर आत्मनिर्भर बनाने मे सहयोग देना चाहिये।अब और विधवाओं को काशी वृन्दावन मे छोडकर जाने की अनुमति नहीं मिलनी चाहिये। यदि कोई ऐसा करता है तो उस पर कानूनी कार्यवाही की जा सके, ऐसा कानून लाना चाहिये। इस कुप्रथा को भी सती की तरह पूर्णतः समाप्त करने की ज़रूरत है।एक सभ्य समाज के माथे पर ये कलंक है, जिसे मिटाना ज़रूरी है।

विधवाओं की स्थिति सुधरने के साथ साथ समाज मे विधवा विवाह भी होने लगे हैं। माता पिता ही नहीं, सास ससुर भी अपनी विधवा बहू का विवाह माता पिता बनकर करवा रहे हैं।कुछ प्रगतिशील परिवार अपने घर मे विधवाओ को बहू बनाकर ला रहे हैं, परन्तु बच्चे के साथ विधवाओं को अपनाने वाले मुश्किल से ही मिलते हैं।

कभी कभी मां अपने बच्चों को माता पिता दोनो का फ़र्ज पूरा करके पालती है, पढ़ाती है , उनका विवाह भी करवा देती है, तब तक उसकी आयु पचास के पार हो जाती है।आयु के इस मोड़ पर यदि कोई व्यक्ति उसे मिल जाता है और बाकी की ज़िन्दगी दोनो साथ बिताना चाहते हैं तो उनके बच्चे ही उनकी शादी मे बाधा डालते हैं, शायद समाज उनपर हंसेंगा, ऐसा सोचते है। समाज क्या कहेगा यह उनकी मां की ख़ुशी और सुख से ऊपर कैसे हो गया!

अंत मै कुछ व्यक्तिगत अनुभव भी साझा करना चाहूंगी । मुझे गर्व है कि मेरे माता पिता ने 1941 मे जब विधवा विवाह के बारे सोचना भी मुश्किल था अपनी भतीजी जिनकी कुछ महीने की बेटी भी थी, उनका विवाह करवाया था, काफ़ी विरोध के बाद। मुझे गर्व है कि मेरी मां ने 1956 मे मेरे पिताजी के निधन के बाद केवल अपनी पारिवारिक संपत्ति की ही देखभाल नहीं की, उसे कुछ स्वार्थी लोगों से बचाया भी था । अपने बच्चों को योज्ञ बनाकर उनके विवाह भी करवाये । 1969 मे उन्होने वो काम किया था, जो आज भी करने की हिम्मत लोगों मे नहीं होगी । विधवा होने के बावजूद मेरी शादी मे वो सारी रस्मे ,जो कन्या की मां निभाती है , उन्होने स्ययं निभाईं थी, कन्यादान भी अकेले ही उन्होने किया था। मुझे इस बात पर भी गर्व है कि उनके इस क़दम का मेरी ससुराल के परिवार ने कोई विरोध भी नहीं किया था